02-Apr-2018 06:28 AM
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हिन्दी साहित्य का सर्वमान्य एवं सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य रामचरितमानस मानव संसार के साहित्य के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों एवं महाकाव्यों में से एक है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ग्रंथ के साथ रामचरित मानस को ही प्रतिष्ठित करना समीचीन है। वह वेद, उपनिषद, पुराण, बाईबल, इत्यादि के मध्य भी पूरे गौरव के साथ खड़ा किया जा सकता है। इसीलिए यहां पर तुलसीदास रचित महाकाव्य रामचरित मानस प्रशंसा में प्रसादजी के शब्दों में इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि -
राम छोडक़र और की जिसने कभी न आस की,
रामचरितमानस-कमल जय हो तुलसीदास की।
अर्थात यह एक विराट मानवतावादी महाकाव्य है, जिसका अध्ययन अब हम एक मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से करना चाहेंगे, जो इस प्रकार है - जिसके अन्तर्गत श्री महाकवि तुलसीदासजी ने श्रीराम के व्यक्तित्व को इतना लोकव्यापी और मंगलमय रूप दिया है कि उसके स्मरण से हृदय में पवित्र और उदात्त भावनाएं जाग उठती हैं। परिवार और समाज की मर्यादा स्थिर रखते हुए उनका चरित्र महान है कि उन्हें मर्यादा पुरूषोतम के रूप में स्मरण किया जाता है। वह पुरूषोत्तम होने के साथ-साथ दिव्य गुणों से विभूषित भी हैं। वह ब्रह्म रूप ही है, वह साधुओं के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए ही पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि कहना चाहे तो भी राम के चरित्र में इतने अधिक गुणों का एक साथ समावेश होने के कारण जनता उन्हें अपना आराध्य मानती है, इसीलिए महाकवि तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथ रामचरितमानस में राम का पावन चरित्र अपनी कुशल लेखनी से लिखकर देश के धर्म, दर्शन और समाज को इतनी अधिक प्रेरणा दी है कि शताब्दियों के बीत जाने पर भी मानस मानव मूल्यों की अक्षुण्ण निधि के रूप में मान्य है। अत: जीवन की समस्यामूलक वृत्तियों के समाधान और उसके व्यावहारिक प्रयोगों की स्वभाविकता के कारण तो आज यह विश्व साहित्य का महान ग्रंथ घोषित हुआ है, और इस का अनुवाद भी आज संसार की प्राय: समस्त प्रमुख भाषाओं में होकर घर-घर में बस गया है।
एक जगह डॉ. रामकुमार वर्मा - संत तुलसीदास ग्रंथ में कहते हैं कि ‘रूस में मैंने प्रसिध्द समीक्षक तिखानोव से प्रश्न किया था कि सियाराम मय सब जग जानी के आस्तिक कवि तुलसीदास का रामचरितमानस ग्रंथ आपके देश में इतना लोकप्रिय क्यों है? तब उन्होंने उत्तर दिया था कि आप भले ही राम को अपना ईश्वर माने, लेकिन हमारे समक्ष तो राम के चरित्र की यह विशेषता है कि उससे हमारे वस्तुवादी जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान मिल जाता है। इतना बड़ा चरित्र समस्त विश्व में मिलना असंभव है। ‘ऐसा संत तुलसीदासजी का रामचरित मानस है।
मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से अध्ययन किया जाये तो रामचरित मानस बड़े भाग मानुस तन पावा के आधार पर अधिष्ठित है, मानव के रूप में ईश्वर का अवतार प्रस्तुत करने के कारण मानवता की सर्वोच्चता का एक उदगार है। वह कहीं भी संकीर्णतावादी स्थापनाओं से बध्द नहीं है। वह व्यक्ति से समाज तक प्रसारित समग्र जीवन में उदात्त आदर्शों की प्रतिष्ठा भी करता है। अत: तुलसीदास रचित रामचरित मानस को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो कुछ विशेष उल्लेखनीय बातें हमें निम्नलिखित रूप में देखने को मिलती हैं -
तुलसीदास एवं समय संवेदन में मनोवैज्ञानिकता :
तुलसीदासजी ने अपने समय की धार्मिक स्थिति की जो आलोचना की है उसमें एक तो वे सामाजिक अनुशासन को लेकर चिंतित दिखलाई देते हैं, दूसरे उस समय प्रचलित विभत्स साधनाओं से वे खिन्न रहे हैं। वैसे धर्म की अनेक भूमिकाएं होतीं हैं, जिनमें से एक सामाजिक अनुशासन की स्थापना है।
रामचरितमानस में उन्होंने इस प्रकार की धर्म साधनाओं का उल्लेख ‘तामस धर्म’ के रूप में करते हुए उन्हें जन-जीवन के लिए अमंगलकारी बताया है।
तामस धर्म करहिं नर जप तप व्रत मख दान,
देव न बरषहिं धरती बए न जामहि धान॥
इस प्रकार के तामस धर्म को अस्वीकार करते हुए वहां भी उन्होंने भक्ति का विकल्प प्रस्तुत किया हैं। अपने समय में तुलसीदासजी ने मर्यादाहीनता देखी। उसमें धार्मिक स्खलन के साथ ही राजनीतिक अव्यवस्था की चेतना भी सम्मिलित थी। रामचरितमानस के कलियुग वर्णन में धार्मिक मर्यादाएं टूट जाने का वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है, मानस के कलियुग वर्णन में द्विजों की आलोचना के साथ शासकों पर किया किया गया प्रहार निश्चय ही अपने समय के नरेशों के प्रति उनके मनोभावों का द्योतक है। इसलिए उन्होंने लिखा है -
द्विजा भूति बेचक भूप प्रजासन।
अन्त: साक्ष्य के प्रकाश में इतना कहा जा सकता है कि इस असंतोष का कारण शासन द्वारा जनता की उपेक्षा रहा है। रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने बार-बार अकाल पडऩे का उल्लेख भी किया है जिसके कारण लोग भूखों मर रहे थे -
कलि बारहिं बार अकाल परै,
बिनु अन्न दु:खी सब लोग मरै।
इस प्रकार रामचरितमानस में लोगों की दु:खद स्थिति का वर्णन भी तुलसीदासजी का एक मनोवैज्ञानिक समय संवेदन पक्ष रहा है।
तुलसीदास एवं मानव अस्तित्व की यातना :
यहां पर तुलसीदासजी ने अस्तित्व की व्यर्थतता का अनुभव भक्ति रहित आचरण में ही नहीं, उस भाग दौड़ में भी किया है, जो सांसारिक लाभ लोभ के वशीभूत लोग करते हैं। वस्तुत:, ईश्वर विमुखता और लाभ लोभ के फेर में की जाने वाली दौड़ धूप तूलसीदास की दृष्टि में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान देने की बात तो यह है कि तुलसीदासजी ने जहां भक्ति रहित जीवन में अस्तित्व की व्यर्थता देखी है, वही भाग दौड़ भरे जीवन की उपलब्धि भी अनर्थकारी मानी हैं। यथा -
जानत अर्थ अनर्थ रूप-भव-कूप परत एहि लागै।
इस प्रकार इन्होंने इसके साथ सांसारिक सुखों की खोज में निरर्थक हो जाने वाले आयुष्य क्रम के प्रति भी ग्लानि व्यक्त की है।
-ओम