02-Apr-2018 07:26 AM
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कांग्रेस के महाधिवेशन में राहुल गांधी जिस कदर दम भरते नजर आए उससे पार्टी के पदाधिकारियों को उम्मीद की एक नई किरण दिखी है। पार्टी में विगत एक दशक से कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच जो दीवार खड़ी हुई है उसे गिराने की बात कह कर राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं में जोश भर दिया है। हालांकि राहुल गांधी कैसे इस दीवार को तोड़ेंगे इसके लिए क्या तरीका अपनाएंगे। ये नहीं बताया है।
कांग्रेस का महाधिवेशन समाप्त हो गया है। राहुल गांधी के सामने दो काम हैं-कर्नाटक में पार्टी की रणनीति तय करना और 2019 के आम चुनाव से पहले पार्टी के लिए एक मजबूत टीम खड़ी करना। मगर महाधिवेशन में देश की यह सबसे पुरानी पार्टी इस बात को लेकर आत्ममंथन करती नजर नहीं आई कि आखिर क्यों बीते तीन दशक से उसका लगातार पराभव हो रहा है। गौरतलब है कि वर्ष 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस ने 400 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन 2014 के चुनाव तक आते-आते यह आंकड़ा 44 सीटों तक सिमट गया। इस दौरान यह देश के अनेक राज्यों में भी सत्ता से बाहर हो गई। पांच दशक पहले तक इसका देश पर एकछत्र राज्य था, वहीं आज महज दो-तीन प्रदेशों में इसकी सरकार है। फिर भी कांग्रेस के इस महाधिवेशन में इस पर कोई विमर्श होता नजर नहीं आया कि पार्टी का इतनी तेजी से पतन क्यों हो रहा है!
कांग्रेस के इस अधिवेशन में एक बड़ा फर्क मंचीय व्यवस्था को लेकर नजर आया, जहां पर फोकस नेताओं के बजाय वक्ताओं पर था। हालांकि इसमें हुए भाषणों को सुनकर साफ पता चला कि वहां ऐसे नेताओं को बोलने का मौका देने से खास परहेज किया गया, जिनके शब्द नेतृत्व को चुभ सकते थे। सिर्फ ऐसे नेताओं को ही मंच से बोलने का मौका मिला, जो सत्ताधारी पार्टी यानी भाजपा की कारगुजारियों के खिलाफ जमकर हल्ला बोल सकें। इससे एक बार फिर यह बात स्पष्ट हो गई कि पार्टी आलाकमान अभी भी दोतरफा संवाद व्यवस्था के लिए तैयार नहीं है। वह लगातार सियासी नाकामियों के बावजूद उन कड़वी हकीकतों के रूबरू होने को तैयार नहीं, जिनके चलते पार्टी का भौगोलिक व सामाजिक आधार सिमटता जा रहा है।
इस महाधिवेशन में विशेष प्रस्ताव पेश किया गया, जिसमें यह भाव निहित था कि पार्टी कृषि संकट, बेरोजगारी और गरीबों की समस्याएं दूर करने पर खास जोर देगी। हालांकि इस प्रस्ताव ने यह नहीं दर्शाया कि पार्टी अपनी प्रक्रियाओं को कल्याणकारी उपायों के बजाय लोगों को सशक्त करने की दिशा में मोड़ेगी। यहां तक कि कृषि संकट का हवाला देते वक्त भी भूमिहीन श्रमिकों की दुर्दशा का कोई जिक्र नहीं था, जो कि लघु व सीमांत किसानों के बनिस्बत कहीं ज्यादा बदहाली का शिकार हैं। इससे भी यही लगा कि कृषि संकट का मतलब है कर्ज के बोझ से दबे छोटे किसान, और उनकी समस्याओं का हल होगा उनके कर्जों को माफ कर देना। इसमें ऐसे उपायों का कोई जिक्र नहीं था, जो कि उनकी मेहनत को लाभकारी बना सकें, ताकि भविष्य में उन्हें आर्थिक समस्याओं से न जूझना पड़े।
इस प्रस्ताव में शिक्षा के लिए अतिरिक्त आवंटन की बात कही गई और इस खातिर सर्वाधिक कमाई करने वाले एक फीसदी लोगों से 5 फीसदी सेस वसूलने की बात भी कही गई। लेकिन पार्टी ने उन कारणों पर जरूरी विमर्श को नजरअंदाज कर दिया, जिनके चलते गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव के कारण सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का पतन हो रहा है।
