कैराना बताएगा हैसियत!
02-Apr-2018 07:27 AM 1234796
गोरखपुर और फूलपुर का पोस्टमॉर्टम चल ही रहा है कि नया केस भी कतार में है - कैराना। जल्द ही कैराना संसदीय सीट पर भी चुनाव होने हैं। बीजेपी सांसद हुकुम सिंह के निधन से ये सीट खाली हो गया है। स्थानीय हिसाब से देखें तो ये दो राजनीतिक घरानों की जंग है, लेकिन यूपी में योगी बनाम विपक्ष हो चुकी है। असर का अंदाजा लगाया जाये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तक भी पहुंचने वाली है। अभी तक ये भी माना जा रहा है कि फूलपुर और गोरखपुर की तरह ये उपचुनाव भी समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिल कर लड़ेंगी - और आगे का रास्ता इसी सीट के नतीजे पर ही निर्भर भी करता है। बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बीएसपी के लिए इस उपचुनाव की अहमियत बताती है कि ये भी राष्ट्रीय चुनाव जैसा चर्चित होने वाला है। अब तक जो संभावनाएं बन रही हैं, उनके मुताबिक मृगांका सिंह और तबस्सुम बेगम मैदान में आमने सामने हो सकती हैं। अगर ऐसा वास्तव में हुआ तो मुकाबला दिलचस्प होगा। दरअसल, दोनों ही स्थानीय तौर पर दो राजनीतिक घरानों की प्रतिनिधि हैं। मृगांका सिंह, बीजेपी सांसद की बेटी हैं तो तबस्सुम बेगम, समाजवादी पार्टी के सांसद रहे मुनव्वर हसन की पत्नी हैं - और कैराना से समाजवादी पार्टी विधायक नाहिद हसन की मां। तबस्सुम बेगम खुद भी 2009 में बीएसपी की ओर से सांसद रह चुकी हैं। तबस्सुम के पति मुनव्वर हसन 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा पहुंचे थे। हुकुम सिंह की पांच बेटियों में मृगांका ही राजनीति में सक्रिय रहीं, बाकी बेटियां विदेशों में परिवार के साथ हैं। हुकुम सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहीं मृगांका कैराना विधानसभा सीट से 2017 में चुनाव भी लड़ी थीं, लेकिन जबरदस्त बीजेपी लहर के बावजूद वो चुनाव हार गयीं। हराने वाले समाजवादी पार्टी के नाहिद हसन ही रहे। कैराना लोक सभा क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें हैं। इनमें चार बीजेपी के पास और एक कैराना विधानसभा सीट समाजवादी पार्टी के पास है। इलाका मुस्लिम बहुल है, इसलिए ध्रुवीकरण की राजनीतिक के लिए भी काफी उपजाऊ है। संभावना 2017 जैसे नतीजे की भी है - और जरूरी नहीं कि दोबारा भी लोगों का पुराना इरादा बरकरार रहे। तबस्सुम बेगम सांसद रह चुकी हैं और उनसे पहले उनके पति, इसलिए इलाके में जाना पहचाना नाम है। जानने को तो इलाके के लोग मृगांका को भी जानते ही हैं, ऊपर से बीजेपी को हुकुम सिंह को लेकर सहानुभूति मिलने की भी उम्मीद है। हुकुम सिंह सात बार विधायक रहे और पहली बार 2014 में बीजेपी के टिकट पर लोक सभा पहुंचे थे। 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों से पहले हुकुम सिंह ने 2013 मुजफ्फर नगर दंगों के बाद कैराना से 340 हिंदू परिवारों के पलायन का मुद्दा उठाया था, जिस पर खूब बवाल हुआ। कई रिपोर्ट भी आईं और तत्कालीन सरकार की ओर से भी ऐसे दावों को खारिज किया गया। चुनाव के ऐन पहले हुकुम सिंह अपने बयान से पलट गये। सफाई में उनका कहना रहा कि उन्होंने हिंदुओं नहीं बल्कि सिर्फ पलायन का मुद्दा उठाया था। हालांकि, ये कुर्बानी भी काम न आयी और बेटी मृगांका चुनाव हार गयीं। अब तो ये भी साफ हो चुका है कि गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी की हार की वजह अलग-अलग रही है। 2019 की बात तो तब देखी जाएगी, लेकिन उससे पहले तो कैराना की लड़ाई करीब आ रही है। योगी आदित्यनाथ निकाय चुनावों का क्रेडिट जरूर लिये, लेकिन उनकी कामयाबी सिर्फ शहरी इलाकों तक ही सीमित रही। गांवों में समाजवादी पार्टी और बीएसपी का ही बोलबाला रहा। गोरखपुर और फूलपुर के इम्तिहान में रही सही बाकी कसर भी पूरी हो गयी। अब आगे क्या होगा? लाख टके का सवाल यही है कि क्या मोदी-शाह की जोड़ी बीजेपी के लिए वोट मांगने कैराना जाएगी या योगी को एक और अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा? क्या नया गठबंधन कायम रहेगा बड़ा सवाल यही है कि अखिलेश यादव और मायावती कब तक साथ रह पाएंगे? बात तो 2019 तक पक्की बतायी जा रही है, लेकिन उसमें बहुत बड़ा पेंच भी फंसा है। गोरखपुर और फूलपुर सीट पर तो समाजवादी पार्टी ने उम्मीदवार उतारे और बीएसपी ने सपोर्ट कर दिया। अब बीएसपी के उम्मीदवार खड़ा करने और समाजवादी पार्टी के समर्थन की बारी है। गोरखपुर और फूलपुर में बीएसपी कॉडर ने घर-घर जाकर लोगों से समाजवादी पार्टी को वोट देने की अपील की - और वोटिंग के दिन बूथ मैनेजमेंट में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। नतीजा ये हुआ कि बीएसपी का पूरा वोट समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के खाते में ट्रांसफर हुआ। अब ये चुनौती समाजवादी पार्टी के सामने है। अखिलेश-माया गठबंधन आगे तभी बना रह सकेगा जब समाजवादी पार्टी का वोट बीएसपी को ट्रांसफर हो। अगर ऐसा संभव नहीं हो पाया तो मायावती दूसरा रास्ता तलाश सकती हैं - और न तो कोई उन्हें मना सकता है, न रोक सकता है। -मधु आलोक निगम
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