17-Apr-2018 07:03 AM
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आजादी के इन 70 सालों में जाति के नाम पर देश को विभक्त करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि समतामूलक इस देश में जाति का जहर कैसे घुला। दरअसल, हमारी सनातन संस्कृति की वर्ण व्यवस्था को गुलामी के हजारों सालों के दौरान विदेशी आक्रांताओं ने जातियों के कुचक्र में इस तरह पिरो दिया कि आज यह राजनीति की रोटी सेंकने का सबसे बड़ा चूल्हा बन गया है। हर राजनीतिक दल जाति, धर्म की आड़ में सत्ता का सुख चाहता है। यही कारण है कि आजादी के 70 साल बाद भी अधिकांश लोगों को आरक्षण का न तो लाभ मिल सका और न ही उनका उद्धार हो सका। फिर भी लोग राजनीति के हथकंडे को समझ नहीं पा रहे हैं और इसी का फायदा उठाकर कई राजनीतिक पार्टियां, संगठन, संचार माध्यम, न्यूज पोर्टल, सोशल मीडिया, विदेशी संगठन और कंपनियां जातीय जहर घोल रहे हैं। जाति का यह जहर इस तरह घुल गया है कि कई जातियां अब अपने को हिन्दू धर्म से अलग मानन लगे हैं। जातियों के इस जंजाल पर ये सवाल मौजूं है...
कोई पासी, चमार, ब्राह्मण है
कोई जुल्हा, भिस्ती, पठान है
कोई जैन है, कोई बौद्ध है
कोई हिंदू, कोई मुसलमान है
जातियों और धर्मांे के इस बियाबान में
मैं खोज रहा हूं
कितने ऐसे लोग हैं....
जो केवल इंसान हैं?
वाकई आज हम इन्सान नहीं बल्कि जातियों का जंजाल बनकर रहे गए हैं। जाति क्या है? यह सवाल आपके मन में भी उठ रहा होगा कि इस पर जब इतना कहा जा चुका है, तब पूछने का क्या औचित्य?
दरअसल, यह देश जातियों के जंजाल में इस कदर फंसा हुआ है कि वह अपने पराए का भेद भी नहीं कर पा रहे हैं। बालासाहेब देवरस ने अपने बिहार दौरे में विशेष बात कही थी। उस समय बिहार में मंडल कमीशन को लेकर सामाजिक तनाव, जातीय वैमनस्य आदि चरम पर था। तब कर्पूरी ठाकुर फार्मूले के तहत देवरस ने कहा था कि जो जाति के आधार पर आरक्षण की बात करते हैं वे जातिवाद से ग्रस्त रहते हैं। देश के दक्षिणपंथी चिंतक गोविंदाचार्य कहते हैं कि वोट की राजनीति व जाति संस्था में जाति संस्था पुरानी थी। राजनीतिक लोग न जाति खत्म कर सके न ऊंच-नीच। जाति ने ही राजनीति को निगल लिया। बड़े-बड़े दावे करने वाले नेता कालांतर में खुद जातियों के नेता बन गए। इसका परिणाम वोट के लाभ में समाज को विभाजित किया जाने लगा। इसका असर यह हो रहा है कि देश में देश विरोधी तत्वों द्वारा लगातार जातीय जहर घोला जा रहा है और यहां की आवाम अपने अतीत को जाने बिना उस जहर को पीती जा रही है। इसका परिणाम हो रहा है जातीय संघर्ष। अभी 2 अप्रैल को इस जातीय संघर्ष का सबसे विद्रुप रूप देखने को मिला। जाति के नाम पर संघर्ष करने उतरे लोगों ने यह भी नहीं सोचा कि आखिर वे किसके खिलाफ ऐसा कर रहे हैं। दरअसल, आज से करीब हजार-बारह सौ वर्ष पहले विदेशी आक्रांताओं ने हमारी वर्ण व्यवस्था को जातियों का जो रूप दिया उसी का परिणाम है कि आज हम आपस में लड़ मर रहे हैं। अभी हाल ही में एक रिसर्च में 198 देशों से मिले आंकड़ों के विश्लेषण में यह कलंक हमारे देश के नाम लगा है।
जातिगत आरक्षण सबसे बड़ी भूल
वर्तमान समय में 4 हजार जातियों में यह देश टूटा-बिखरा हुआ है। इसके बावजूद देश में राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए नई जातियों को गढ़ा जा रहा है। 26 जनवरी 1950 को जब हमारा संविधान लागू हुआ था उस समय संविधान निर्माताओं ने देश की गरीब जाति वाले लोगों को समानता का हक दिलाने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था।
