03-Jul-2013 07:32 AM
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दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में कई समानताएं हैं। दोनों ने ही अपने-अपने राज्यों में हैट्रिक मारी है, दोनों ही अपने-अपने राज्यों को बढ़-चढ़कर विकसित

बताते हैं और दोनों ही केंद्रीय राजनीति में आने की तैयारी कर रहे हैं। फर्क इतना है कि शीला दीक्षित जहां बतौर सजा केंद्र की राजनीति में फेके जाने की तैयारी में हैं। वहीं नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में करीब-करीब लांच कर दिया है।
शायद इसीलिए शीला दीक्षित ने अब खामोशी तोड़ दी है और वे खुलकर राष्ट्रीय मुद्दों पर राय जाहिर कर रही हैं। राय जाहिर करने के इस खेल में शीला दीक्षित यूपीए सरकार के कार्यक्रमों की प्रशंसा करने में कभी कंजूसी नहीं करतीं। पिछले दिनों उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा कि कांग्रेस जब पहली बार सत्ता में आई तो कांग्रेस को लगा कि लोगों की आवश्यकताओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं को समझना चाहिए। क्योंकि महिला समूहों, व्यापारियों, आरडब्ल्यू-ए के बिना कोई विकास नहीं हो सकता। शीला की मजबूरी यह है कि वह दिल्ली जैसे महानगर में ही पली-बढ़ी और वहीं राजनीति करना जानती हैं, देश की ग्रामीण राजनीति पर उनकी पकड़ न के बराबर है। इसी कारण राष्ट्रीय राजनीति में उन जैसी मॉर्डन राजनीतिज्ञ को लांच करने को लेकर कांग्रेस में मतभेद हंै। पर दिल्ली में पिछले दिनों जो हालात उत्पन्न हुए हैं उनके चलते शीला दीक्षित को अब शायद दिल्ली में बतौर मुख्यमंत्री बनाए रखना महंगा पड़ सकता है। हालांकि शहरी राजनीति में शीला का अभी भी कोई सानी नहीं है। इसी कारण कांग्रेस में शीला को लेकर कोई स्पष्ट राय नहीं बन पा रही है।
पिछले दिनों जब स्थानीय निकाय के चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा तो शीला दीक्षित की कुर्सी खतरे में आ गई थी। उस समय शीला दीक्षित ने दिल्ली नगर निगम को तीन भागों में बांटने का प्रभावशाली कदम उठाया था। पर यह बात दिल्ली के लोगों को हजम नहीं है। स्वयं कांग्रेस के भीतर मतभेद थे। सोनिया गांधी तक शीला दीक्षित की शिकायत की गई, लेकिन सोनिया का समर्थन शीला को हासिल था। कांग्रेस के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष जीपी अग्रवाल भी कहीं न कहीं शीला दीक्षित की राजनीति से इत्तफाक नहीं रखते, लेकिन मजबूरी में उन्हें शीला को समर्थन देना ही पड़ता है। बहरहाल जिस तरह से कांग्रेस में बगियों की संख्या बढ़ रही हैं और आम आदमी पार्टी का कद दिल्ली में निर्णायक स्तर तक बढ़ चुका है। उसके चलते अब कांग्रेस को नवंबर से पहले कोई कठोर फैसला तो करना ही होगा। वैसे भी अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लडऩे की घोषणा करके कांग्रेस को परेशानी में डाल दिया है। आज के हालात में बीजेपी उत्साहित है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जैसा उत्साह है, वैसा दिल्ली में नहीं है। इसका कारण भी साफ है। सचाई यह है कि पिछले तीन बार से बीजेपी शीला दीक्षित के सामने बौनी साबित हुई है। यही वजह है कि इस बार बीजेपी में ज्यादा चौकसी है लेकिन राजनीति में कई बार यह चौकसी भी काम नहीं आती। बीजेपी ने तीन चुनावों में तीन सीएम इन वेटिंग घोषित किए -1998 में सुषमा स्वराज, 2003 में मदन लाल खुराना और 2008 में विजय कुमार मल्होत्रा। इस बार वह चौकसी के मद्देनजर ही कोई सीएम इन वेटिंग घोषित नहीं करना चाहती क्योंकि इस चक्कर में सीएम कोई नहीं बना, केवल इंतजार ही हाथ लगी है। फिर भी, बीजेपी इस चक्रव्यूह से बच नहीं सकती।
राजनीतिक पैंतरेबाजी में विजय गोयल की अपनी पहचान है। इस खूबी को खराबी साबित करते हुए हाईकमान में बैठे कई नेताओं की आंख की किरकिरी बने हुए हैं तो डॉ. हर्षवर्धन अपनी सादगी के कारण हालात के बीच उभरा एक नाम हो सकते हैं। कुल मिलाकर बीजेपी सीएम इन वेटिंग के फेर में उलझ जाएगी। बीजेपी नए दौर में है और शायद पहली बार उस पर साहनी-मल्होत्रा-खुराना की तिकड़ी का कोई असर नहीं है। साहनी जी अब इस दुनिया में नहीं हैं और विजय कुमार मल्होत्रा को भी पता है कि वह अपनी पारी खेल चुके हैं। ऐसे में वह अगले चुनाव में ग्रेटर कैलाश से अपने बेटे अजय मल्होत्रा को टिकट दिलाकर पार्टी से इनाम पा लेंगे। खुद के लिए वह लोकसभा या राज्यसभा का दावा जता सकते हैं। मदन लाल खुराना पिछली बार चूक गए थे लेकिन इस बार अपने बेटे हरीश खुराना को कहीं न कहीं फिट करा सकते हैं। मगर, परिवारवाद की राजनीति का विरोध करने वाली बीजेपी में परिवार के ये नए सदस्य संभावित नेतृत्व के लिए कोई खतरा बनने की स्थिति में नहीं हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वहां सीएम की गद्दी पर संशय बना हुआ है किंतु शीला दीक्षित की मंशा पर ही सब कुछ तय होगा क्योंकि वे सोनिया की विश्वस्त हैं। प्रदेश अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल ने अपने तौर पर ही सभी असेंबली सीटों पर ऑब्जर्वर नियुक्त किए थे लेकिन शीला दीक्षित ने उन्हें हाईकमान से रद्द करा दिया। शीला दीक्षित अब अपने तीसरे कार्यकाल के शेष समय में सरकार की उपलब्धियों को जनता तक पहुचाने का विशेष अभियान चलाएंगी, जैसा उन्होंने पिछली बार किया था लेकिन ऐसे में संगठन के साथ तालमेल जरूरी हो जाता है। इसलिए कांग्रेस की चिंता मिलकर चुनाव लडऩे और जीतने की होगी जो आसान काम नहीं है।
अरुण दीक्षित