17-Apr-2018 06:54 AM
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मप्र में सरकार ने कंप्यूटर बाबा, भैय्युजी महाराज, नरमानंदजी, हरिहरानंदजी और पंडित योगेंद्र महंत को राज्य मंत्री बनाया है। संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिए जाने पर मचे बवाल के बाद भाजपाई तरह-तरह से सरकार का बचाव कर रहे हैं। एक नेता कहते हैं कि यह दर्जा तोहफे के तौर पर दिया गया है क्योंकि इन संतों ने नर्मदा किनारे स्वच्छता अभियान में जनजागरूकता फैलाने के लिए अहम योगदान दिया था। अगर सरकार के कदम को हम उचित मान भी लें तो सवाल उठता है कि संतों को राज्य सत्ता की क्या जरूरत है? शायद यही वजह है कि मध्यप्रदेश सरकार से राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त करने वाले संतों के खिलाफ देशभर के संत संगठन नाराज हैं।
धर्म और उसका संदेश समाज के पक्ष में सकारात्मक तरीके से लिया जाए तो उसके अनुयायी बड़ी ताकत को झुका सकते हैं। विश्नोई समुदाय को गुरु जंभेश्वर ने वृक्षों और वन्य जीवों के लिए दया रखने का संदेश दिया था, और इस समाज के जज्बे की बदौलत काला हिरण मामले में सलमान खान को पांच साल की सजा हुई। लेकिन जब धर्म को धता बता धर्मदूत सत्ता का मेवा खाते हैं तो वह सनातन संस्कृति के खिलाफ होता है। संतों को सत्ता का लाभ लेने से पहले अपने समुदाय के अन्य लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिए थी। क्या इन्हें संत कवि कुंभनदास का प्रसंग याद नहीं है? एक अभावग्रस्त फकीर कवि जिसे मुगल बादशाह अकबर ने उन्हें राजधानी फतेहपुर-सीकरी आने का आमंत्रण भेजा। उस शक्तिशाली शासक को एक संत का जवाब था कि... ‘संतन को कहा सीकरी सो काम,
आवत जात पनहियां टूटी,
बिसरि गयो हरि नाम,
जिनको मुख देखे दु:ख उपजत,
तिनको करिबे परी सलाम!’
यानी संतों को राजदरबार-राजधानी से क्या काम है, कुछ नहीं, राजधानी आते-जाते पांव के जूते टूट जाएंगे और भगवान का नाम भूल जाएंगे, जीवन के मूल उद्देश्य-ईश्वर की भक्ति से विमुख हो जाएंगे और जिनका मुंह देखने से दु:ख उपजता है, उन्हें प्रणाम करना पड़ेगा। यही नहीं गायत्री समाज के अगुआ प्रणव पांड्या ने जब राज्यसभा की मनोनीत सदस्यता के प्रस्ताव को ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ वाले भाव से ठुकराया था तो बहुत लोग चौंके थे। अब ऐसे उदाहरण नहीं दिखते कि संत सत्ता का विनम्र भाव से स्वागत तो करे लेकिन अपना काम समाज तक ही रखना चाहे। प्रभु के जरिए जन की सेवा को छोड़ जैसे ही आप सत्ता का मेवा लेते हैं उसी समय आप सत्ता के भ्रष्ट चरित्र के भागीदार भी बन जाते हैं। संतों को पद मिला नहीं कि कथित घोटालों के खिलाफ यात्रा रद्द कर दी गई। नर्मदा से ज्यादा अहम सत्ता के सरोकार हो गए। जो संत परंपरा समाज में सृजन, शिक्षा से लेकर सेवा का माध्यम थी, आज वह सत्ता के पक्ष में जन को आंखें मूंदने के लिए प्रेरित कर रही है।
खुद को कंप्यूटर की याददाश्त से महान बनाने वाले बाबा की ‘मेमोरी’ राज्यमंत्री का दर्जा मिलते ही सुविधाओं के वायरस का शिकार हो गई और उनकी याददाश्त ने घोटाला शब्द को ही ‘स्पैम’ में डाल दिया। इसके पहले भी हमने देखा था कि पूरे विश्व को जीवन जीने की कला सिखाने वाले गुरु श्रीश्री रविशंकर के लिए यमुना की रक्षा से ज्यादा अहम अपनी भव्यता का प्रदर्शन करना था। सत्ता के साथ जुड़ते ही धर्म और संत का सांप्रदायिक रूप भी सामने आ जाता है। राष्ट्रीय हरित पंचाट में उनकी तरफ की दलीलें सुनने योग्य हैं जो उनकी संस्था खुद पर लगे जुर्माने के खिलाफ देती है। ये प्रकरण इस ओर संकेत करते हैं कि धर्म का राजनीतिकरण केवल इसलिए हो रहा है कि साधु-संतों को सत्ता का लाभ मिल सके।
बाबा को अब दिखने लगी हरियाली
कुछ समय पहले तक नर्मदा किनारे किए गए पौधारोपण में भ्रष्टाचार देखने वाले कम्प्यूटर बाबा और महंत योगेन्द्र को अब हरियाली ही हरियाली नजर आ रही है। पिछले कुछ दिनों से नर्मदा सफाई अभियान में जुटे इन संतों का कहना है कि नर्मदा किनारे हरियाली बढ़ रही है। यही नहीं जबलपुर में नर्मदा की दुर्दशा और डेयरियों की गंदगी, नाले जहां मिल रहे हैं, ऐसा कोई स्पॉट नहीं देखा। राज्यमंत्री कम्प्यूटर बाबा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कामकाज का खूब गुणगान किया। कहा नर्मदा संरक्षण के लिए संत समाज ने आयोग बनाने की मांग सीएम से की थी। इसी मांग को उन्होंने पूरा किया। हम (संत) परमार्थ के लिए विरोध कर रहे थे। उन्होंने हमें ही नर्मदा को स्वच्छ बनाने की जवाबदारी दी है। अब इस काम को कम्प्यूटर की गति से किया जाएगा।
- कुमार राजेंद्र