कांग्रेस के इस महाधिवेशन ने वर्ष 1975 में चंडीगढ़ में हुए पुराने अधिवेशन की भी याद दिला दी। उस वक्त कांग्रेस ने देवकांत बरुआ की जगह पीवी नरसिंह राव को पार्टी अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर ली थी। यहां तक कि राव मंच से जो अध्यक्षीय भाषण देने वाले थे, उसके पर्चे भी छपकर बंटने को तैयार थे। लेकिन परदे के पीछे चली गतिविधियों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर उनके बेटे संजय ने दबाव डाला कि बरुआ को अध्यक्ष के तौर पर एक और कार्यकाल दिया जाए। आखिरकार ऐसा ही हुआ। यह महाधिवेशन भी नए पार्टी अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी के नाम पर मुहर लगाने के लिए आयोजित किया गया था। उन्होंने अपने समापन भाषण में पार्टी को 2019 में पुन: सत्ता तक पहुंचाने का संकल्प जाहिर किया। हालांकि उन्होंने इस बात पर रोशनी नहीं डाली कि पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए उनके पास क्या योजना है? उन्होंने यह भी नहीं बताया कि पार्टी के एजेंडे में ऐसा क्या बदलाव करेंगे, जिससे यह आज की कठोर हकीकतों और बदलते भारतीय समाज की मांगों व जरूरतों के मुताबिक बन सके?
गौरतलब है कि सत्तर के दशक में कांग्रेस का एजेंडा तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक जरूरतों के मुताबिक तैयार किया गया था। उस वक्त साक्षरता दर 50 फीसदी से भी कम थी। आज 83 फीसदी लोग साक्षर हैं। उनकी मानसिकता भी अब काफी बदल चुकी है। आज गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग भी अपने बच्चों का गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के जरिए सशक्तीकरण चाहते हैं, ताकि वे गरिमामय जीवन जी सकें। आज रोटी की अपेक्षा गरिमामय जिंदगी ज्यादा अहम है। फिर भी कांग्रेस ने अपने विशेष प्रस्ताव में आम भारतीय की सोच में आए इस व्यापक बदलाव पर गौर नहीं किया। इसमें इस बात पर भी गौर नहीं किया गया कि आखिर किस वजह से नरेंद्र मोदी वर्ष 2014 के चुनाव में प्रचंड जनादेश हासिल करने में कामयाब रहे, जबकि तब वह ऐसे राजनेता थे, जिनके बारे में सर्वाधिक भला-बुरा कहा जाता था। हर राजनीतिक इकाई को विरोधियों से सीख लेने के लिए तैयार रहना चाहिए, खासकर ऐसे विरोधियों से जिन्होंने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीत के प्रतिमान गढ़े हों।
यह महाधिवेशन कांग्रेस के लिए मौका था कि वह बेरोजगारी के मोर्चे पर नमो से बेहतर कुछ योजना पेश करती। बेरोजगारी इस वक्त देश में सर्वाधिक ज्वलंत व संवेदनशील मुद्दा है, चूंकि हमारे करोड़ों उच्च शिक्षित युवा इससे प्रभावित हैं। इस ज्वलंत मसले को यूं सतही नजरिए से नहीं संभाला जा सकता कि हम बेरोजगारी पर गौर करेंगे। इस समस्या से निपटने के लिए तो पारंपरिक नजरिए से अलग सर्वथा नई दृष्टि चाहिए और एक युवा नेता होने के नाते राहुल गांधी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इससे निपटने के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता दिखाएं। विकसित देशों में तेजी से बुढ़ाती कामकाजी आबादी के साथ कुशल कर्मियों की भारी कमी एक ऐसी हकीकत है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। भारत में युवाओं का अनुपात अधिक है। वे साक्षर तो हैं, पर किसी खास काम के लायक कौशल उनमें नहीं है। वे किसी भी देश के उत्पादन प्रणालियों में स्वीकार्य हो सकते हैं। किसी भी पूर्वी या अफ्रीकी देश के युवा के मुकाबले भारतीय युवा विदेशों में ज्यादा