इससे पहले 1885 में ही कांग्रेस ने अंग्रेजों के शासनकाल में शिक्षा से लेकर नौकरियों तक में भारतीय लोगों के लिए आरक्षण की मांग करती रही उस समय भारतीय के नाम पर आरक्षण का मतलब सामाजिक तौर पर ऊंची कहीं जाने वाली जातियों के लिए आरक्षण की मांग थी। जाति की जयकार करने वाले कहते हैं कि जातीय लड़ाई के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है और जहां सामाजिक न्याय नहीं है, समता व समानता नहीं है वह भी कोई राष्ट्र है क्या? साधुवाद देना होगा इस देश की महान जनता को जिसने स्वतंत्रता की प्रभात में अपने सभी भाइयों को रोटी बांटकर देने को अपने हिन्दुत्व का सनातन गुण मानकर उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। उसे आरक्षण पर कोई आपत्ति नहीं रही क्योंकि उसने अपने मध्य कालीन इतिहास के स्वतंत्रता सेनानियों की पीढिय़ों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्हें अपने साथ लेकर चलना अपना राष्ट्रीय कत्र्तव्य समझा। अब गलती कहां हुई कि जो यह आरक्षण देश के लिए जी का जंजाल बन गया? गलती वहां हुई जब हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को अंग्रेजों की बनायी जाति व्यवस्था के आधार पर अर्थात जातिगत आधार पर स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने भारत में जिस जातिगत आरक्षण और देश के समाज में विभाजनकारी रेखा खींचने की मूर्खता की थी उसे देश के नेतृत्व को बदलना चाहिए था। इसके लिए हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने उस समय के नेतृत्व को चेताया था कि आरक्षण का आधार जातिगत मत रखो, इसे आर्थिक आधार पर दो, तभी देश का कल्याण होगा। दुर्भाग्यवश उनकी आवाज को अनसुना कर दिया गया। जिससे देश के बहुत से वर्ग और विभिन्न आंचलों के ऐसे लोग जिनके पास आज तक कोई नेता नहीं हुआ है और जिनके मुंह में आवाज होकर भी जो बोलना नहीं जानते, वे आरक्षण की व्यवस्था से वंचित कर दिये गये।
राजनीतिक जातिवाद खतरनाक
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध, जैन, पादरी यहां सदियों से साथ रहते हैं। 122 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10,000 से ज्यादा लोग बोलते हैं। इस देश में जातियों की पहचान और जातीय अस्मिता से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन सबके बीच अटूट सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। रिश्तों का ताना-बाना ऐसा रहा है, जिसे देखकर विदेशी भी चकित होते हैं, गांव की बेटी पूरे गांव की बेटी होती है, उसकी प्रतिष्ठा पूरे गांव की प्रतिष्ठा होती है। माता-बहिन के स्वरूप में हर महिला को मानने के संस्कार हमारे आचार-व्यवहार में रहे हैं। लेकिन राजनीतिक जातिवाद ने एक-दूसरे को दुश्मन बना डाला। राजनीतिक जातिवाद जाति के एकात्मता के ताने-बाने के लिए न केवल नासूर बन गया है, लेकिन यह देश विरोधी माहौल भी बना रहा है। कई राजनेता ऐसे हैं जो राजनीति में आज के भविष्य की तलाश करते हुए सामाजिक ताने-बाने के साथ खिलवाड़ करके वर्ग या जाति के बीच द्वेष पैदा कर रहे हैं। करणी सेना द्वारा पद्मावत फिल्म को लेकर किया गया बवाल हो या 200 साल पुराने युद्ध को लेकर कोरे गांव हिंसा हो यह इस बात का संकेत है कि हम जातिय द्वेश में फंस गए हैं।
