15-Jun-2013 06:59 AM
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बिहार में महाराज गंज उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के हाथों हुई पराजय भले ही महत्वपूर्ण न हो, किंतु इस पराजय ने इस मिथक को तोड़ा है कि नीतिश बिहार के सर्वमान्य नेता हैं। दरअसल बिहार में कोई एक नेता है ही नहीं। नेताओं का दल है और जिस दल का पलड़ा भारी हो जाता है वह चुनावी गणित में नंबर मार ले जाता है। इस बार लालू प्रसाद यादव जीते हैं न नीतिश हारे हैं। जीत हुई है तो केवल जनता दल यूनाइटेड को छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल का दामन थामने वाले प्रभुनाथ सिंह की। यह वही प्रभुनाथ सिंह है जो कभी महाराज गंज में जनता दल यूनाइटेड का चेहरा हुआ करते थे और जिन्हें नीतिश का करीबी माना जाता था। लेकिन बाद में रिश्ते बिगड़ गए। रिश्ते बिगडऩे का कारण प्रभुनाथ सिंह की महत्वाकांक्षा थी। क्योंकि उस क्षेत्र में वे सर्वेसर्वा हैं। स्वयं नीतिश ने इसे राष्ट्रीय जनता दल की बजाए प्रभुनाथ सिंह की जीत निरुपित किया है। यह भी सच है कि पिछली बार के मुकाबले इस बार नीतिश की पार्टी को वोट ज्यादा मिले हैं। दूसरा तथ्य यह भी है कि परंपरागत रूप से यह सीट राष्ट्रीय जनता दल ही जीतता आया है। फिर यह सीट राष्ट्रीय जनता दल के प्रत्याशी के देहांत के बाद ही खाली हुई थी, जिसके चलते सहानुभूति का लाभ राष्ट्रीय जनता दल को मिलना तय था।
हालांकि भीतरी खबरें जो आ रही हैं उनमें कहा गया है कि नीतिश के प्रत्याशी को पराजित करने के लिए भाजपा ने यह खेल खेला है और जानबूझकर जनतादल यूनाइटेड के प्रत्याशी को इस चुनाव में हारने दिया। लेकिन यह सच नहीं है इसमें भाजपा से ज्यादा नीतिश की अपनी गलती है नीतिश इस गलत फहमी में आ गए थे कि वह भाजपा के बगैर भी जीत सकते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने भाजपा के किसी भी नेता को प्रचार के लिए फोन नहीं किया। नीतिश ने अकेले बारह सभाएं की। लेकिन भाजपा को फटकने नहीं दिया। इसलिए भाजपा को अब यह कहने का मौका मिला है कि नीतिश अकेले लड़े इसलिए हार गए। इस पराजय से भाजपा और जनतादल यूनाइटेड की तल्खियां भी बढ़ गई हैं। हारे हुए प्रत्याशी पीके साही ने आरोप लगाया है कि भाजपा ने राष्ट्रीय जनतादल से मिलकर जनतादल यूनाइटेड को पराजित किया। जबकि भाजपा के गिरिराज सिंह का कहना है कि विकास पुरुष की छवि वाले नीतिश क्यों हारे। इस विषय पर उन्हें मंथन करना चाहिए। गिरिराज सिंह भाजपा कोटे से नीतिश सरकार में मंत्री भी हैं। महाराज गंज क्षेत्र में भूमिहार कम ही जीतते हैं इसलिए जनतादल यूनाइटेड की जीत से यह अंदाज लगता कि राज्य में जनतादल यूनाइटेड की लहर चल रही है। लेकिन हार से यह कहना संभव नहीं है कि लालू प्रसाद यादव की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है। क्योंकि पिछली बार की अपेक्षा लालू की पार्टी को वोट कम मिले हैं और यह भी सच है कि नीतिश मिलजुल कर चुनाव लड़ते तो शायद चुनाव जीत भी जाते।
इस पराजय से नीतिश को यह पता लग गया है कि अकेले चुनाव लडऩे में वे चुनाव नहीं जीत सकते और जिस कांग्रेस का दामन थामने का दुस्साहस वे दिखा रहे हैं उस कांग्रेस की स्थिति बिहार में शून्य हो चुकी हैं। राहुल गांधी भी बिहार में कांग्रेस को जीवित करने में नाकामयाब रहे हैं। देखा जाए तो बिहार और उत्तरप्रदेश दोनों राज्यों में कांग्रेस को पुनर्जीवित करना अब संभव नहीं है। इसीलिए नीतिश राज्य में भाजपा से मिलकर चलें तो शायद उन्हें लाभ भी हो सकता है, लेकिन नरेंद्र मोदी को लेकर नीतिश की नाराजगी कम नहीं हुई है। वे ऐसा मानते हैं कि नरेंद्र मोदी को साथ लेने से मुस्लिमों के बीच जनतादल यूनाइटेड की छवि नष्ट हो जाएगी। इसी कारण बार-बार मोदी को किनारे करने की कोशिश नीतिश करते हैं, लेकिन इस बार एनसीटीसी के लिए दिल्ली में आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में नीतिश कुमार ने नहीं बल्कि मोदी ने नीतिश कुमार की उपेक्षा कर दी। नीतिश रमन सिंह से बात कर रहे थे और नरेंद्र मोदी से मुखातिब होना चाह रहे थे, लेकिन नरेंद्र मोदी ने उन्हें देखा भी नहीं और आगे निकल गए। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी नीतिश को अब ज्यादा मनाने के मूड में नहीं हैं। मोदी के इस रुख ने उन लोगों को भी हैरान किया है जो लगातार नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहे हैं।
