नरवाई जलाना आत्मघाती
17-Apr-2018 07:36 AM 1234831
किसानों द्वारा गेहूं काटने के बाद बचे हुए फसल अवशेष (नरवाई) जलाना खेती के लिए आत्मघाती कदम सिद्ध हो रहा है। नरवाई जलाने से अन्य खेतों, पशु बाडे, खलिहान आदि में अग्नि दुर्घटनाएं बढ़ गई हैं। मिट्टी की उर्वरता पर असर पड़ता है। धुएं से उत्पन्न कार्बनडाई ऑक्साईड से वातावरण का तापमान बढ़ता है और प्रदूषण से भी वृद्धि होती है, जिससे पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ता है। खेती की उर्वरा परत लगभग 6 इंच की ऊपरी सतह पर ही होती है इसमें तरह-तरह के खेती को लाभदायक मित्र जीवाणु उपस्थित रहते हैं। नरवाई जलाने से यह नष्ट हो जाते हैं, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति को नुकसान होता है। नरवाई जलाने की अपेक्षा अवशेषों और डंठलों को एकत्र कर जैविक खाद जैसे भू-नाडेप, वर्मी कम्पोस्ट आदि बनाने में उपयोग किया जाए तो वे बहुत जल्दी सडकर पोषक तत्वों से भरपूर कृषक स्वयं का जैविक खाद बना सकते हैं। खेत में कल्टीवेटर, रोटावेटर या डिस्कहेरो आदि की सहायता से फसल अवशेषों को भूमि में मिलाने से आने वाली फसलों में जैवांश खाद्य की बचत की जा सकती है। सामान्य हार्वेस्टर से गेहूं कटवाने के स्थान पर स्ट्रारीपर एवं हार्वेस्टर्स का प्रयोग करें तो पशुओं के लिए भूसा और खेत के लिए बहुमूल्य पोषक तत्वों की उपलब्धता बढऩे के साथ मिट्टी की संरचना को बिगडऩे से बचाया जा सकता है। प्रदेश के अनेक स्थानों से खेतों में आग लगने की घटनाओं की मुख्य वजह नरवाई जलाने के रूप में सामने आ रही है। इन घटनाओं से लाखों रूपए का गेहूं जलकर खाक हो गया है। नरवाई में आग लगाने से कई बार आग एक खेत से दूसरे खेत और फिर आसपास के खेतों को अपनी चपेट में ले लेती है। कई बार खेत-खलिहान से होते हुए आग की लपटें लोगों के घरों तक भी पहुंच जाती हैं और बड़े हादसे का सबब बन जाती हैं। साथ ही खेतों की उर्वरा के लिए उपयोगी मित्र कीट भी जलकर मर जाते हैं। राज्य सरकार व कृषि विभाग के अधिकारियों की तमाम समझाइशों के बाद भी किसान इसे नजरअंदाज कर बड़ी नादानी कर रहे हैं। फलत: प्रकृति, पर्यावरण और जान-माल की क्षति के रूप में समाज को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। किसानों की इस गलत आदत की वजह से वायुमंडल में धुंआ फैल जाता है और इससे प्रकृति चक्र में बदलाव के कारण देश और प्रदेश की विकास दर भी बाधित होती है। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक फसलों के गिरते उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे के पीछे नरवाई का जलाना एक मुख्य वजह है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचने के कारण नरवाई को जलाना प्रतिबंधित है। नरवाई जलाने पर दो एकड़ से कम कृषि भूमि वाले किसान को 2500 रूपये, दो एकड़ से ज्यादा व पांच एकड़ से कम कृषि भूमि वाले को पांच हजार और पांच एकड़ से ज्यादा कृषि भूमि वाले को 15 हजार रूपए तक का जुर्माना करने का प्रावधान है। यह जुर्माना पर्यावरण क्षतिपूर्ति के रूप में है। यह जानते हुए भी किसान नरवाई जला रहे हैं। नरवाई जलाने की वजह किसान को मालूम रहता है कि वह नरवाई जलाकर वातावरण को प्रदूषित कर रहा है, फिर भी वह अपनी निजी सुविधा के लिए इसको नहीं छोड़ पा रहा है। अधिकांश किसान फसल के अवशेषों को नहीं जलाते और वह जुताई कर इन्हें खेत में ही मिलाना पसंद करते हैं। अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि 95 फीसदी किसान नरवाई को जलाते हैं जबकि मात्र 5 प्रतिशत किसान ही फसलों के अवशेष भूसे को जलाकर इसका प्रबंधन करते हैं। नरवाई जलाने की सोच यह रहती है कि इससे अगली फसल की जुताई व बुआई में उन्हें कोई अड़चन न आये। उनकी यही सोच गलत है इससे जहां भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती है वहीं पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। भूसा जलाकर उसका प्रबंधन करना सबसे सस्ता उपाय है। हालांकि खेत में भूसा रहने की स्थिति में जुताई कर उसे मिट्टी में मिलाना एक कठिनाई भरा महंगा कार्य है। खेतों में नरवाई जलाने के पीछे एक और बड़ी वजह यह है कि प्रदेश का किसान खरीफ की प्रमुख फसल की बुआई प्रथम वर्षा के तुरंत बाद ही करना चाहता है। ताकि उसे सोयाबीन का उत्पादन अच्छा मिले। इसके लिए वह गर्मी में ही अपने खेत तैयार करना चाहता है। खेत में गेहूं के अधिक अवशेष होने की स्थिति में यह संभव नहीं हो पाता। -नवीन रघुवंशी
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