समाज में छुआछूत और ऊंच-नीच के लिए हमारे धर्म-संस्कृति में कभी कोई स्थान नहीं रहा। विदेशी हमलावरों ने हमारे सामाजिक ताने में बिखराव की साजिश की। इसके बाद भी द्वेषभाव की ऐसी स्थिति नहीं बनी, जो राजनीतिक जातिवाद के कारण दूषित वातावरण बना है। हमारे ऋषि-मुनि, साधू-संतों यहां तक कि रामकृष्ण जैसे अवतारियों के विचार ग्रंथों में है, उसमें शबरी के जूठे बेर राम द्वारा खाने का वृतांत है, श्रीकृष्ण और गरीब सुदामा के मिलन की कथा है। राम द्वारा वानर जाति की संगठन शक्ति में आसुरी शक्ति को परास्त करने की रामायण है। संतों, महापुरुषों को भी जातियों में बांटकर राजनीति में प्रभावी होने की कोशिश की जाती है। क्या रामायण के रचियता वाल्मिकी किसी एक सम्प्रदाय के ऋषि थे, क्या महर्षि परशुराम का फरसा किसी एक सम्प्रदाय का प्रतीक है।
जातियां एकता में रुकावट नहीं
अगर देखा जाए तो जातियों ने सामाजिक, एकता में कभी रुकावट नहीं डाली। व्यवसाय, कामधंधों के पहचान सूचक शब्द को जाति कहा गया। इच्छा से कर्म अपनाने के पूरे अवसर रहे। विश्वामित्र क्षत्रिय थे, लेकिन कठिन तपस्या से वे ऋषि हो गए। उनके वंशज ब्राह्मण हैं। परम्परा से प्राप्त संस्कार शिक्षा ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में चकित करने वाली प्रगति हुई। अजंता-एलोरा, कोणार्क का सूर्य मंदिर आदि शिल्पकला के जीवित उदाहरण है। यह हमारे शिल्पकारों के श्रेष्ठ और अद्भुत ज्ञान के कौशल हैं। हमलावरों ने हमारे ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों को जलाया, मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, लेकिन ऐसी स्थिति में भी ब्राह्मणों ने इस धरोहर की धर्म-संस्कृति को जीवित रखा। सिख, जाट, मराठा, गुर्जर, राजपूत, भीलों आदि ने वीरता और बलिदान का इतिहास रचा। उसी शौर्य, बलिदान से प्रेरणा लेकर इन सम्प्रदायों के लोग सेना में भर्ती होते हैं। सभी जाति वर्ग के लोग समान संस्कृति की भावभूमि पर खड़े हैं। गंगा-भारत माता और गौमाता के प्रति सभी में अटूट श्रद्धा है। त्योहार, कुंभ सिंहस्थ मेलों और संत समागम में जो जन सैलाब उमड़ता है, वह सामाजिक एकता को सुदृढ़ करता है।
लेकिन देखा यह जा रहा है कि सामाजिक आयोजनों से लेकर धार्मिक आयोजनों तक में राजनीति द्वारा जाति का सहारा लिया जा रहा है। इसको देखते हुए हर जातिवर्ग अपने वर्ग को सशक्त बनाने के लिए राजनीति का संरक्षण प्राप्त करने की कोशिश करता है। यही कोशिश देश में वर्ग संघर्ष पैदा करती है।
कहां है सामाजिक समरसता
देश में सामाजिक समरसता की मसाल जलाने वाले संविधान शिल्पी डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाने के लिए संघर्ष किया। वे ऐसे सपने को लेकर चले, जिसमें समरस समाज हो। सबको बराबरी के समान अवसर मिले, लेकिन उनके नाम पर अम्बेडकरवाद परोसने की कोशिश हुई, जो समग्र समाज के लिए थे, जिनके संविधान से राज्य व्यवस्था संचालित होती है। क्या वे केवल दलितों के लिए थे। ऐसे लोग बड़ी संख्या में इस देश में आज भी हैं-जिनको इस व्यवस्था का कोई लाभ आज तक नहीं मिल सका है, क्योंकि उनके पास कोई मायावती नहीं है, कोई मुलायम नहीं है, कोई किरोड़ी सिंह बैसला नहीं है।
समय रहते समाज के गंभीर और चिंतनशील लोगों को गंभीर मंथन करना चाहिए। जो लोग विकास की गति में पिछड़े पड़े हैं और दलन, दमन और शोषण का शिकार हैं, उनके लिए अपने मुंह का निवाला तक लोग देने को तैयार हैं-इस देश की जनता की इस महानता को समझकर आरक्षण का जातीय स्वरूप समाप्त कर इसे तत्काल आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए। लोगों को आपत्ति उन लोगों से है जो आरक्षण का लाभ लेकर भी उसे अपना अधिकार अनंतकाल के लिए मान बैठे हैं और माल खाकर गुर्राने की कोशिश कर रहे हैं। इन लोगों ने आरक्षण हथिया लिया है और उसे वास्तविक पात्र व्यक्ति तक नहीं जाने दे रहे हैं।
