विदेशी किराना पर बहस का दिखावा
30-Nov-2012 06:30 PM 1234931

विदेशी कंपनियां भारत में किराना बेचें अथवा नहीं इस विषय पर अब संसद में बहस की जाएगी। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच तलवारें तनी हुई हैं,

लेकिन सच्चाई यह भी है कि विपक्ष का भी एक हिस्सा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर सरकार की तरह ही राय रखता है। तो क्या विरोध के लिए ही केवल विरोध किया जा रहा है? कारण चाहे जो हो लेकिन आम आदमी को इस बात से राहत है कि संसद में हंगामा कर समय बर्बाद करने वाले सांसद कम से कम अब सदन में शांतिपूर्वक बैठकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर चर्चा कर सकेंगे और इसके बाद नियम 184 के तहत वोटिंग की जाएगी। नियम 184 के तहत वोटिंग में सरकार को कोई खतरा नहीं होता है क्योंकि वोटिंग में पराजित होने के बाद भी सरकार को अल्पमत में नहीं माना जाता, लेकिन इस नियम में चर्चा के बाद यदि सरकार पराजित होती है तो यह कहा जाता है कि सरकार की लोकप्रियता समाप्त हो चुकी है और उसके फैसलों के विरोध में सांसदों की संख्या अधिक है। सरकार की किरकिरी होती है, लेकिन किरकिरी से डरने वाली सरकार यह है नहीं। अन्यथा किरकिरी होने की आशंका में पहले ही एफडीआई को हरी झंडी दिखाने से बचा जा सकता था। दरअसल सरकार एफडीआई को लेकर सभी दलों को बेनकाब करना चाहती है। इसलिए बहस से ज्यादा उपयुक्त अवसर और कोई है भी नहीं। बहस होने से यह पानी की तरह साफ हो जाएगा कि खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरोध में खड़े हुए दलों की रणनीति क्या है और उनका सिद्धांत क्या हंै जिसके आधार पर वे खुदरा में प्रत्यक्ष विदेश निवेश का विरोध कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ सदैव ही रही है। पार्टी ने अपने कई चुनावी अभियानों में सरकार के इस कदम को आत्मघाती बताते हुए आम जनता के खिलाफ बताया है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि स्वदेशी का दंभ भरने वाली भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर बड़ी उदार नीति बनी हुई थी और यदि वाजपेयी सरकार अगला चुनाव जीत जाती तो संभवत: प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और आर्थिक सुधारों पर कई बड़े फैसले देश को देखने को मिलते। फिर भारतीय जनता पार्टी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध क्यों कर रही है। क्या यह चुनावी रणनीति है या फिर आने वाले चुनाव को देखते हुए भाजपा हवा बनाने के लिए प्रयासरत है। यदि भाजपा चुनावी रणनीति पर काम कर रही है तो वर्ष 2014 के चुनाव के समय प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आ सकता है, लेकिन दुविधा इसके बाद भी कम नहीं होगी। यदि चुनाव बाद भारतीय जनता पार्टी या एनडीए की सरकार बनती है तो उनके समक्ष भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रश्न यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा रहेगा। यही कारण है कि सरकार ने पहले तो आनाकानी की, लेकिन जब बाद में देखा कि इस मुद्दे पर बहस से कोई बड़ा नुकसान नहीं होने वाला है तो उसने बहस की अनुमति दे दी। लोकसभा के नेता शिंदे का कहना है कि सरकार एफडीआई पर बिना मतदान कराए चर्चा के लिए तैयार है क्योंकि हम गतिरोध खत्म करना चाहते हैं। लेकिन विपक्ष शिंदे की इस राय से सहमत नहीं था। विपक्ष ने स्पष्ट कहा था कि वह मतदान चाहता है। मतदान चाहने का अर्थ है सरकार को दबाव में लाना, लेकिन मतदान होने की स्थिति में भी सरकार की स्थिरता पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा और न ही इससे खुदरा में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विषय में कोई स्पष्ट राय बन सकेगी क्योंकि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सहित कई दलों ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है यह दल केवल जुबानी वक्तव्य दे रहे हैं। जो कि कमोवेश अन्य दलों के नेताओं के द्वारा अतीत में दिए गए वक्तव्यों के इर्द-गिर्द ही हैं, किसी भी दल ने कोई स्पष्ट नीति अभी तक प्रस्तुत नहीं की है। इससे प्रतीत होता है कि विपक्ष के पास इस मुद्दे पर कोई असरदार रणनीति नहीं है, सिवाय इसके विपक्ष कर भी क्या सकता है? भ्रष्टाचार का मुद्दा अब केंद्र में नहीं है। 