27-Apr-2018 06:29 AM
1234819
सीरिया की घटना ने विश्व को सीधे-सीधे दो खेमों में बांट दिया है। एक खेमा अमरीका के साथ नजर आ रहा है और दूसरा उसके खिलाफ। दुनिया की यही खेमेबंदी उसे तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ धकेलती नजर आ रही है। सीरिया के भीतर चल रहा गृहयुद्ध 70 साल बाद एक बार फिर दुनिया को तबाही के कगार पर पहुंचाता नजर आ रहा है। रूस ने अपने नागरिकों को युद्ध के लिए तैयार रहने की चेतावनी जारी कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं। दूसरी तरफ अमरीका सीरिया पर फिर ऐसे हमलों की संभावना जताकर महासंग्राम का खाका तैयार कर रहा है।
विश्वयुद्ध की आशंका पर हर किसी का चिंतित होना स्वाभाविक है। भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से। रूस ने भारत का दशकों तक साथ निभाया है। तो हाल के दिनों में अमरीका भारत का नया मित्र बनकर उभरा है। भारत की विदेश नीति को ध्यान में रखा जाए तो इसके तटस्थ रहने के प्रबल आसार हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये कि क्या आग की लपटों से बचना इतना आसान होगा। भारत भले किसी पाले में खड़ा नजर नहीं आए लेकिन क्या हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान ऐसा होने देंगे। चीन और पाकिस्तान का अमरीकी विरोध किसी से छिपा नहीं। युद्ध की आशंका के बीच सबसे बड़ी चिंता मध्यस्थ देशों की कमी के रूप में नजर आती है।
ऐसा कोई देश नहीं जो इन दो महाशक्तियों को समझाने में कामयाब हो पाए। इस दौर में संयुक्त राष्ट्र भी कुछ कर पाएगा, उम्मीद कम ही नजर आती है। पिछले लम्बे समय से सीरिया गृह युद्ध की आग में झुलस रहा है। सीरिया में सरकार समर्थक और विरोधी खून की होली खेल रहे हैं। लेकिन संयुक्त राष्ट्र इसमें अपनी भूमिका निभाता कभी नजर नहीं आया। विश्वयुद्ध की सूरत बनी तो भी संयुक्त राष्ट्र इसे रोक पाएगा, कहना मुश्किल है। अमरीका और रूस की धमकियों के बीच तनाव बढऩा तय है। पहले दो विश्वयुद्धों की त्रासदी दुनिया आज तक नहीं भूली है। चिंता यह है कि आज के दौर में युद्ध हुआ तो कितने हिरोशिमा और नागासाकी तबाह होंगे। जो जख्म लगेंगे उन्हें भरने में कितने दशक लगेंगे।
दुनिया के ताकतवर मुल्क इस मुद्दे पर दो धड़ों में बंटते दिख रहे हैं। एक ओर रूस, ईरान और सीरिया ने इस हमले का विरोध किया है। वहीं, दूसरी ओर जर्मनी, इसराइल, कनाडा, तुर्की, और यूरोपीय संघ ने अमेरिका के इस कदम का स्वागत किया है। लेकिन, भारत सरकार की ओर से अब तक इस ताजा घटनाक्रम पर किसी तरह की प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। जबकि भारत के दोनों पक्षों के साथ करीबी संबंध हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर इन दोनों गुटों में तनाव बढ़ता है तो भारत किस ओर खड़ा दिखाई देगा।
मध्य-पूर्व मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं, अगर इन मुल्कों के बीच तनाव आगे बढ़ता है तो भारत के लिए स्थिति बेहद जटिल हो जाएगी। एक तरफ अमेरिका और ब्रिटेन है जिनसे हमारे आज ही नहीं बेहद पुराने संबंध हैं। दूसरी तरफ रूस है जिसके साथ भी हमारे पुराने संबंध हैं और रूस ने हमारा खुलकर साथ भी दिया है। लेकिन अगर बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इस समय भारत के संबंध पश्चिमी देशों से अच्छे बने हुए हैं। ये तय है कि भारत जंग नहीं चाहेगा, यूएन के रास्ते चलने की बात करेगा। भारत की विदेश नीति के इतिहास को देखें तो एक समय ऐसा भी आया है जब भारत कमजोर देशों के पक्ष में खड़ा होता दिखाई देता रहा है। लेकिन इस घटना के बाद भारत मौन है।
भारत को इस चुप्पी से क्या मिलेगा?
अमेरिका ने इससे पहले यूएन की अनुमति के बिना ही इराक पर भी हमला बोला था। उस दौरान भी भारत ने अमेरिका के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं बोला था। लेकिन इतिहास में थोड़ा और पीछे जाएं तो पता चलता है कि जवाहरलाल नेहरू के दौर में भारत सैद्धांतिक रूप से अपनी बात रखने में आगे हुआ करता था। रक्षा मामलों के जानकार सुशांत सरीन बताते हैं, भारत ने बीते 20 सालों में चीन, रूस और अमेरिका के बीच संबंधों में रणनीतिक संतुलन बनाने की कोशिश की है। क्योंकि अमेरिका के साथ बढ़ती दोस्ती के बाद भी भारत, रूस को नहीं छोड़ सकता है। इसकी वजह ये है कि रूस हमें रक्षा संबंधी मदद करता है। जैसे रूस अपनी न्युक्लियर सबमरीन और विशेष विमान देता है। अमेरिका ये सब नहीं देता है। भारत के साथ एक व्यावहारिक समस्या ये है कि भारत का सैन्य साजोसामान अभी भी 70 फीसदी रूस में बना हुआ है। अगर भारत इस पर कोई रुख अख्तियार करता है तो इन सैन्य साजो-सामान के पाट्र्स और गोला-बारूद की एक विकट समस्या खड़ी हो सकती है। अमेरिका के खिलाफ भारत का, खासतौर पर मोदी सरकार के दौर में, किसी तरह की पोजिशन लेने का सवाल ही खड़ा नहीं होता।
- माया राठी