सबके लिए एक समान विधान
26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू किया गया। संविधान अर्थात सबके लिए एक समान विधान। मगर जिन पर विधान लागू होना है, पहले वो एक समान होने चाहिए तभी न्याय कहा जा सकता है। हमारे देश का संविधान समता को प्रोत्साहित करने की भावना से ओतप्रोत है। विकास-क्रम में पीछे छोड़ दिए गए तबकों के लिए विशेष अवसरों की व्यवस्था इसी का हिस्सा है। लेकिन मौजूदा आधुनिक दौर में भी वर्चस्वशाली सामाजिक वर्गों की सोच नहीं बदल सकी है। बाबा साहेब ने शायद इसी को ध्यान में रखते हुए कहा था- ‘हमारी लड़ाई धन या शक्ति के लिए नहीं है। यह आजादी की लड़ाई है। यह मानवीय व्यक्तित्व का दावा करने की लड़ाई है।’ हमारा संविधान देश के हर नागरिक को किसी भी तरह के भेदभाव के बिना समान मानवीय गरिमा प्रदान करना चाहता है। समता के समाज का निर्माण करना चाहता है, लेकिन इसके लिए सबको और खासतौर पर खुद को उच्च शिक्षित और संभ्रांत कहने वाले लोगों और समुदायों को अपनी सोच बदलनी होगी। पीछे छूट गए तबकों के साथ और बराबर आने की कोशिशों का स्वागत करना होगा। तभी हम एक समानता के मूल्यों से लैस सभ्य और विकासमान समाज की रचना कर पाएंगे।
5वीं अनुसूची का क्षेत्र, बाहरी प्रवेश वर्जित
इस देश में राजनीतिक पार्टियों ने जातियों के नाम पर जो खेल खेला है उसका परिणाम अब यह देखने को मिलने लगा है कि आदिवासी क्षेत्रों में बोर्ड लगाकर लिखा गया है कि यह क्षेत्र 5वीं अनुसूची क्षेत्र है यहां बाहरियों का प्रवेश बंद है। यह बोर्ड जय आदिवासी युवा शक्ति (जयेस) द्वारा लगाए गए हैं। मप्र के मंडला, सिवनी सहित अन्य क्षेत्रों में बोर्ड लगाए गए हैं।
जो इस बात का संकेत हैं कि एक बार फिर से 5वीं अनुसूची की दबे पांव आहट सुनाई देने लगी है। वहीं कई क्षेत्रों में आदिवासी यह कहने लगे हैं कि वे हिंदू नहीं हैं।
चार श्रेणियों में विभक्त समाज
वैदिक धर्म सुदृढ़ वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति शूद्र पैदा होता है और प्रयत्न और विकास से अन्य वर्ण अवस्थाओं में पहुंचता है। हिन्दू धर्म समस्त मानव समाज को चार श्रेणियों में विभक्त करता है। पहला है ब्राह्मण। ब्राह्मण को बुद्धिजीवी माना जाता है, जो अपनी विद्या, ज्ञान और विचार शक्ति द्वारा जनता एवं समाज का नेतृत्व कर उन्हें सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता है। दूसरा वर्ण है क्षत्रिय। क्षत्रिय वह है जो बाहुबल द्वारा समाज में व्यवस्था रखकर उन्हें उच्छृंखल होने से रोकता है। राजा का कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना है। उनका कार्य युद्ध करना तथा प्रजा की रक्षा करना था। क्षत्रियों का स्थान निश्चित रूप से चारों वर्णों में ब्राह्मणों के बाद दूसरा माना जाता था।
