अहंकार प्रभु से दूर ले जाता है
16-Mar-2018 09:01 AM 1235626
भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि... प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। यानी जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जबकि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। यानी दो व्यक्ति जिनमें से एक कृष्ण भावना भावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है, समान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु उनके पदों में आकाश-पाताल का अन्तर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है। भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि अन्ततोगत्वा वह कृष्ण के अधीन है। अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतन्त्र रूप से करने का श्रेय लेना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण। उसे यह ज्ञान नहीं कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान की अध्यक्षता में की गई है, अत: उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान हृषीकेश कहलाते हैं अर्थात् वे शरीर की इन्द्रियों के स्वामी हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरन्तर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुत: मोहग्रस्त रहता है, जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है। भगवत गीता हमें अहंकार का त्याग करने का संदेश देती है। कुछ लोगों का भ्रम है कि गीता तो केवल संन्यासियों के लिए है। गीता सबके लिए है। गीता में भगवान कहते हैं कि सत्य बोलों पर ऐसा बोलों कि किसी के ह्रदय को पीड़ा न हो। जीवन में एक बार आजमा कर देखो, जीवन में सुखद अनुभूति मिलेगी। गीता कहती है कि हर व्यक्ति को आत्म मंथन करना चाहिए। आत्म ज्ञान ही अहंकार को नष्ट कर सकता है। अहंकार अज्ञानता को बढ़ावा देता है। उत्कर्ष की ओर जाने के लिए? आत्म मंथन के साथ ही एक सही और सकारात्मक सोच का निर्माण करना भी जरूरी है। जैसा आप सोचेंगे, वैसा ही आप आचरण भी करेंगे। इसलिए खुद को आत्मविश्वास से भरा हुआ और सकारात्मक बनाने के लिए अपनी सोच को सही करें। हर एक इंसान समझता है कि जो वह कर रहा है, वह सबसे अच्छा है। वह जैसी जिंदगी जी रहा है, उससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। कई बार हम यह भूल जाते हैं कि सद्गुणों का जिंदगी में होना बहुत जरूरी है। इंसान यह भूल जाता है कि जब उसके अंदर घमंड पैदा हो जाता है, तो फिर उसके कदम उसे प्रभु से दूर ले जाते हैं। बहुत सी बार प्रभु की खोज में लगे हुए लोगों के अंदर भी घमंड आ जाता है। इंसान सोचने लगता है कि मैंने बहुत दान-पुण्य किया है, मैं बहुत से तीर्थ स्थानों पर गया हूं, मैं बाकायदगी से अपने धर्मस्थान पर जाता हूं, मैं औरों का ख्याल रखता हूं। महापुरुष बार-बार हमें यही समझाते हैं कि हम ऐसी जिंदगी जिएं जो नम्रता से भरपूर हो। कुछ लोगों को अपने आप पर बड़ा घमंड होता है, उनको लगता है कि उनके कारण ही सबकुछ हो रहा है। वो सोचते हैं कि मैं बहुत अच्छा हूं, मैं बहुत पढ़-लिख गया हूं, मैंने बहुत पैसे कमा लिए हैं, मेरा बहुत बोलबाला है। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो केवल यह नहीं समझते कि मैं बहुत अच्छा हूं बल्कि औरों को बताते भी फिरते हैं कि मैं बहुत अच्छा हूं, मेरे पास बहुत सारे पैसे हैं, मैंने यह नई कार खरीदी है, मैं यहां सैर कर के आया हूं, मेरे पास ये है, मेरे पास वो है। ज्यादातर लोग इन दो अवस्थाओं में ही जीते रहते हैं। अपने अहंकार को काबू में न रखा जाए, तो फिर इंसान सच्चाई की जिंदगी नहीं जी पाता क्योंकि जहां पर घमंड आ जाता है, वहां पर आदमी बढ़-चढ़ कर बातें करना शुरू कर देता है, वह सच्चाई को भी बदल देता है। झूठी चीज को भी ऐसे दिखाएगा जैसे वह सच्ची हो। उसकी जिंदगी सच्चाई से दूर होनी शुरू हो जाती है। महापुरुष समझाते हैं कि इंसान अहंकार में सच्चाई से बहुत दूर चला जाता है। उसे अंदर से लगता है कि सब उसकी वाह-वाह करें। किसी की मदद करने के बजाय वह इंसान अपनी बड़ाई में ही लगा रहता है। अहंकार के कारण ही इंसान को गुस्सा भी आता है। अगर एक अहंकारी आदमी आया और सामने वाला भी अहंकारी निकल आया, तो पहला अपनी बात करेगा पर दूसरा उसकी बात सुनेगा नहीं। पहला सुनाना चाह रहा है, दूसरा सुन नहीं रहा, तो पहले के अंदर गुस्सा बढ़ता ही चला जाएगा। महापुरुष समझाते हैं कि हम यह न सोचें कि सारे गुण जरूरी नहीं हैं। अधूरे और अनियमित विकास से हम अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार को काबू में करना है और एक संतुलित और स्थिर जिंदगी जीनी है। वह स्थिरता हमें तब मिलती है जब हम अंदर की दुनिया में कदम उठाते हैं। स्थिरता हमें तब मिलती है जब हम प्रभु की नजदीकी पाते हैं। इंसान को शांति तब मिलती है, उसकी जिंदगी में हलचल तब कम होती है जब वह अंतर में प्रभु की ज्योति और श्रुति के साथ जुड़ता है। सब कुछ हमारे अंदर है, लेकिन इंसान का ध्यान बाहर की ओर है। अगर हम अपना ध्यान अंदर की ओर करेंगे, तो हम असलियत को जान जाएंगे। हमारे अंदर आध्यात्मिक जागृति आ जाएगी और हमारे कदम तेजी से प्रभु की ओर उठने शुरू हो जाएंगे। हम सब प्रभु को पा सकते हैं। हमें सिर्फ उन्हें दिल से, रूह की गहराई से पुकारना है। हमें अपनी रूह को उड़ान देनी है और अंदर की दुनिया में जाना है। अगर हम अंदर की दुनिया में जाएंगे, प्रभु की ज्योति और श्रुति के साथ जुड़ेंगे, तो हम इस शरीर से ऊपर उठकर, रूहानी मंडलों को पार करते हुए, प्रभु के निजधाम पहुंचकर अपनी आत्मा का मिलाप परमात्मा से करवा सकते हैं। -ओम
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