26-Apr-2018 12:02 PM
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सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट या कोई अन्य कोर्ट वे जनहित के मुद्दों पर जो भी फैसले देते हैं उनके अनुपालन में सरकारों द्वारा लगातार कोताही बरती जा रही है। चाहे लोकपाल की नियुक्ति का मामला हो या फिर यातायात नियमों की अवहेलना, अवैध खनन, बस्ते का बोझ, नरवाई जलाने का मामला, तंबाकू गुटका पर बैन, कावेरी विवाद, आरक्षण या फिर कानूनों के गलत इस्तेमाल को देखते हुए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) एक्ट के प्रावधानों में बदलाव का मामला। सुप्रीम कोर्ट ने इनसे संबंधित जितने भी निर्देश दिए हैं, सरकारों ने उनके पालन में कोताही बरती है। इससे लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगा है।
दो अप्रैल को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति एक्ट के प्रावधानों में बदलाव के बाद देश में जो मंजर देखने को मिला वह खौफनाक था। देश में उन्माद की लहर देखी गई। आखिर क्या वजह है कि अदालतों के आदेशों-निर्देशों और निर्णयों के खिलाफ आंदोलन होने लगे हैं। दरअसल यह हमारी सरकारों की शह पर हो रहा है। सरकारें ही जाति, धर्म, क्षेत्र को हवा देती है। जिससे लोग अदालतों के निर्णय को भी उसी नजरिए से देखते हैं।
एसीसी-एसटी एक्ट संशोधन को ही ले लें। एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के संशोधन मामले में कुछ राज्यों ने अमल करना शुरु कर दिया था जिसमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की सरकार ने राज्य पुलिस को आधिकारिक तौर पर निर्देश का पालन करने के आदेश जारी कर दिए थे। हालांकि बाद में तीनों सरकारों ने आदेश को वापस लेते हुए निलंबित कर दिया है। आपको बता दें कि एससी-एसटी एक्ट में कुछ संशोधन करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश भर में दलित संगठनों ने प्रदर्शन कर विरोध दर्ज कराया था। हालांकि मोदी सरकार ने कहा था कि वे दलितों के लिए काम रहे हैं। लेकिन भाजपा शासित राज्यों ने पीएम मोदी के निर्देशों के उलट सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दे दिए हैं। इन तीनों राज्यों के अलावा हिमाचल प्रदेश ने भी इस मामले में एक आदेश जारी किया है। हालांकि ये आदेश औपचारिक आदेश नहीं है। हिमाचल प्रदेश की सरकार बहुत जल्द ही इस मामले में आधिकारिक आदेश जारी करेगी। एसीसी-एसटी एक्ट संशोधन को लागू करने के मामले से पीछे हटते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा है कि हम हमेशा एससी-एसटी के मुद्दे पर संवेदनशील हैं, जैसा की केंद्र सरकार दलितों के प्रति संवेदनशील है। उन्होंने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार पुनर्विचार याचिका दायर करेगी। जब तक इस मामले की पूरी सुनवाई नहीं हो जाती तब तक राज्य पुलिस को आधिकारिक तौर पर दिए गए ऑर्डर को निलंबित किया जाता है। कुछ ऐसा ही हाल मप्र सरकार का भी है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को न मानने का यह पहला मौका नहीं है। राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के कई निर्देशों की केवल खानापूर्ति की है। सुप्रीम कोर्ट ही नहीं बल्कि देश की अन्य अदालतों के निर्णय भी सरकारों और उनके अफसरों द्वारा दरकिनार किए जाते रहे हैं। मप्र के अफसरों की नाफरमानी से आम जनता ही नहीं बल्कि सरकार और कोर्ट भी परेशान हैं। प्रदेश की नौकरशाही के कारण सरकार को पिछले एक दशक में अरबों रूपए की चपत लगी है, वहीं हाई कोर्ट में किरकिरी भी हुई है। आदेश, निर्देश का परिपालन समय पर न होने से हाईकोर्ट जबलपुर सहित इंदौर और ग्वालियर खंडपीठ की बेंच नाराजगी जता चुकी हैं। उसके बाद भी नौकरशाह लगातार कोर्ट के आदेशों की अवमानना कर रहे हैं।
आलम यह है कि कोर्ट में सरकारी केसों की संख्या देखकर लगता है कि प्रदेश में सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। यही नहीं, उसके खिलाफ विभिन्न अदालतों में एक सैकड़ा से अधिक अवमानना के मामले चल रहे हैं। विधि मंत्रालय के एक दस्तावेज के आंकड़े में यह जानकारी सामने आई है। सरकार के खिलाफ लंबित मामले नौकरियों और निजी कंपनियों से संबंधित हैं। इसके अलावा सरकारी विभागों व सरकारी उपक्रमों के बीच विवाद से जुड़े मुकदमे हैं। हालांकि दस्तावेज में अवमानना मामलों की वजह नहीं बताई गई है। आमतौर पर अवमानना के अधिकांश मामले अदालतों के आदेशों का पालन और समय पर शपथपत्र दाखिल नहीं करने तथा कोर्ट में पेश न होने पर दाखिल किए जाते हैं।
