15-Jun-2013 07:04 AM
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भारतीय जनता पार्टी विकट संकट के दौर में है। लालकृष्ण आडवाणी मान अवश्य गए हैं किंतु इस वयोवृद्ध नेता के सीने में खौलता लावा तबाही करने के लिए बेताब है। जिस भारतीय जनता पार्टी को

आडवाणी ने 2 से 180 के आंकड़े तक पहुंचाया वही भाजपा आज उनको हाशिए पर धकेलकर नए नेतृत्व का स्वागत कर रही है।
गुलिश्ता को लहू की जरूरत पड़ी
सबसे पहले गर्दन हमारी कटी।
अब यह कहते हैं हमसे अहले चमन
ये चमन है हमारा तुम्हारा नहीं।
वर्ष 2008 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में सुषमा स्वराज ने भाजपा की एकता का आव्हान करते हुए महाभारत के एक प्रसंग का उल्लेख किया था जिसका सार यह था कि आपसी मतभदे में हम भले ही कौरव-पांडव हों, लेकिन बाहरी ताकतों से मुकाबला करते समय हम 105 हैं। अर्थात् कौरव-पांडव एक हैं। आज लगभग आधे दशक बाद मुकाबला एक बार फिर बाहरी ताकतों से हैं, लेकिन भीतर भी कौरव और पांडवों में घमासान मचा हुआ है और इस घमासान में कृष्ण जो कि इस बार स्वयं कमान संभालने के इच्छुक हैं, सारथी बनने को विवश किए जा रहे हैं। आखिर कब तक सारथी ही बनते रहेंगे भाजपा के कृष्ण? अपने इस्तीफे को मोहन भागवत के कहने पर दुखी मन से वापस लेने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने जब फोन पर नीतिश कुमार और शरद यादव को मनाने की कोशिश की तो उनकी वाणी में वह उत्साह नहीं था। क्या वे एनडीए को बचाने की दिल से कोशिश कर रहे थे? यह जानते हुए भी कि एनडीए की सरकार बनी तो वे शायद ही कोई पद उस सरकार में प्राप्त कर पाएं। (प्रधानमंत्री से नीचे किसी भी पद पर भला वे कैसे काम कर सकते हैं।) एनडीए भी भला कैसे बचा सकता है। यदि उसमें लालकृष्ण आडवाणी न हो तो।
गोवा में सुनियोजित दांव
गोवा अधिवेशन में जो कुछ हुआ वह भाजपा के असंख्य हाइटेकÓ कार्यकर्ताओं के दिल की आवाज भले ही हो लेकिन एनडीए और देश के करोड़ों भाजपा मतदाताओं के दिल की आवाज है या नहीं इसका आंकलन करना किसी के सामथ्र्य में नहीं है। यही कारण है कि लालकृष्ण आडवाणी इस्तीफा देने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकते थे। यदि वे चुप्पी साध लेते तो इसका अर्थ यह होता कि मोदी को उनकी मौन स्वीकृति है। जबकि मोदी का वे बार-बार मुखर विरोध करते आ रहे थे। खासकर वर्ष 2008 के बाद जब किसी ने कहा था कि मोदी पार्टी से भी बड़े हो गए हैं।
जिन्ना प्रकरण के बाद निस्तेज हुए आडवाणी 84 वर्ष की उम्र में भारतीय राजनीति के सबसे कद्दावर नेता भले ही हों लेकिन एक नेता के रूप में उनके विकसित होने की कहानी में कुछ ऐतिहासिक गलतियां निहित रहीं, जिनके चलते सर्वशक्तिशाली, सर्व स्वीकार्य और सक्षम होते हुए भी वे भारत के सबसे ताकतवर पद तक पहुंचने में कामयाब न हो सके। पीछे मुड़कर जब आडवाणी देखते होंगे तो कुछ गलतियां उन्हें अवश्य कचोटती होंगी। बाबरी विध्वंस के समय अयोध्या में रहने की गलती, अटल बिहारी की राय को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी को तरजीह देने की गलती, मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर घोषित करने की गलती। इतिहास अपने को दोहराता है, आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को लेकर जिस अतिरेक का प्रदर्शन आज से बारह वर्ष पूर्व किया था वही अतिरेक आज उनके सामने आ खड़ा हुआ है, नए रूप में। जिस भारतीय जनता पार्टी में आडवाणी की सहमति के बिना पत्त्ता भी नहीं हिलता था उसी भाजपा में उनकी तरफदारी करने वाले गिने-चुने रह गए हैं। जो हैं वे केवल मना रहे हैं। हालात को स्वीकार करने की सलाह दे रहे हैं। एनडीए आडवाणी के बगैर अस्तित्व विहीन हो जाएगा। इस आशंका के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कहने पर राजनाथ सिंह ने जो कदम उठाया है उसका वास्तविक कारण क्या है यह जानने की कोशिश भारतीय राजनीति के जानकार भी कर रहे हैं, लेकिन अभी तक इसका कोई ठोस कारण समझ नहीं आया है।
