03-Jul-2013 07:02 AM
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देश के शेयर बाजार गिर रहे थे, रुपया रसातल में जा रहा था और उधर नीतिश कुमार विश्वास मत जीत रहे थे। दो भिन्न परिस्थितियां लेकिन इनमें एकमात्र समानता यह थी कि दोनों ही
परिस्थितियां कमोबेश कांग्रेस की देन हैं। किंतु दोनों ही परिस्थितियों पर कहीं न कहीं कांग्रेस का नियंत्रण है। नीतिश की बात करें तो नीतिश बिहार में कांग्रेस को मिलने वाले मतों के भरोसे अब केंद्र की सत्ता में आने का ख्वाब देख रहे हैं। बिहार में विश्वासमत वह पहले ही जीत चुके हैं। फिलहाल विधानसभा चुनाव नजदीक नहीं है न ही उनकी पार्टी में कोई महत्वाकांक्षी नेता है जिसके चलते उन्हें आगामी समय में चुनौती मिले। इसी कारण 19 जून को जब नीतिश ने बिहार विधानसभा में विश्वासमत प्रस्तुत किया तो उनके चेहरे पर आत्मविश्वास साफ देखा जा सकता था। उन्हें इत्मीनान था कि वे पराजित नहीं होंगे। कांग्रेस समर्थन दे या न दे, निर्दलीय समर्थन करें या न करें इससे नीतिश को कोई फर्क पडऩे वाला नहीं था क्योंकि भाजपा कभी भी नहीं चाहेगी कि नीतिश की सरकार गिरे। नीतिश की सरकार गिरने में भाजपा का अपना ही अहित है। वह नीतिश की सरकार को पांच वर्ष पूरा करते देखना चाहती है और इस दौरान अपना ग्राउंड मजबूत करने पर तुली हुई है।
देखना यह है कि मोदी की रणनीति बिहार में कामयाब हो पाती है या नहीं। क्योंकि बिहार में एक दूसरे मोदी अर्थात् सुशील मोदी नरेंद्र मोदी का पुरजोर विरोध करते रहे हैं और अब मजबूरी में वे नरेंद्र मोदी के साथ आ जुड़े हैं पर दिल से वे मोदी के पक्ष में हैं या नहीं इसका अंदाजा लगाना कठिन है। यही हाल उन तमाम नेताओं का है जो साझा सरकार में सत्ता सुख भोग रहे थे। लेकिन मोदी के आते ही नीतिश कुमार ने उन्हें बर्खास्त कर दिया और फिलहाल वे पूर्व मंत्री या वर्तमान विधायक की हैसियत में आ गए। इन सबकी मन:स्थिति दयनीय है क्योंकि भाजपा और जनता दल यूनाइटेड की संयुक्त शक्ति के चलते भाजपा बिहार में 91 सीटें जीतने में कामयाब रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 118 सीटें मिली थी। भाजपा पर सवार होकर जनतादल यूनाइटेड ने अपना वोट बैंक बढ़ा लिया अब वह कांगे्रस पर सवार होकर केंद्र की सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का ख्वाब देख रही है।
सूत्र यह बताते हैं कि 2014 के लिए कांग्रेस ने जो प्लान तैयार किया है उसका एक पहलू यह भी है कि कांग्रेस केंद्र में एक कठपुतली सरकार बिठाना चाहती है जिसका नेतृत्व नीतिश, मुलायम या शरद यादव को सौंपा जा सकता है। नीतिश इसलिए भी कांग्रेस की पहली पसंद है क्योंकि वे ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, मायावती जैसे नेताओं की भी पसंद हो सकते हैं। नीतिश तकरीबन 100 सांसदों का समर्थन जुटाने में सक्षम हैं और यूपीए यदि सिमटकर 170 के आसपास रह जाता है तो नीतिश को समर्थन दिया जा सकता है। इसी कारण बिहार विधानसभा में विश्वासमत का जो नाटक देखने को मिला उसमें कांग्रेस ने एक महत्वपूर्ण किरदार की भूमिका निभाई, लेकिन भाजपा की भूमिका को नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं