16-Mar-2018 09:58 AM
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देश में मुक्ति की जो मुहिम बीजेपी चला रही है, वो खुद भी उन्हीं सवालों में उलझती हुई सी लग रही है। बीजेपी की ये मुहिम कांग्रेस मुक्त भारत और क्षेत्रीय दल मुक्त देश से होते हुए वाम दल मुक्त राज्य पर आ टिका है। त्रिपुरा के बाद केरल का ही नंबर है। अब तो लगने लगा है जैसे बीजेपी साथी मुक्तÓ एनडीए की भी राह पकड़ चुकी है। ऐसे में सवाल ये बचता है कि 2019 में बीजेपी किसके साथ और कितने पानी में होगी? कुछ सच ऐसे भी हैं जिनसे बीजेपी भी वाकिफ है। मसलन - वो पूरी की पूरी सीटें तो जीतने से रही जो 2014 की मोदी लहर में उसके खाते में आयी थीं।
ये ठीक है कि जीतनराम मांझी के एनडीए छोडऩे से बीजेपी को बहुत फर्क नहीं पड़ता। बिहार के ही उपेंद्र कुशवाहा के आरजेडी नेताओं के साथ सड़क पर प्रदर्शन और एनडीए न छोडऩे के बयान से भी फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़े भी तो क्यों जब नीतीश कुमार एनडीए का हिस्सा बन चुके हों तो बिहार में बाकियों के हाथ पांव मारने से भला क्या बिगड़ जाएगा?
ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू का फर्क नहीं समझती। ऐसा भी नहीं कि बीजेपी शिवसेना की गिदड़-भभकियों को नहीं समझती। इतनी भी नासमझ नहीं कि शिरोमणि अकाली दल और पीडीपी के साथ होने और न होने से क्या फर्क पडऩे वाला है बीजेपी को अहसास नहीं होता। हालांकि, कई बार बड़े लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते वक्त कई चीजें छूट जाती हैं। दिखने में ये फौरी तौर पर भले ही छोटी लगें, लेकिन लंबे अंतराल के लिए बहुत बड़ी होती हैं।
कहीं बीजेपी को ऐसा तो नहीं लगता कि जिस तरह शिवसेना अलग होकर चुनाव लड़ती है और फिर साथ हो जाती है। बारहों महीने आक्रामक बनी रहती है लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में वही करती है जो बीजेपी चाहती है। शिवसेना ने अगला चुनाव बीजेपी से अलग होकर लडऩे का ऐलान कर दिया है। अब तक यही लगता रहा कि बीजेपी, टीडीपी को भी शिवसेना की ही तरह ले रही है, लेकिन आंध्र प्रदेश में बीजेपी के मंत्रियों नायडू सरकार से अलग होकर नया संकेत दे दिया है। पहला, बीजेपी की गाड़ी टीडीपी के बगैर भी चलती रहेगी। दूसरा, बीजेपी को टीडीपी की जगह नया साथी मिल चुका है इसलिए उसे पुराने की उतनी जरूरत नहीं रही। खबर आयी थी कि बीजेपी वाईआरएस कांग्रेस के नेता वाईएस जगनमोहन रेड्डी को साथ ले सकती है।
देखा जाये तो एनडीए में बीजेपी के बाद 282 के बाद शिवसेना के ही 18 और टीडीपी के 16 सांसद हैं, फिर भी बीजेपी को अगर किसी की परवाह नहीं तो जरूर खास वजह है। देखा जाये तो मोदी-शाह की जोड़ी गठबंधन की बजाये संसद में अकेले बूते नंबर बढ़ाने में जुटे हुए हैं - लेकिन ठीक उसी वक्त उनकी कोशिश ये भी है कि देश के सभी राज्यों में बीजेपी नहीं तो कम से कम एनडीए की सरकार जरूर हो।
अमित शाह को मालूम है कि जिन सीटों पर 2014 में जीत मिली वहां दोबारा वैसा ही नतीजा हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए वो तटीय इलाकों पर फोकस कर रहे हैं। शाह की नजर पश्चिम बंगाल की 42, ओडिशा की 21, केरल की 20 और तमिलनाडु-पुड्डुचेरी की 40 सीटों पर है। इन 123 सीटों में से शाह बीजेपी के लिए 110 सीटें जीतना चाहते हैं। इसी तरह यूपी, बिहार, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की 75 सीटें ऐसी हैं जहां बीजेपी के हाथ से जीत फिसल गयी। शाह इन्हीं सीटों से घाटे की भरपाई करना चाहते हैं। बीजेपी के कट्टर विरोधी अरविंद केजरीवाल को भी अपनी तरफ से 2019 को लेकर एक भविष्यवाणी ट्वीट की है। लोगों से बातचीत और उनका मूड समझने के बाद केजरीवाल का मानना है कि 2019 में बीजेपी को 215 से भी कम सीटें मिलेंगी।