ग्वालियर में ही लिखी गई थी पटकथा
लालकृष्ण आडवाणी को यह आभाष था कि राजनाथ सिंह संघ के इशारे पर नरेंद्र मोदी को कमान सौपने की तैयारी कर चुके हैं। इसका संकेत ग्वालियर में अधिवेशन के दौरान आडवाणी के उस भाषण से मिल गया था जिसमें उन्होंने अनुपात से कहीं ज्यादा शिवराज सिंह चौहान की प्रशंसा की। वे कोशिश कर रहे थे कि उनकी प्रशंसा के पीछे छिपे संकेतों को राजनाथ समझ लें, संघ को भी उन्होंने संदेश देनेे की कोशिश की, लेकिन इबारत लिखी जा चुकी थी। सुरेश सोनी, नरेंद्र मोदी को कमान सौंपे जाने के बाद की स्थिति का आंकलन करने में जुटे थे। वे जानने का प्रयास कर रहे थे कि कौन से नेता हैं जो मोदी की खुलकर मुखालफत करते हैं और उनका प्रभाव कितना है। इसी कारण जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से गोवा में ही मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी कमान सौंपने के साथ प्रधानमंत्री पद का संभावित उम्मीदवार घोषित किए जाने की बात उठी तो संघ के फीलरÓ को शायद इसलिए टाल दिया गया क्योंकि भाजपा पहले पत्थर फेंककर गहराई नापने की कोशिश का रही थी। आडवाणी ने इस्तीफा भी इसीलिए दिया और अब एनडीए टूटने की कगार पर है। गहराई नाप ली गई है। इस्तीफा असरकारी नहीं है एनडीए का बिखराव अवश्य चिंता का विषय है।
सर्वस्वीकार्य नहीं हैं मोदी
राजस्थान में वसुंधरा मोदी को चुनाव प्रचार के लिए मना कर चुकी हैं। शिवराज सिंह भी तहे दिल से उन्हें आमंत्रित नहीं करते हैं। रमन सिंह पहले ही मोदी की आवश्यकता के विषय में मौन हैं, बिहार में नीतिश खुलकर मोदी के विरोध में हैं और अन्य कई राज्यों में यही हालात हैं। जिस नेता को पार्टी के भीतर ही सर्वस्वीकृति न मिली हो उसे चुनावी कमान सौंपकर कहीं भाजपा ने नादानी तो नहीं की है। इसका असर आगामी चुनाव में साफ देखा जा सकता है। वसुंधरा तो मोदी को घोषित किए जाने से सकते में हैं। मुस्लिम वोट अब कांग्रेस ही नहीं भाजपा के लिए भी महत्वपूर्ण हो चुके हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या गुजरात में लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी सारी सीटें जिताने की ताकत रखते हैं।
कांग्रेस को वाकओवर
नरेंद्र मोदी के रहते भारतीय जनता पार्टी तभी सत्ता में आ सकती है जब नरेंद्र मोदी के पक्ष में देश में लहर चले। अभी केवल सोशल मीडिया और शहरी वर्ग के बीच मोदी अपनी पकड़ बना पाए हैं। इस पकड़ में भी मीडिया का बड़ा व्यापक योगदान है, जिसने पहले उन्हें बड़े भारी खलनायक के रूप में प्रचारित किया और फिर विकास के नायक का दर्जा दे दिया। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। इसी तर्ज पर मोदी को भी कुख्यात होने का जितना फायदा मिला उतना भारत की राजनीति में किसी अन्य राजनेता को नहीं मिला।
