मां बनना मजबूरी नहीं!
02-Apr-2018 07:03 AM 1234952
मातृत्व का एहसास औरत के लिए कुदरत से मिला सबसे बड़ा वरदान है। औरत का सृजनकर्ता का रूप ही उसे पुरुषप्रधान समाज में महत्वपूर्ण स्थान देता है। मां वह गरिमामय शब्द है जो औरत को पूर्णता का एहसास दिलाता है व जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती। यह एहसास ऐसा भावनात्मक व खूबसूरत है जो किसी भी स्त्री के लिए शब्दों में व्यक्त करना शायद असंभव है। वह सृजनकर्ता है, इसीलिए अधिकतर बच्चे पिता से भी अधिक मां के करीब होते हैं। जब पहली बार उसके अपने ही शरीर का एक अंश गोद में आकर अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उसे छूता है और जब वह उस फूल से कोमल, जादुई एहसास को अपने सीने से लगाती है, तब वह उसको पैदा करते समय हुए भयंकर दर्द की प्रक्रिया को भूल जाती है। लेकिन भारतीय समाज में मातृत्व धारण न कर पाने के चलते महिला को बांझ, अपशकुनी आदि शब्दों से संबोधित कर उस का तिरस्कार किया जाता है, उस का शुभ कार्यों में सम्मिलित होना वर्जित माना जाता है। पितृसत्तात्मक इस समाज में यदि किसी महिला की पहचान है तो केवल उसकी मातृत्व क्षमता के कारण। हालांकि कुदरत ने महिलाओं को मां बनने की नायाब क्षमता दी है, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि उस पर मातृत्व थोपा जाए जैसा कि अधिकांश महिलाओं के साथ होता है। विवाह होते ही ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ के आशीर्वाद से महिला पर मां बनने के लिए समाज व परिवार का दबाव पडऩे लगता है। विवाह के सालभर होते-होते वह ‘कब खबर सुना रही है’ जैसे प्रश्न चिह्नों के घेरे में घिरने लगती है। इस संदर्भ में उसका व्यक्तिगत निर्णय न होकर परिवार या समाज का निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जैसे कि वह हाड़मांस की बनी न होकर, बच्चे पैदा करने की मशीन है। महिला के शरीर पर समाज का अधिकार जमाना नई बात नहीं है। हमेशा से ही स्त्री की कोख का फैसला उसका पति और उसके घर वाले करते रहे हैं। लडक़ी कब मां बन सकती है और कब नहीं, लडक़ा होना चाहिए या लडक़ी, ये सभी निर्णय समाज स्त्री पर थोपता आया है। वह क्या चाहती है, यह कोई न तो जानना चाहता है और न ही मानना चाहता है, जबकि सबकुछ उसके हाथ में नहीं होता है, फिर भी ऐसा न होने पर उसको प्रताडि़त किया जाता है। यह दबाव उसे शारीरिक रूप से मां तो बना देता है परंतु मानसिक रूप से वह इतनी जल्दी इन जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं हो पाती है। यही कारण है कि कभी-कभी उसका मातृत्व उसके भीतर छिपी प्रतिभा को मार देता है और उसका मन भीतर से उसे कचोटने लगता है। परिवार को उत्तराधिकारी देने की कवायद में उसके अपने कैरियर को लेकर देखे गए सारे सपने कई वर्षों के लिए ममता की धुंध में खो जाते हैं। इसलिए परिवार को अपनी सोच नहीं थोपनी चाहिए। एक पक्ष यह भी कानून ने भी औरत के मां बनने पर उसकी अपनी एकमात्र स्वीकृति या अस्वीकृति को मान्यता प्रदान करने पर अपनी मुहर लगा दी है। मातृत्व नारी का अभिन्न अंश है, लेकिन यही मातृत्व अगर उसके लिए अभिशाप बन जाए तो? वर्ष 2015 में गुजरात में एक 14 साल की बलात्कार पीडि़ता ने बलात्कार से उपजे अनचाहे गर्भ को समाप्त करने के लिए उच्च न्यायालय से अनुमति मांगी थी, लेकिन उसे अनुमति नहीं दी गई। एक और मामले में गुजरात की ही एक सामूहिक बलात्कार पीडि़ता के साथ भी ऐसा हुआ। -ज्योत्सना अनूप यादव
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