भाजपा के ही बहुत से नेता भीतर ही भीतर इस प्रयास में लगे हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित न किया जाए और इसीलिए उन्होंने खुलकर नीतिश कुमार का समर्थन भी किया था। लेकिन अब दांव उल्टा पड़ गया है। बदले हुए हालात में नीतिश कुमार को नई रणनीति बनानी होगी। वैसे भी मोदी के बहाने नीतिश जिस धर्मनिरपेक्ष तबके की रहनुमाई करना चाहते हैं वह नीतिश को भी उतना ही नापसंद करता है। वस्तुत: धर्मनिरपेक्षता के नाम पर विभिन्न दलों का जो एकत्रीकरण हो रहा है उसमें कमोवेश उन दलों को जानबूझकर दूर रखने की कोशिश की जा रही है जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से जुड़े रहे हैं। इसी कारण नीतिश के लिए न घर के न घाट के जैसी स्थिति पैदा होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। दूसरा नीतिश और नरेंद्र मोदी में अंतर यह है कि मोदी अपने बल पर एक राज्य में चुनाव जिताने की ताकत रखते हैं, लेकिन नीतिश को अकेले सत्ता में आना महंगा पड़ सकता है, क्योंकि उनका जनाधार बिहार के ही कुछ क्षेेत्रोंं तक सीमित है। पिछले दिनों किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि रामविलास पासवान, लालू यादव और कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़ते हैं तो बिहार में नीतिश का जीतना मुश्किल हो जाएगा। नीतिश तभी इस गठबंधन का मुकाबला कर सकते हैं जब भाजपा उनके साथ मजबूती से खड़ी हो। जहां तक भाजपा का प्रश्न है नीतिश से अलग होकर उसकी सीटों की संख्या भले ही घट जाए लेकिन बाद में आगे चलकर यह अलगाव कहीं न कहीं भाजपा को फायदा ही पहुंचाएगा क्योंकि अलग पहचान बनाने से जो मतदाता जुड़ता है वह वास्तविक समर्थक भी होता है। इसीलिए भाजपा और नीतिश दोनों में से यदि घाटा होता है तो नीतिश को ही होगा। इसी आधार पर आगामी रणनीति तय की जाएगी।
बिहार भाजपा में नीतिश का विरोध
नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के साथ ही बिहार भारतीय जनता पार्टी में नीतिश कुमार का विरोध शुरू हो गया है। पार्टी के नेता और बिहार में मत्स्य संसाधन मंत्री गिरिराज सिंह ने नीतिश कुमार से
छोटे-मोटे मतभेद भुलाकर नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लडऩे की अपील की है। जबकि जनता दल यूनाइटेड ने इसे भाजपा का अंदरूनी फैसला बताकर मामला टालने का प्रयास किया है। दरअसल नीतिश से उम्मीद की जारही थी कि वे मोदी के विरोध में खुलकर सामने आ जाएंगे। लेकिन नीतिश ने अपेक्षाकृत अधिक नरमी दिखाई है। इसके विपरीत सदैव भाजपा से मधुर संबंध बनाए रखने की वकालत करने वाले शरद यादव भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर मुखर हो गए हैं और उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि लालकृष्ण आडवाणी के बगैर एनडीए में बने रहना संभव नहीं होगा। देखा जाए तो नरेंद्र मोदी को चुनावी कमान सौंपने में छह माह की जो देरी हुई है उसमें जनता दल यूनाइटेड का बड़ा योगदान है। जनतादल यूनाइटेड शुरू से ही नरेंद्र मोदी का प्रबल विरोधी रहा है। खासकर नीतिश कुमार खुलकर नरेंद्र मोदी की मुखालफत करते रहे हैं। नीतिश ने नरेंद्र मोदी को विधानसभा चुनाव के समय बिहार में घुसने भी नहीं दिया था, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव में भारतीय जनता पार्टी को नीतिश जैसे सहयोगियों की ज्यादा परवाह नहीं है पर बिहार में मोदी को लेकर भाजपा भी बटी हुई है। सबसे बड़ी बाधा तो सुशील मोदी हैं जो नरेंद्र मोदी को विशेष पसंद नहीं करते। इसी कारण बिहार को लेकर भाजपा का असमंजस समाप्त नहीं हुआ है। वहीं जनता दल यूनाइटेड भी असमंजस की स्थिति में है। उसकी वजह यह है कि कांग्रेस का राज्य में जनाधार न के बराबर है। कांग्रेस के साथ जाने से