स्वीकार्य हैं। आर्थिक प्रस्ताव में बेरोजगारी की समस्या को लेकर ऐसा कोई खास समाधान शामिल किया जा सकता था, जो युवाओं को इस कदर उत्साहित करता, जिससे राहुल गांधी को अगली चुनावी जंग में पार्टी को पुन: सत्ता तक पहुंचाने का सपना साकार करने में मदद मिलती। भले इस महाधिवेशन में सिर्फ कांग्रेसियों ने शिरकत की, लेकिन पूरा देश भी इसे देख रहा था। लेकिन इसने अपना विमर्श इस तरह समाप्त किया, जो कुछ खास वर्गों को ही संतुष्ट कर सकता है। इस महाधिवेशन-स्थल में तालियों की गूंज भले ही तेज रही हो, लेकिन इससे बाहर तो ताली बजाने के लिए कोई हाथ नहीं उठे।
राहुल की टीम में विरासत वाले नेता ज्यादा
हालांकि राहुल गांधी ने जो नियुक्तियां की हैं, उसमें ज्यादातर ऐसे हैं जो खानदानी नेता हैं। ऐसे में नए लोगों को जगह कैसे देंगे, ये सवाल सामने है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव असम से कांग्रेस के नेता संतोष मोहन देव की बेटी हैं। इस तरह जितेंद्र सिंह पूर्व रजवाड़ा परिवार से आते हैं। मिलिंद देवड़ा के पिता मुरली देवड़ा यूपीए में कई साल तक मंत्री भी थे। ये नाम सिर्फ बानगी हैं। ऐसे नामों की फेहरिस्त लंबी है। हालांकि राहुल गांधी ने कई बार विरासत की राजनीति के आरोप का जवाब दिया है। राहुल ने कहा है कि विरासत की राजनीति कांग्रेस में ही नहीं हर पार्टी में है। ये जवाब मौजूदा राजनीतिक हालात में सामान्य लग रहा है क्योंकि कोई राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है। खासकर क्षेत्रीय दल, जहां विरासत की राजनीति ही चल रही है। लेकिन अपनी नई टीम में राहुल गांधी को ये दिखाना होगा कि युवा मतलब ब्लू ब्लड नहीं है। बल्कि आम जनमानस आया नेता भी कांग्रेस में बढ़ सकता है। हाल के राज्यसभा चुनाव में राहुल गांधी ने कोशिश की है, जिसमें सामान्य कार्यकर्ता को भी पार्टी का टिकट दिया गया है।
धीरे-धीरे बनेगी नई टीम
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने अपनी टीम में कोई भारी भरकम फेरबदल नहीं किया है। जानकार बताते हैं कि राहुल गांधी को महाधिवेशन का इंतजार था। उससे पहले वो सोनिया गांधी के बनाए निजाम को खत्म नहीं करना चाहते थे। इसलिए अब संगठन में धीरे-धीरे फेरबदल होगा। ये प्रक्रिया सतत चलती रहेगी। अचानक सबको बदलने का फैसला नहीं लिया जाएगा। राहुल गांधी ने अपनी नई टीम बनाने की तैयारी पूरी कर ली है। जिसमें माना जा रहा है कि युवा नेताओं की भरमार होगी। जिस तरह से कर्नाटक और झारखंड के प्रभारी युवा नेताओं को बनाया गया है। वैसे ही हर राज्य का प्रभारी बदलने की तैयारी हो रही है। राहुल गांधी अत्यंत ताकतवर पार्टी के महासचिव के पद की ताकत घटाने जा रहे हैं, जिसमें हर प्रभारी के पास एक राज्य होगा और उसको सहयोग करने के लिए कई सचिव काम करेंगे। जिससे पूरी जवाबदेही प्रभारी की होने वाली है। इससे पहले एक महासचिव कई राज्य का प्रभारी हुआ करता था जिससे वो कई साल तक उस राज्य में नहीं जा पाता था। कांग्रेस के सगंठन में ये दस्तूर है कि पार्टी का अध्यक्ष राज्य के प्रभारी के बिना प्रदेश अध्यक्ष या बड़े नेताओं से नहीं मिलता था। ये परंपरा राहुल गांधी समाप्त करने जा रहे हैं। राहुल गांधी का ऑफिस जिसकी कमान के राजू के पास है। उससे सीधे संपर्क किया जा सकेगा। जिस तरह गुजरात के चुनाव में राहुल गांधी ने प्रयोग किया था। वहां के नेताओं से राहुल गांधी ने अपने दफ्तर से संपर्क में रहने के लिए कहा था। हालांकि ये किताबी बातें कितनी अमल में आएगी ये कहना मुश्किल है।
-इंदु कुमार