यह भी सच है कि मोदी के केंद्र में आने से अब भाजपा और कांग्रेस के बीच राहुल बनाम मोदी अर्थात् दो व्यक्तित्वों की जंग हो गई है और कांग्रेस मोदी के आने की संभावना से घबराई भले ही न हो लेकिन सतर्क अवश्य है। दिग्विजय सिंह के आडवाणी समर्थक बयानों में इस सतर्कता की अनुगूंज सुनाई देती है। लेकिन मोदी के आने से फायदा अंतत: कांग्रेस को ही होना है। क्योंकि ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक की जो जंग छिड़ेगी उसमें फायदा अंतत: कांग्रेस को ही होगा। कई राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हो सकते हैं। भाजपा को फायदा यह मिलेगा कि मोदी के विरुद्ध लामबंदी मोदी की छवि में इजाफा ही करेगी। पांच राज्यों के चुनाव में नरेंद्र मोदी को विपक्षियों द्वारा खलनायक के तौर पर प्रस्तुत करने की जो कोशिशें की जा रही हैं वह रणनीति कामयाब भी हो सकती है और ध्वस्त भी हो सकती है। क्योंकि नरेंद्र मोदी के आने से हिंदु-मुस्लिम धु्रवीकरण अवश्य होगा। जिससे जातिवाद का मुद्दा गौण हो जाएगा और हिंदुत्व अपनी पूरी प्रखरता के साथ उभरकर सामने आ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो मोदी की कामयाबी सुनिश्चित है। अन्यथा मोदी से भाजपा को नुकसान ही होना है।
क्या भविष्य है एनडीए का
1996 में जब प्रधानमंत्री पद का प्रश्न उठा था तो लालकृष्ण आडवाणी ने स्वयं अपने आपको उस दौड़ से अलग करते हुए घोषणा की थी कि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी होंगे। उस समय जार्ज फर्नांडीज, बाला साहब ठाकरे जैसे नेताओं ने वाजपेयी को आगे बढ़कर समर्थन दिया। दक्षिण से चंद्रबाबू नायडू भी समर्थन में आए। ममता बनर्जी, जयललिता सहित तमाम क्षेत्रीय दलों ने मिलकर एनडीए का गठन भाजपा की अगुवाई में किया था। लालकृष्ण आडवाणी के दामन पर अयोध्या में विवादास्पद ढांचे के विध्वंस का दाग था। इसलिए वे एनडीए में उस समय स्वीकार्य नहीं थे लेकिन बाद में अयोध्या प्रकरण में कोर्ट द्वारा मुक्त किए जाने के उपरांत उनकी स्वीकारोक्ति बढ़ गई। उस समय तक एनडीए से कई पार्टियां छिटककर दूर हो गईं थी। आज हालत यह है कि नवीन पटनायक, जयललिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू एनडीए के साथ नहीं हैं। मायावती किसी भी सूरत में साथ नहीं आ सकती है। बाकी दलों को मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है और स्वयं भारतीय जनता पार्टी लगातार राज्यों में सिमटती जा रही है। दिल्ली, हिमाचल, राजस्थान, उत्तराखंड, कर्नाटक जैसे राज्यों की सत्ता कांग्रेस ने भाजपा से छीन ली है। झारखंड में राष्ट्रपति शासन है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और गोवा इन चार राज्यों में भाजपा को मजबूत कहा जा सकता है। बाकी देश में कहीं भी भाजपा ताकतवर स्थिति में नहीं है। सहयोगियों के साथ मिलकर वह बिहार, पंजाब जैसे राज्यों में सत्ता में है और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में सिमट चुकी है। ऐसी स्थिति में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आगामी चुनाव के लिए सीटें कहा से आएंगी। आडवाणी के नाम पर भाजपा की सीटों में इजाफा न होता, किंतु सहयोगियों के साथ मिलकर लडऩे और सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरने का फायदा चुनाव के बाद नए सहयोगी तलाशने में हो सकता था। लेकिन अब यह संभव नहीं है। मोदी के रहते भाजपा की सीटों में भले ही इजाफा हो जाए, लेकिन सत्ता फिर भी दूर की कौड़ी लगती है।
आडवाणी के इस्तीफे ने बयां की सच्चाई
लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को जो इस्तीफा भेजा था उसमें भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान स्थिति का लघु चित्र खींच दिया गया था। अपने पितृ पुरुष को घी की मक्खी की तरह निकाल फेंकने वाली भाजपा आज लाभ कमाऊ पार्टी बन चुकी है। भू-माफिया, शिक्षा माफिया और खदान माफिया पार्टी की शोभा बढ़ा रहे हैं। राज्यों में प्राय: हर मंत्री, विधायक की या तो खदानें हैं, या जमीनें हैं, शिक्षण संस्थाएं हैं और भी अन्य तरह के काम-धंधे हैं। निजी व्यवसाय का अधिकार सभी को है इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन जिस तरह से भाजपा से जुड़े तमाम नेताओं के काम धंधे अचानक फले-फूले हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का विषय है। नेताओं का आर्थिक सशक्तिकरण आडवाणी जैसे सिद्धांतप्रिय राजनीतिज्ञ को घायल कर रहा है। इसीलिए अपने इस्तीफे में आडवाणी ने साफ लिखा कि पार्टी सिद्धांतों से भटक गई है। इस भटकन का परिणाम क्या होगा यह आडवाणी जैसा दूरदर्शी नेतृत्व समझता है और बाकी शुभचिंतकों की तरह उनकी भी चिंता यही है कि कहीं राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा 180 से सिमटते-सिमटते फिर 2 की स्थिति में न पहुंच जाए।
मोदी सबको ध्वस्त कर देंगे
अपने विरोधियों को कुचलने के लिए मोदी विख्यात हैं। जिस कुशलता से उन्होंने जोशी और तोगडिय़ा को ठिकाने लगाया उसी कुशलता से अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने का अभियान उन्होंने शुरू कर दिया है। चुनाव समिति की कमान संभालने के साथ ही मोदी ने कहा है कि हर बड़ा नेता अपना राज्य और क्षेत्र तलाशे फिर चुनाव लड़े। राज्यसभा में बिजनेस मैन, वैज्ञानिक, पत्रकार, प्रोफेसर, साहित्यकार इत्यादि को जगह मिले। मोदी संघ के एजेंडे को पूरी तरह अमली जामा पहनाना चाहते हैं। जो राजनीति में है वह चुनाव के मैदान में भी हो और जो थिंक टेंक है वह राजनीति से दूर रहकर केवल संरक्षक की भूमिका निभाए। मोदी की चली तो राज्यसभा में कई चेहरे बदल जाएंगे और मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, वेंकैया नायडू, अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रसाद रूढ़ी, नजमा हेपतुल्ला, प्रकाश जावडेकर सहित कई बड़े नेताओं को लोकसभा चुनाव के मैदान में उतारा जाएगा और उन्हें अपना-अपना चुनावी क्षेत्र तलाशना होगा। वहीं कई बड़े नेता सुषमा स्वराज, आडवाणी जैसे नेताओं को भी अपने राज्यों से ही चुनाव लडऩे को कहा जा सकता है।
कुछ राज्यों तक ही सिमटी भाजपा
आंध्र की 42 सीटों में से एक भी सीट भाजपा के पास नहीं है। अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, केरल, सिक्किम तमिलनाडु, त्रिपुरा, चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन और दीव, दिल्ली, लक्ष्यदीप, पांडिचेरी मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, सिक्किम, तमिलनाडु में भाजपा शून्य है। असम में 14 में से 4 सीटें भाजपा के पास हैं। बिहार की 40 सीटों में 12 सीटें भाजपा के पास हैं। छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 सीटें भाजपा के पास हैं। गोवा की दो में से एक सीट पर भाजपा है। गुजरात में 26 में से 17 सीटें भाजपा के पास हैं। हिमाचल में 4 में से 3 सीटें है। झारखंड में 14 में से 7 सीटें है। कर्नाटक में 28 में से 18 सीटें। केरल में भाजपा शून्य है। मप्र में 29 में से 14 सीटें हैं। महाराष्ट्र में 48 में से कुल 8 सीटें है। पंजाब में कुल एक सीट है। राजस्थान की 25 सीटों में से कुल 4 सीटें हैं। उत्तरप्रदेश की 80 सीटों में से मात्र 10 सीटें भाजपा के पास हैं, उत्तराखंड में 5 में से एक सीट हैं। पश्चिम बंगाल में 42 में से एक सीट हैं। अंडमान निकोबार में एक सीट है। कुल मिलाकर 10 राज्य ऐसे हैं जहां संतोषप्रद मौजूदगी कही जा सकती है। बाकी अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भाजपा की मौजूदगी न के बराबर है। यहां कभी सहयोगियों के सहारे भाजपा ने सत्ता हासिल की थी अब वह भी मुमकिन नहीं है। नरेंद्र मोदी कोई करिश्मा कर पाएंगे इसमें भी संदेह ही है।