न मियां मिले, न राम
26-Apr-2018 12:11 PM 1234862
अखिल भारतीय संयुक्त लोकतांत्रिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के नेता और जमाएत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष सिद्दीकुल्ला चौधरी को ममता बनर्जी ने अपने कैबिनेट में शामिल किया गया था। इसके पीछे उनकी मंशा कट्टरपंथी ताकतों को अपने साथ रखने की थी। लेकिन वही सिद्दीकुल्ला चौधरी आजकल गुस्से में चल रहे हैं। उन्होंने खुलेआम ममता को नंदीग्राम भूमि आंदोलन में जमाएत की भूमिका और कड़ी मेहनत को सार्वजनिक रूप से याद दिलाया है। ये भी याद दिलाया कि जमाएत ने जो काम किया उनके कैबिनेट में ऐसा करने की हिम्मत कोई भी नहीं कर पाया। मामले को सुलझाने के लिए खुद ममता बनर्जी को सामने आना पड़ा और उन्होंने सिद्दीकुल्ला को लोगों के बीच जाकर अपनी नाराजगी जाहिर करने के बजाए पार्टी के भीतर ही मुद्दों का हल निकालने की सलाह दे डाली। लेकिन आखिर सिद्दीकुल्ला गुस्सा क्यों हैं? इसका सबसे बड़ा कारण तृणमूल सरकार का अचानक ही हिंदू वोटरों को बहलाने के प्रति फोकस करना है। हिंदुत्व पर बीजेपी के आधिपत्य को खत्म करने के लिए ममता बनर्जी बेकरार हैं। यही कारण है कि वो अब हिंदू कार्ड खेलने से परहेज नहीं कर रहीं। लेकिन उनके इसी कदम से कुछ अल्पसंख्यक समुदाय के नेता नाराज हो गए हैं। हालांकि किसी ने भी सार्वजनिक तौर पर अपना रोष प्रकट नहीं किया, लेकिन राज्य में लगातार सांप्रदायिकता भड़क उठी है। 2017 बासिरहाट दंगों के बाद, ममता ने कट्टरपंथियों (अल्पसंख्यक समुदाय) को साफ शब्दों में चेतावनी दी थी कि वो उनके मौन को कमजोरी समझने की गलती न करें। कट्टरपंथियों ने इसी का फायदा उठाया। बासिरहाट और उत्तर 24 परगनाओं की सीमाओं से सटे इलाकों में बड़े पैमाने पर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण देखा जा रहा था और भाजपा ने इसका पूरा फायदा उठाया। इसी दबाव में, टीएमसी नेता और बासिरहाट से पूर्व सांसद हाजी नूरुल को अपनी सीट छोड़कर मुर्शिदाबाद जाने के लिए कहा गया। नूरुल पर 2010 के दिगंगा दंगों को उकसाने का आरोप लगा था। नूरुल चुनाव हार गए। इसके बाद 2016 में उन्हें नॉर्थ 24 परगना के हरला से विधानसभा चुनाव लड़ाया गया, जहां उन्होंने जीत दर्ज की। ममता अपनी छवि जनता का मुख्यमंत्री होने की बना रही थी ताकि वो भाजपा को उसके अपने ही खेल में मात दे सके। पश्चिम बंगाल एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है और यहां कि जनता राजनीतिक रूप से बहुत सजग है। वो अपनी राजनीतिक समझ के आधार पर वोट डालते हैं न कि धर्म के आधार पर। ऐसे में हिन्दू वोटों का पूरी तरह से ध्रुवीकरण असंभव है। इस बात को खुद ममता बनर्जी ने भी महसूस किया। यही कारण है कि धर्म के आधार पर विभाजन से बचने के लिए उन्होंने हिंदुत्व के झंडे को पूरी तरह से आत्मसात करने के बजाए आंशिक रूप से थामा। जैसे ही ममता बनर्जी को लगा कि किसी सभा में लोगों को उनका झुकाव अल्पसंख्यकों के प्रति दिख रहा है, तभी वो संस्कृत के श्लोक और गायत्री मंत्र का हवाला देना शुरु कर देती हैं। साथ ही ये भी बताती हैं कि उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मुस्लिमों द्वारा ये बदलाव बर्दाश्त नहीं किया गया। बंगाल में 34 साल के वामपंथी शासन को खत्म करने के लिए, तृणमूल के पक्ष में मुस्लिम वोटों का सिर्फ 7 प्रतिशत वोट गिरा, और सरकार बदल गई और तृणमूल की सरकार बदलने में ज्यादा टाइम नहीं लगेगा इस बात का खतरा ममता बनर्जी के सिर पर है। उन्हें पता है कि अगर मुस्लिम समुदाय की मांग नहीं मानी गई तो खतरा हो सकता है। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय को सबसे बड़ा झटका ममता की इस घोषणा से लगा कि उनकी पार्टी इस साल राम नवमी और हनुमान जयंती मनायेगी। पिछले साल भाजपा ने राम नवमी उत्सव मनाया था। जिसका फायदा उन्हें गैर-बंगाली मतदाताओं के बीच मिला। जब तक टीएमसी इस खेल में आई, तब तक पूरा खेल ही खत्म हो चुका था। राजनीति का खेल ममता बनर्जी ने जिस राजनीति के लिए अल्पसंख्यकों को बढ़ावा दिया अब वे उसी राजनीति के चक्कर में उन्हें गच्चा देने की तैयारी कर रहे हैं। वो गांव के परिषद चुनावों में अपने 34 सहयोगियों को टिकट मिलने का इंतजार कर रहे थे। लेकिन सुप्रीमो का ध्यान आकर्षित करने में वो असफल रहे। अब उनके पास एकमात्र रास्ता कठोर कदम उठाने का ही बचा था। इसलिए उन्होंने पार्टी को ये याद दिलाना जरूरी समझा कि वाम मोर्चे के विरूद्ध लड़ाई में एकमात्र वही लोकसभा सांसद पार्टी के साथ खड़े थे। सिद्दीकुल्ला के साथ बातचीत और उन्हें मनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन उनके प्रत्याशियों को टिकट नहीं दिया गया। अब पंचायत चुनावों तक उन्हें इंतजार करना होगा। -विकास दुबे
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