है। दरअसल नीतिश भाजपा से ज्यादा नरेंद्र मोदी पर निशाना साध रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र की एक खासियत यह है कि यहां नरेंद्र मोदी की आलोचना करने से मुसलमानों के वोट मिल जाते हैं। अब नीतिश को एक मौका मिला है तो वे नरेंद्र मोदी की आलोचना करने का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते। बल्कि वे तो आलोचकों में सबसे ऊपर रहने का प्रयास कर रहे हैं ताकि कल को धर्मनिपरेक्ष ताकतों की रहनुमाई का मौका मिले तो नीतिश स्वाभाविक रूप से उसके नेता बन जाएंगे, लेकिन मोदी की आलोचना का एक मकसद यह भी है कि नीतिश एक रास्ता खुला रखना चाहते हैं। वह रास्ता कुछ ऐसा है कि यदि आडवाणी को एक बार फिर केंद्र में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता है तो नीतिश का जनतादल यूनाइटेड फिर से एनडीए के पक्ष में आ खड़ा हो सकता है। शरद यादव ने इस संबंध में बयान भी दिया है। इस प्रकार अकेले मोदी को लपेटकर नीतिश कुमार ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। वे भारतीय जनता पार्टी में उन ताकतों को लामबंद करना चाह रहे हैं जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि क्या भारतीय जनता पार्टी नीतिश कुमार की जिद के आगे झुकेगी क्योंकि ऐसा करने से भाजपा की विश्वसनीयता जनता के बीच भी धराशायी हो जाएगी। इसीलिए निकट भविष्य में ऐसी संभावनाएं कम ही हैं कि भाजपा लालकृष्ण आडवाणी को एक बार फिर अपनी चुनावी रणनीति के केंद्र में लाए। ऐसा अवश्य हो सकता है कि नीतिश के इशारे पर भाजपा प्रधानमंत्री पद के लिए कोई कम्प्रोमाइज दावेदार नियुक्त कर दे। वैसे भी नीतिश सुषमा स्वराज के नाम पर सहमति जता चुके हैं। शिवसेना को भी इसमें आपत्ति नहीं है। भाजपा में भी आडवाणी समर्थक सुषमा स्वराज के पक्ष में हैं। चुनाव के पहले यही एक फार्मूला है जो प्रभावी हो सकता है। अन्यथा भाजपा और जनतादल यूनाइटेड के बीच जो तलाक हुआ है उसमें पुनर्विचार की गुंजाइश कम ही नजर आती है। बहरहाल नीतिश कुमार ने फिलहाल तूफान से अपनी नैया बचाई है। लेकिन भविष्य की राजनीति क्या होगी और कांग्रेस से गठजोड़ का क्या स्वरूप होगा इसके बारे में कहना वर्तमान में संभव नहीं है। कांग्रेस भी इंतजार करो की नीति अपना रही है। लेकिन कूटनीतिक रूप से सबसे ज्यादा नुकसान लालू प्रसाद यादव को हुआ है। कभी लालू कांग्रेस के स्टार प्रचारक हुआ करते थे, लेकिन अब कांग्रेस उन्हें भटे के भाव नहीं पूछती है। यदि लालू बिहार में अलग-थलग पड़ते हैं तो उनका वनवास कभी समाप्त होने वाला है नहीं। ऐसे हालात में लालू किसका दामन थामेंगे क्या वे उस कथित तीसरे मोर्चे में शामिल होंगे, जिसका अस्तित्व फिलहाल कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं के दिलों में है। कुल मिलाकर हालात बड़े पेचीदा हैं। लेकिन इस पेचीदगी का फायदा भाजपा और कांग्रेस दोनों को नहीं मिलने वाला। इससे यह तो तय है कि आने वाली राजनीति की तस्वीर बहुत धुंधली है और उत्तरप्रदेश के साथ-साथ बिहार भी राष्ट्रीय राजनीति में अब एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है।
आरएमपी सिंह