त्रिपुरा में चुनाव जीतने के साथ ही मेघालय और नगालैंड में एनडीए की सरकार बनने से बीजेपी कार्यकर्ताओं के जोश में इजाफा जरूर हुआ है। जोश के उदाहरण सड़क पर नजर भी आ रहे हैं। हालांकि, नॉर्थ ईस्ट के उन इलाकों से लोक सभा की महज पांच सीटें आती हैं।
2014 के बाद 15 राज्यों में हुए हुए चुनावों पर नजर डालें तो उनके अनुसार 2014 में बीजेपी जिन 15 राज्यों की जिन 1171 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, बाद के चुनावों में महज 854 पर सिमट गयी। इस हिसाब से देखें तो 2014 की तुलना में 2019 में बीजेपी को 45 लोक सभा सीटों का नुकसान हो सकता है। इन्हीं 15 राज्यों में बीजेपी को 191 लोक सभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इस साल के आखिर तक जहां विधानसभा के चुनाव होने हैं वहां से बीजेपी को 79 सीटें मिली थीं - चुनाव बाद 2019 को लेकर भी अंदाजा लगाया जा सकेगा। 2019 में बीजेपी के लिए उतर और दक्षिण में क्या फर्क देखने को मिल सकता है इस बात का जवाब तो पिछले साल नवंबर में आये प्यू के सर्वे में ही मिल चुका है। अमेरिकी एजेंसी प्यू के सर्वे में प्रधानमंत्री मोदी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी के मुकाबले 30 फीसदी ज्यादा लोकप्रिय बताये गये। खास बात ये रही कि मोदी की लोकप्रियता उत्तर की तुलना में दक्षिण भारत में ज्यादा बतायी गयी। अब देखना यह है कि एनडीए में बढ़ती दरार को थामने में नरेंद्र मोदी और अमित शाह कितने सफल होते हैं या फिर वे साथी मुक्त अभियान चलाकर भाजपा को इतना मजबूत बनाते हैं कि वह 2019 का चुनाव अकेले लड़ सके।
भारी पड़ेगी भगदड़
एनडीए में शामिल पार्टियों में जो असंतोष दिख रहा है वह भाजपा पर भारी पड़ सकता है। वह इसलिए कि कांग्रेस भी इस फिराक में है कि वह छोटे-बड़े सभी दलों के साथ मिलकर एक ऐसा गठबंधन बनाए जो भाजपा के विजयरथ को रोक सके। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी निरंतर इस प्रयास में लगे हुए हैं। कांग्रेस के दूत विभिन्न राज्यों में असंतुष्ट नेताओं के सम्पर्क में हैं। वहीं राजद, सपा, बसपा, तेलगू देशम, टीएमसी सहित कई दल मौके की तलाश में हैं। कांग्रेस भी ऐसे दलों को अपने साथ मिलाने के लिए उतावली है।
सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है एनडीए में
बीते तीन वर्षों से ज्यादा समय में यह साफ हो चुका है कि भाजपा की मंशा क्या है। इसीलिए एनडीए सहयोगियों का धैर्य भी समाप्त होने लगा है। इसका सबसे ताजा और मजबूत उदाहरण चंद्रबाबू नायडू के रूप में लिया जा सकता है। तेलुगु देशम पार्टी आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग लंबे समय से करती आ रही है। केंद्र सरकार ने न केवल इससे साफ इनकार कर दिया बल्कि विशेष पैकेज का झुनझुना थमाने लगी। शायद भाजपा तेलुगु देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू को भी जेडीयू नेता नीतीश कुमार समझने लगी थी। वह भूल गई है कि यह वही चंद्रबाबू नायडू हैं जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की नाक में भी दम कर दिया था। इतना ही नहीं, वह कभी संयुक्त मोर्चा के शीर्षस्थ नेता रहे हैं। उधर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी एनडीए से पलायन करने की घोषणा कर चुके हैं।
- इन्द्र कुमार