नुकसान अधिक होगा फायदा कम। मुस्लिम वोट भी बिहार में लालू यादव और नीतिश के बीच बटा हुआ है। बिहार के मुस्लिम कांग्रेस को उतना पसंद नहीं करते। यदि जनता दल यूनाइटेड कांग्रेस के साथ जाता है तो उसका मुस्लिम वोट बैंक स्वाभाविक रूप से लालू यादव की तरफ शिफ्ट हो जाएगा। पिछड़े और अति पिछड़े पहले से ही राम विलास पासवान जैसे नेताओं के प्रभाव में हैं। इसी के चलते जनता दल यूनाइटेड के समक्ष एक तरफ कुआं तो एक तरफ खाई वाली स्थिति उत्पन्न हो गई है। भीतरी सूत्र बताते हैं कि राजनाथ सिंह ने नीतिश कुमार से बात करते वक्त उन्हें आश्वस्त किया था कि बिहार में कोई फार्मूला तलाश जाएगा। सूत्रों की मानी जाए तो यह फार्मूला कुछ इस तरह से हो सकता है कि बिहार में अलग चुनाव समिति बना दी जाए। जिसकी कमान संभवत: सुशील मोदी को सौंपी जा सकती है। ऐसी स्थिति में नीतिश को यह कहने के लिए हो जाएगा कि उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर रखा हुआ है। लेकिन बिहार में नरेंद्र मोदी समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बल्कि जनतादल यूनाइटेड के कुछ नेता भी नरेंद्र मोदी को कमान दिए जाने के पक्ष में हैं। कुछ दिन पहले एक वरिष्ठ नेता ने दिल्ली में कहा था कि भाजपा को समर्थन देना और मोदी से दूरी बनाना दोनों एक साथ संभव नहीं है। जनतादल यूनाइटेड को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी ही होगी। बिहार से यशवंत सिन्हा और शत्रुध्न सिन्हा जैसे प्रभावी नेता नरेंद्र मोदी के विरोध में अभी फिलहाल खड़े दिखाई दे रहे हैं। शत्रुध्न सिन्हा ने तो यहां तक कहा है कि आने वाले दिनों में कुछ और इस्तीफे हो सकते हैं। दरअसल शत्रुध्न सिन्हा बिहार में बड़ी भूमिका की तलाश में हैं। इससे पहले भी उनके पार्टी छोडऩे की अटकलें और कांग्रेस में जाने की संभावना जताई जा रही थी। लालू प्रसाद यादव भी बड़े सम्मान से शत्रुध्न सिन्हा का नाम लिया करते हैं, लेकिन राजनाथ सिंह ने किसी प्रकार शत्रुध्न सिन्हा को मना लिया था। पर अब हालात बदलते जा रहे हैं।
कुछ समय पूर्व जब केंद्र सरकार में घोटाले में लिप्त मंत्रियों को बर्खास्त करने की बात उठी थी उस वक्त जनतादल यूनाइटेड ने सरकार का समर्थन करते हुए कहा था कि मंत्रियों की बर्खास्तगी की कोई आवश्यकता नहीं है। विशेषकर तत्कालीन रेल मंत्री बंसल के पक्ष में जनतादल यूनाइटेड ने खुलकर लामबंदी की थी। लेकिन बंसल को जाना पड़ा। पर इसका लाभ यह हुआ कि कांग्रेस शासित यूपीए सरकार ने बिहार को सम्मानजनक पैकेज दे दिया। अब नीतिश बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा पाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो बहुत शीघ्र ही नीतिश एनडीए से नाता तोड़कर तीसरे मोर्चे के गठन की तरफ बढ़ सकते हैं जिसके लिए नवीन पटनायक और ममता बनर्जी पहले से ही प्रयासरत हैं। भाजपा का दबाव भी कहीं न कहीं नीतिश महसूस कर रहे हैं। भाजपा के मंत्रियों और नेताओं ने तो महाराज गंज में जनतादल यूनाइटेड प्रत्याशी के पक्ष में वोट मांगा लेकिन भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने जानबूझकर जनतादल यूनाइटेड प्रत्याशी के प्रति उदासीनता दिखाई। बल्कि बूथ लेवल तक तो बहुत से कार्यकर्ता जनतादल यूनाइटेड के प्रत्याशी को हराने की कोशिश करते देखे गए। इसी कारण नीतिश को लगने लगा है कि भाजपा के साथ लंबे समय तक टिकना संभव नहीं है। नीतिश राज्य की सत्ता से हाथ नहीं धोना चाहते पर उनके सामने विकल्प सीमित हैं। भाजपा को अपने से दूर करके उनका वजूद भी समाप्त हो जाएगा। इस स्थिति से कैसे निपटा जाए फिलहाल नीतिश यह समझने में असमर्थ रहे हैं। देखना है कि आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति किस करवट बैठती हैं। फिलहाल तो नए नेता के रूप में बिहार में रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने राजनीतिक पटल पर दस्तक दी है। नेताओं के सुपुत्रों की अगली पीढ़ी भी कहीं न कहीं बिहार की राजनीति को प्रभावित कर सकती है पर वे स्वयं कितने प्रभावी होंगे। इस बात का आंकलन फिलहाल संभव नहीं है।