एनवीडीए, लोक निर्माण विभाग, पीएचई में वर्क चार्ज पर काम करने वाले कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों जैसी सुविधा देने के आदेश सुप्रीम कोर्ट दे चुकी है। हाई कोर्ट से हारते-हारते सरकार शीर्ष अदालत तक लड़कर हार चुकी है। इसके बाद भी मध्यप्रदेश सरकार हाई कोर्ट में सुविधाएं नहीं देने के लिए अपील करती है। फिर सुप्रीम कोर्ट तक जाती है। ऐसे उदाहरण होने के बाद भी सरकार का विधि विभाग प्लानिंग नहीं करता है। इंदौर खंडपीठ के अधिवक्ता आनंद अग्रवाल के मुताबिक विभिन्न विभाग के प्रमुख सचिवों तक हाई कोर्ट के आदेश की जानकारी भी नहीं पहुंचती। यही कारण है कि सरकारी कर्मचारियों से जुड़े मामलों में जब अवमानना दायर होती है तो प्रमुख सचिव या डायरेक्टर को तलब किया जाता है तो कार्रवाई होती है। 10वीं, 12वीं या कॉलेज के छात्रों को ट्रांसफर सर्टिफिकेट, परीक्षा में उत्तरपुस्तिका सही नहीं जांचने पर हर्जाना कार्रवाई करने के आदेश हाई कोर्ट देती है। स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा विभाग की गलती भी हाई कोर्ट में साबित हो चुकी है। कोर्ट का आदेश पहली बार में मानने के बजाय जबरन डिविजन बेंच में अपील की जाती है। अंतत: वहां से भी अधिकांश मामलों में हार ही मिलती है। राज्य शासन के खिलाफ उच्च न्यायालयों में इंदौर और उज्जैन संभाग के ही करीब 23 हजार मामले चल रहे हैं। इनमें जमीन, मुआवजा, कर्मचारियों के सर्विस मेटर आदि हैं। अदालतों द्वारा इन केसों में जो भी आदेश-निर्देश और निर्णय दिए जाते हैं उसका कम ही परिपालन किया जाता है।
3700 से ज्यादा आदेश दरकिनार
मध्यप्रदेश सरकार ने पिछले छह साल में जबलपुर हाई कोर्ट सहित इंदौर, ग्वालियर खंडपीठ द्वारा जारी किए गए करीब 3700 से ज्यादा आदेश नहीं माने हैं। सरकारी विभागों के प्रमुख आरोप-प्रत्यारोप से बचने के लिए छोटे-छोटे मामलों में भी फैसले के खिलाफ अपील दायर कर देते हैं। हाई कोर्ट खुद भी कई बार फटकार लगा चुकी है कि छोटे-छोटे मामलों में आदेश नहीं मानना, अवमानना दायर होने पर ही कार्रवाई करना सरकार का शगल बन गया है। 2010 से लेकर 31 मई 2016 तक के उन आदेशों की पड़ताल की, जिनमें कोर्ट कार्रवाई करने के आदेश दे चुकी है, लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया। ऐसे करीब 3700 से ज्यादा केस सामने आए। इनमें से 50 प्रतिशत मामले तो सरकारी कर्मचारियों से ही जुड़े हैं। क्रमोन्नति, पदोन्नति, वेतनमान, विभागीय जांच, ट्रांसफर के मामले प्रमुख हैं। इसके बाद सिविल नेचर व अन्य श्रेणी के प्रकरण आते हैं। हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस आरडी शुक्ला कहते हैं कि सरकार चाहे तो कई केस कोर्ट जाएं ही नहीं। शासकीय सेवा आचरण संहिता नियमों में स्पष्ट है, जिसके अनुसार अफसरों को फैसला लेना चाहिए।
प्रदेश का हर 5वां कर्मचारी न्यायालय की शरण में
दिग्विजय सरकार के मप्र से सफाया होने के बाद भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों में न्याय की उम्मीद जागी कि अब समय से न्याय मिलेगा, लेकिन ऐसा न हो सका बल्कि प्रदेश सरकार में शीर्ष पर बैठे अधिकारियों का बोलबाला और बढ़ता चला गया। कर्मचारियों और अधिकारियों को जब न्याय नहीं मिला तो न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और न्यायालय से न्याय मिलने के बाद भी अधिकारियों ने आदेश का पालन नहीं किया। इसके बाद कर्मचारी सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए और सुप्रीम कोर्ट के आदेश मिले, लेकिन इसके बाद भी अफसरों की लालफीताशाही ने अडंगे डाल दिए। इसके बाद कई प्रकरण अवमानना के लगाए गए हैं जो कि आज भी विचाराधीन हैं। आलम यह है कि मप्र का हर 5 वां कर्मचारी न्यायालय की शरण में है और मप्र सरकार को प्रकरणों की पैरवी करने के लिए प्रत्येक वर्ष 12 करोड़ रूपए खर्च करने पड़ रहे हैं। बावजूद इसके सरकार को प्रकरणों में हार का सामना करना पड़ रहा है। दिनों से महीनों समय बीतता गया आज न्यायालय में प्रकरणों की संख्या 10 हजार का आंकड़ा पार कर गई है। इनमें सैकड़ों मामले न्यायालय की अवमानना के भी हैं।
- सिद्धार्थ पाण्डे