तीसरा वर्ण है वैश्य। वैश्य खेती, गौ पालन और व्यापार के द्वारा जो समाज को सुखी और देश को समृद्ध बनाता है, उसे वैश्य कहते हैं। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज के किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं। चौथा वर्ण है शूद्र। वायु पुराण, वेदांतसूत्र और छांदोग्य एवं वेदांतसूत्र के शांकरभाष्य में शुच और द्रु धातुओं से शूद्र शब्द व्युत्पन्न किया गया। वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए। उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा करना शूद्र का कार्य था। इस वर्ण का भी उतना ही महत्व था जितना अन्य तीनों वर्णों का था। यह वर्ण ना हो तो शेष तीनों वर्णों की जीवन व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाए। यह व्यवस्था समाज के संतुलन के लिए थी। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने भी समाज को चार वर्णों में विभाजित करना अनिवार्य बताया है। अन्य धर्मों में भी इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था की गयी थी। प्रत्येक व्यवस्था गुणों और कर्मों के आधार पर थी। डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि जन्म और गुण इन दोनों के घालमेल से ही वर्ण व्यवस्था की चूलें हिल गयी हैं।
इसलिए बढ़ा जातिवाद
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जातिवाद इसलिए चरम पर है क्योंकि लोग जाति के नाम पर वोट देते हैं। इस बात को खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत भी स्वीकार कर चुके हैं। इसी साल 26 जनवरी को आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जातिगत राजनीति इसलिए है क्योंकि लोग जाति के नाम पर वोट देते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस परंपरा को खत्म करने के लिए सामाजिक बदलाव जरूरी है। यह सामाजिक बदलाव राजनीतिक पार्टियां नहीं बल्कि सामाजिक संगठनों को लाना होगा। इसके लिए सभी जातियों के सामाजिक संगठनों को एक मंच पर आकर पहल करनी होगी। इस देश को जातियों से नहीं राजनीतिक जातिवाद से खतरा है। राजनीतिक जातिवाद का ही परिणाम है कि बिहार, यूपी सहित कई राज्यों में जाति के आधार पर न केवल वोट मांगा जाता है बल्कि वोट के लिए कई नई जातियों को भी गढ़ा गया है। इससे किसी भी जाति को आज तक लाभ नहीं हुआ है बल्कि सामाजिक द्ववेश फैला है। इसलिए देश में जाति की राजनीति को खत्म करने के लिए खुद लोगों को पहल करनी होगी। नर्मदा बचाओं आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर कहती है कि भारत में जातियता एकता को बल देती है। इसी जातीय एकता का फायदा उठाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा जाति विशेष की राजनीति का सहारा लिया जाता है यह घातक है।
कहीं 44 से 4 पर न सिमट जाए कांग्रेस
इस देश मेें राजनीति का एक विद्रुप रूप 2 अप्रैल को उस समय देखने को मिला जब देश दलित आंदोलन की आग में जल रहा था। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दलितों की पीड़ाओं के लिए आरएसएस एवं भाजपा को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि वह अपने दलित भाई-बहन को सलाम करते हैं जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार से अपने अधिकारों की रक्षा करते हुए आज सडक़ों पर उतरे हैं। राहुल ने ट्वीट कर कहा, दलितों को भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखना आरएसएस-भाजपा के डीएनए में है। जो इस सोच को चुनौती देता है उसे वे हिंसा से दबाते हैं। राहुल का यह बयान ओछी राजनीति का प्रमाण है क्योंकि आजादी के बाद इस देश में सबसे अधिक कांग्रेस ने ही शासन किया है। अगर कांग्रेस चाहती तो इस देश में कोई गरीब न रहता। राहुल बयान देकर समझ रहे हैं कि मैंने बड़ा तीर मार लिया है लेकिन इस देश की जनता उनसे दुखित है और यह दुख कांग्रेस को लोकसभा की 44 सीटों से 4 पर पहुंचा सकता है।
