17-Apr-2018 08:07 AM
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इन दिनों विश्व के कई देशों में जासूसी विवाद चल रहा है। खासकर रूस निशाने पर है। दरअसल विवाद पूर्व रूसी जासूस सेरगेई स्क्रिपाल और उनकी तैंतीस वर्षीय बेटी यूलिया पर ‘नर्व एजेंट’ से हमला करने पर उठा है। यह एक ऐसा जहर होता है जो तंत्रिका तंत्र पर असर करता है। अब ब्रिटेन की पुलिस ने अपनी जांच के बाद कहा है कि यह वही नर्व एजेंट है जिसका इस्तेमाल सेना में किया जाता है। ब्रिटेन रूस को इस हमले का जिम्मेदार मानता है। ब्रिटेन समेत कई पश्चिमी देशों से रूसी राजनयिकों को निष्कासित किया गया है। ब्रिटेन में रह रहे इस रूसी जासूस की हत्या की कोशिश के बाद दोनों देशों के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है। ब्रिटेन रूस के खिलाफ असाधारण रूप से सख्त कदम उठाना शुरू कर चुका है। उधर, रूस का भी कहना है कि वह जैसे को तैसा वाली रणनीति अपनाएगा। अब रूस को भी उन सभी देशों में बिलकुल नए सिरे से जासूसी कर्मियों को तैनात करना होगा और नई तकनीक का सहारा लेना होगा, उन देशों में, जो उसके खिलाफ जासूसी करते हैं।
दरअसल, हर देश में मौजूद विदेशी दूतावास जासूसों का भी अड््डा होते हैं। लेकिन यह सब पता होने के बावजूद सारे देश ऐसी जासूसी को स्वीकार करते हैं। आखिर ऐसा क्यों? दरअसल, इसके पीछे भी उनकी एक राजनीतिक चाल होती है। वैसे भी जासूसी की अंतरराष्ट्रीय दुनिया बड़ी स्याह और आमतौर पर गैरकानूनी है; उचित-अनुचित और नैतिक-अनैतिक की सारी मान्यताएं ताक पर रख दी जाती हैं; दूसरे देश में जासूसी के नाम पर आपराधिक कृत्य को भी जायज मान लिया जाता है। लेकिन इसके बावजूद हर देश इसे स्वीकार करता है। असल में यह ‘जेंटलमैंस एग्रीमेंट’ होता है। यह कोई लिखित या आधिकारिक समझौता नहीं होता, बस ‘आप मुझ पर नजर रखें और मैं आप पर’ वाली बात होती है। जैसा कि सभी जानते हैं, दूतावास हमेशा तथाकथित ‘इंटेलिजेंस’ अफसरों को नियुक्त करते हैं, यह देशों के बीच एक गैर-आक्रामक संधि-सी होती है, जिसके तहत सरकारें आपसी फायदे के लिए एक-दूसरे के मामलों पर आंखें मूंद लेती हैं। अगर किसी देश को अपने जासूसों को विदेश भेजना है तो उसे विदेशी जासूसों को भी अपने देश में मंजूरी देनी होती है। अब यह जासूसों पर निर्भर करता है कि वे कितनी जानकारी किस ढंग से निकाल पाते हैं। यही वजह है कि दूसरे देशों में जासूसों को अकसर डिप्लोमैट या कूटनीतिक अधिकारी के तौर पर नियुक्त किया जाता है। उन्हें ‘डिप्लोमैटिक इम्युनिटी’ हासिल होती है यानी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, और एक खास किस्म की सुरक्षा भी दी जाती है। कूटनीतिक संबंधों को लेकर 1961 की वियना संधि में इन बातों का जिक्र भी किया गया है।
अगर मेजबान देश किसी को खुफिया सेवा के कर्मचारी के रूप में पहचान लेता है तो यह अपने आप में अपराध नहीं है। लेकिन एक जासूस के रूप में उसकी क्या गतिविधियां हैं, मसलन मुखबिर भर्ती करना, जासूसी के लिए तकनीकी उपकरण लगाना आदि हरकतें गैरकानूनी मानी जाती हैं। सरकारें अकसर विदेशी जासूसों को निष्कासित नहीं करती हैं। उन्हें आमतौर पर ऐसे जासूसों का पता रहता है। ऐसा वे इसलिए नहीं करती, क्योंकि वे जानती हैं कि दूसरा देश भी निष्कासन की कार्रवाई करेगा। इससे दोनों के हित प्रभावित होंगे और राजनीतिक रिश्तों पर भी असर पड़ेगा। जासूस को निष्कासित करने के बाद सरकारों को यह भी पता नहीं चलेगा कि वह देश के भीतर क्या-क्या कर रहा था। उसे निष्कासित करने पर कोई नया कर्मचारी आएगा, जिसे समझने में काफी वक्त भी लगेगा। इसलिए वे अकसर इस तरह की कार्रवाई से बचा करती हैं।
मास्को ने जासूसी की दुनिया का ‘जेंटलमैंस एंग्रीमेंट’ तोड़ा
रूसी खुफिया एजेंसी हाल के सालों में बहुत ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है, रूस कम्युनिज्म से दूर जा चुका है लेकिन उसने ‘इंटेलिजेंस’ और ‘सिक्योरिटी कम्युनिटी’ जैसे विचारों को दूर नहीं किया है। पुतिन अपने और रूस के हितों को बचाने के लिए यह सब कुछ कर रहे हैं। रूसी एजेंटों को वापस भेजकर नाटो के सदस्य देशों ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि मास्को ने जासूसी की दुनिया का ‘जेंटलमैंस एंग्रीमेंट’ तोड़ा है, जिसका असर पूरे विश्व पर पड़ेगा। यह बात केवल रूस तक सीमित नहीं है बल्कि विश्व के तमाम बड़े देश यह काम बखूबी कर रहे हैं। आप पाकिस्तान को ही ले लीजिए, पाक उच्चायोग अब भारत के खिलाफ साजिश का अड््डा बन गया है। पाक खुफिया एजेंसी अपने जासूसों को पाक उच्चायोग में लगाती है। महमूद अख्तर इन्हीं में एक था, जिसे आइएसआइ ने भारत की जासूसी के लिए भर्ती किया था। महमूद की तैनाती इसीलिए वीजा विभाग में की गई थी ताकि वह आसानी से उन लोगों को फांस सके, जो वीजा बनवाने आते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि कई देश अपनी सुरक्षा की आड़ में जासूसी का यह खेल बखूबी खेलते हैं और आतंक का वातावरण तैयार करते हैं।
- माया राठी