16-Mar-2018 10:12 AM
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गोरखपुर और फूलपुर के चुनावी नतीजों ने योगी सरकार के एक साल पूरा होने के जश्न को फीका कर दिया। 19 मार्च को योगी सरकार का एक साल पूरा हो जाएगा। लेकिन उससे पहले ही दो वीआईपी सीटों पर हार का सामना करना पड़ गया। फूलपुर में सपा प्रत्याशी नागेंद्र पटेल ने बीजेपी के कौशलेंद्र पटेल को 59613 वोटों से हरा दिया है। वहीं गोरखपुर में भी बीजेपी उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ल को सपा के प्रवीण निषाद ने हरा दिया है। ये सीटें सीएम और डिप्टी सीएम की वजह से खाली हुईं थीं। इन्हें भाजपा के गढ़ के रूप में प्रचारित किया गया था। लेकिन भाजपा अपने गढ़ में ही हार गई। गोरखपुर की सीट पर योगी आदित्यनाथ लगातार 5 बार से सांसद थे। लेकिन उनके लखनऊ दरबार में बैठते ही गोरखपुर के मतदाताओं ने अचानक चौंका दिया। फूलपुर में भी दोबारा कमल का फूल नहीं खिल सका। फूलपुर की सीट पहली बार बीजेपी ने जीती थी। केशव प्रसाद मौर्य यहीं से चुनाव जीतकर डिप्टी सीएम बने। इसके बावजूद इलाके की जनता ने डिप्टी सीएम की विरासत को समाजवादी पार्टी को सौंपना बेहतर समझा। सवाल उठेगा कि आखिर चूक कहां हुई?
ये बीजेपी के लिए मंथन की बात है कि साल 2014 में यूपी में बीजेपी ने 73 सीटें जीती थीं तो साल 2017 के विधानसभा चुनाव में 325 सीटें जीतीं। इसके बावजूद सीएम और डिप्टी सीएम के प्रतिनिधित्व वाली सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। बीजेपी के लिए उपचुनाव में मिल रही हार का सिलसिला घंटी बजाने के लिए काफी है क्योंकि इसका दायरा बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश और राजस्थान के बाद अब उत्तर प्रदेश भी उसमें शामिल हो गया।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उप-चुनाव विपक्षी पार्टियों के लिए लोकसभा 2019 चुनावों के पहले एकजुटता दिखाने का अंतिम मौका था। बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनावों के बाद अपना अपराजित रहने का रिकॉर्ड कायम रखा है (दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों को छोड़कर)। हाल ही में संपन्न हुए यूपी निकाय चुनाव और गुजरात विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद गोरखपुर और फूलपुर सीट बचाए रखना बीजेपी के लिए नाक का सवाल बना हुआ था, जिसमें बीजेपी सफल नहीं रही। उधर लगातार बीजेपी की जीत से तितर-बितर हुए विपक्ष के लिए अब यह एक सुनहरा मौका बन गया है कि एकजुट होकर 2019 में बीजेपी को चुनौती दें और यह दोनों सीट छीनकर बीजेपी के अश्वमेध यज्ञ को रोक दें।
बीजेपी कमजोर और बिखरे विपक्ष के चलते ही एक मजबूत विकल्प बनकर उभरी है। ऐसे में विपक्ष के पास लोकसभा चुनावों से पहले यह आखिरी मौका होगा जब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उसकी दोनों सीटें छीनकर जनता को विपक्ष और विकल्प दोनों की वापसी का सन्देश दे सकें। गुजरात चुनावों में भी आंशिक विपक्षी एकता के चलते ही आंशिक सफलता मिलती दिखाई दी है, जिसका फायदा उठाकर विकल्प के तौर पर वापसी करती दिखी है। इस समय राजनीतिक हालात यही इशारा कर रहे हैं कि गैर-बीजेपी दल जितनी जल्दी एक होंगे, बीजेपी को उतनी जल्दी एक मजबूत चुनौती मिलेगी।
हाल ही में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसी विपक्षी एकता का जिक्र किया था। उन्होंने गुजरात में तीन लड़कों- हार्दिक, जिग्नेश और कल्पेश से यूपी के दो लड़कों-राहुल और अखिलेश की तुलना पर इन पांचों के होने का इशारा भी किया था। ऐसे में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी हो जाता है कि गैर-बीजेपी दलों का एक मजबूत मोर्चा बने। हालांकि इससे पहले सिकन्दरा उप चुनाव में विपक्ष यह मौका गवां चुका था। ऐसे में लोकसभा उप-चुनावों के बाद भी विपक्षी पार्टियों सपा, बसपा और कांग्रेस को एक मिलीजुली रणनीति बनानी ही होगी। गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में सपा को बढ़त मिली है, मगर एक प्रश्न सदैव बना रहेगा कि इस उपचुनाव से मिली जीत से सपा या फिर बसपा को फायदा क्या है? साथ ही इस लिहाज से आगे की रणनीति क्या होगी? ऐसा इसलिए क्योंकि यहां जीत के बाद भी जीता हुआ प्रतिनिधि साइड लाइन में रहेगा।
तो रिश्ता पक्का समझें बुआ?
परिणामों ने ये तो साफ कर ही दिया है कि यूपी को साइकल के हैंडल पर हाथ से ज्यादा हाथी का साथ पसंद आ रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव कहा करते थे कि साइकल के हैंडल पर हाथ लग जाने से स्पीड बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं। अब तो ऐसा लग रहा है कि हाथी से हाथ मिलाने के बाद साइकल की रफ्तार ज्यादा तेज हो जा रही है। समाजवादी पार्टी से बीएसपी के गठबंधन को लेकर कहीं लेने के देने न पड़ जायें, इसलिए मायावती को सफाई देने मीडिया के सामने आना पड़ा था। असल में बीएसपी के स्थानीय नेताओं ने उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को सपोर्ट करने की बात कही थी। तभी ये कयास लगाये जाने लगे कि 25 साल बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी के साथ मायावती आ गयीं - और इसे 2019 के विपक्षी गठजोड़ के हिसाब से लिया जाने लगा। फिर मायावती ने साफ किया कि दोनों पार्टियों में सिर्फ उपचुनाव, राज्य सभा चुनाव और विधान परिषद चुनाव को लेकर तात्कालिक समझौता हुआ है - और ये 2019 के लिए कतई नहीं है।
-मधु आलोक निगम