अब सडक़ों पर उतरेंगे मुस्लिम संगठन
आजादी के बाद शायद पहली बार भारत में ऐसा होने जा रहा है जब ‘खतरे में इस्लाम’ नारे के तहत मुसलमानों द्वारा रैली निकाली जाने की बात कही गई है। पटना के फुलवारी शरीफ स्थित इमारत शरिया और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बॉर्ड ने एक साथ मिलकर ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ रैली का आयोजन किया है। यह रैली 15 जनवरी को पटना के गांधी मैदान में आयोजित की गई है। कई वरिष्ठ मौलानाओं और समुदाय के नेताओं को उम्मीद है कि वे अपनी उन भावनाओं को व्यक्त कर पाएंगे जो कि वे समझते हैं कि बीजेपी सरकार के नेतृत्व में मुसलमानों का घर्म और देश दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं। देश में तीन तलाक विधेयक के खिलाफ पूरे देश में बुरखा पहने महिलाओं की एक श्रृंखला द्वारा प्रदर्शन आयोजित किए जाने के बाद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बॉर्ड ने इमारत शरिया के साथ मिलकर एक बड़ी कार्य योजना तैयार की है। इस योजना के तहत देश की कानून-व्यवस्था के मुद्दे और इसके लिए इस्लाम पर खतरे को लेकर गंभीरता दिखाई गई है। शरिया की स्थापना साल 1921 में हुई थी ताकि बिहार, झारखंड और ओडिशा में शरिया से जुड़े मुद्दों को लेकर मुसलमानों को गाइड किया जा सके।
कौन है दलित?
दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है - दलन किया हुआ। इसके तहत हर वो व्यक्ति आ जाता है जिसका शोषण - उत्पीडऩ हुआ है, फिर चाहे वो किसी जाति का हो। सालों पहले इस शब्द का प्रयोग उन तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से किया जाने लगा जो हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से शोषण, बहिष्कार और दुव्र्यवहार का सामना कर रहे थे। जिसके मद्देनजर सरकार द्वारा निचले तबके की जातियों के हित में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए थे। सालों से कराहती जिंदगी गुजार रहे उन तमाम जातियों के सम्मान और मौलिक अधिकार के संरक्षण के खातिर भारत के संविधान में कई कानून और अधिकार लिखे गए। परंतु आज सालों बीतने के बाद स्थिति बिल्कुल पहले जैसी नहीं है आज ना तो उस वक्त का निचला वर्ग पूर्ण रुप से दलित है ना ही उस वक्त का ऊपरी वर्ग पूर्ण रूप से समृद्धिवान है। आज अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी समाज में सम्मान की जिंदगी गुजार रहा है और ब्राम्हण जाति के व्यक्ति को भी आर्थिक शोषण का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद आज भी हमारे समाज में कुछ लोग सिर्फ उन जातियों को ही दलित मानते है जिन्हें सालों पहले दलित होने का टैग मिल चुका है।
अब परिस्थितियां जरूर बदल चुकी है। मगर हमारी सोच अब भी पुरानी मान्यताओं पर टिकी है। हर परिभाषा को नजर अंदाज करके हमने मान ही लिया है कि दलित का मतलब सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ही है। दरअसल यह राजनीति के पतन का परिणाम है। हमारे देश मे जातिवाद की राजनीति का सिलसिला वर्षों पुराना है। ये सच किसी से छुपा नहीं है कि हमारी राजनीति जातियों को वोट बैंक समझती है। देश की कई बड़ी सियासी दुकानें जाति की गणित पर ही फलफूल रही हंै। सियासत में जाति के आधार पर पार्टियों के अपने पारंपरिक वोटर होते है। चुनाव में होने वाली पोलिंग भी जाति के आधार पर होती है। क्या यह चलन संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन नहीं है?