2जी को लेकर जो हल्ला कभी विपक्ष ने मचाया था उस हल्ले की हवा भी अब निकल चुकी है। क्योंकि विपक्ष के ज्यादातर आरोप या तो गलत साबित हुए हैं या फिर उन पर भ्रम की स्थिति बन गई है। खासकर कैग की रिपोर्ट को लेकर जो कशमकश पिछले दिनों दिखाई दी थी अब उसका पटाक्षेप हाल में हुई 2जी स्पैक्ट्रम की नीलामी के बाद होता दिखाई दे रहा है। जहां तक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों की बात है तो वे अब सरकार के केंद्र में नहीं है। क्योंकि भ्रष्टाचार को लेकर भारतीय जनता पार्टी के नेता भी सवालों के घेरे में तो आ ही गए। इसलिए 4 दिसंबर तक चलने वाली बहस के बाद कोई बड़ा बदलाव देखने में आएगा इस बात में भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। एक प्रमुख घटनाक्रम तृणमूल कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव को खारिज किया जाना भी है। ममता बनर्जी अविश्वास प्रस्ताव पर विपक्ष की राय लेने में असमर्थ रहीं। उन्होंने सरकार के समक्ष कोई रचनात्मक विरोध प्रकट नहीं किया, लेकिन एफडीआई पर चर्चा को ममता बनर्जी अपनी जीत निरुपित कर रही है। क्योंकि इसी मुद्दे पर उन्होंने सरकार से समर्थन वापस लेते हुए अपने मंत्रियों को वापस बुलाया था, इससे पहले भी वर्ष 2011 में 24 नवम्बर को केंद्रीय केबिनेट द्वारा रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डीआई) की मल्टी ब्राण्ड में 51 प्रतिशत तथा सिंगल ब्रांड में 100 प्रतिशत की मंजूरी दी गई थी किंतु ममता के विरोध के कारण 29 नवम्बर को सरकार को इसके क्रियान्वयन का निर्णय स्थगित करना पड़ा। 14 सितम्बर, 2012 को जब सरकार ने रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के संबंध में फैसला लिया तो उसे मालूम था कि 24 नवम्बर 2011 से 14 सितम्बर 2012 के बीच सहयोगी एवं विरोधी दलों के दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया है तथा इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सरकार ने यह फैसला बहुत सोच विचार के बाद लिया होगा। रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डीआई) का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की मानसिकता को समझना जरूरी है। वामपंथी दल अपने सैध्दांतिक दर्शन के प्रति प्रतिबध्द होने के कारण सरकार के बाजारोन्मुखी नए आर्थिक सुधारों का कट्टर विरोध करते रहे है। उनका सरकार के इस फैसले का विरोध  स्वाभाविक है। इस मुद्दे पर भाजपा के विरोध का औचित्य समझ के परे है। भाजपा हमेशा से बाजारोन्मुखी अर्थ व्यवस्था की पक्षधर तथा नए आर्थिक सुधारों की वकालत करती रही है। क्या भाजपा के विरोध का कारण केवल यह है कि वह इस मुद्दे पर लोगों की भावनाओं को सरकार के खिलाफ भड़काकर सत्ता की कुर्सी पर तत्काल काबिज होना चाहती है। लगता है कि इसका कारण यह भी है कि भारत के रिटेल व्यापारियों के अलावा अनाज एवं अन्य वस्तुओं की थोक मंडियों के साहूकारों का बहुमत भाजपा का वोटबैंक है। भाजपा के विरोध के ये प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं। ममता की तृणमूल कांग्रेस तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के विरोध का प्रमुख कारण यह नजर आता है कि उनका आकलन है कि लोक सभा के लिए तत्काल चुनाव होने पर उनकी पार्टी को वर्तमान की अपेक्षा अधिक सीटें मिल जायेंगी।
वर्तमान में भारतीय अर्थ व्यवस्था काफी दबाब में है। औद्योगिक विकास की दर ठहर सी गई है। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियाँ रेटिंग घटा रहीं है। सरकार द्वारा यह फैसला लेने के पहले विदेशी निवेशकों एवं वित्तीय संस्थानों में यह धारणा बन गई थी कि वर्तमान में सरकार लाचार है तथा निर्णय लेने में असमर्थ है। आर्थिक सुधारों का फैसला करना अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उसी प्रकार जरूरी लगता है जिस तरह रोगी को ठीक करने के लिए उसे कड़वी दवा देना। किसान की किसी उपज को यदि उपभोक्ता दस रुपए में खरीदता है तो किसान को अपनी उस उपज का केवल दो रुपया ही मिल पाता है। उत्पादक एवं उपभोक्ता के अलावा आठ रुपए कौन चट कर जाता है। रोटी से खेलने वाला एक नहीं, कई होते हैं जिनके कई स्तर हैं। हरेक स्तर पर मुनाफावसूली का धंधा होता है। रिटेल व्यापार में मिलावट करना, घटिया तथा डुप्लीकेट माल देना, कम तौलना आदि शिकायतें आम हैं। हमारी अर्थ व्यवस्था में जैसी दुर्दशा किसान की है वैसी ही स्थिति अन्य कामधंधों पेशों के कामगारों कारीगरों की है। रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में सरकार द्वारा 30 प्रतिशत माल लघु उद्योगों एवं छोटे उत्पादकों से खरीदने की शर्त के कारण उनको प्रोत्साहन मिलेगा। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के इंफ्रास्ट्रकचर में उपयोग होने से हमारे गाँवों की हालत एवं तस्वीर बदलेगी। किसान की उपज खेत से सीधे मल्टी स्टोर में आएगी जिससे अनाज, सब्जी, फल आदि का जितना प्रतिशत भाग खराब हो जाता है, सड़ जाता है; वह खराब होने तथा सडऩे से बच जाएगा। यदि किसी नीति के लागू होने के कारण उत्पादकों को उपज का वाजिब दाम मिले तथा उपभोक्ताओं को कम दाम चुकाना पड़े तो ऐसी नीति के क्रियान्वयन से भी नुकसान होने का तर्क समझ के परे है। भारत में जो इंफ्रास्ट्रकचर निर्मित होगा, उसे विदेशी लोग किस प्रकार भारत के बाहर ले जायेंगे - यह तर्क भी समझ के परे है।
द्यदिल्ली से आरके बिन्नानी

 

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