ध्वंस का उन्माद
16-Mar-2018 09:52 AM 1234808
त्रिपुरा में लेनिन, तमिलनाडु में पेरियार, पश्चिम बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, यूपी के मेरठ में डॉ. भीम राव अंबेडकर की मूर्ति तोड़े जाने के बाद केरल के कन्नूर में अज्ञात लोगों ने महात्मा गांधी की प्रतिमा को नुकासान पहुंचाया और तमिलनाडु के तिरुवोत्तियूर में अंबेडकर की गोल्डन मूर्ति पर पेंट डाल दिया। वहीं जबलपुर में नेताजी सुभाषचंद बोस की प्रतिमा को लाल रंग से पोत दिया गया है। जिस तरह एक के बाद एक कई महापुरुषों की प्रतिमाएं गिराए या तोड़े जाने की घटनाएं हुईं वे बेहद शर्मनाक और अफसोसनाक हैं। इन घटनाओं से जहां देश के भीतर नाहक कटुता पैदा हुई, वहीं दुनिया में एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की साख को धक्का लगा है। देश के कुछ हिस्सों में प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने की घटनाओं की प्रधानमंत्री ने निंदा की है और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है। इसके साथ ही, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को दो बार निर्देश जारी किए कि इन घटनाओं में लिप्त लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए और ऐसी घटनाएं रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं। इन घटनाओं से सरकार का चितिंत होना स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल में चौंतीस साल वाम मोर्चे का राज रहा। लेकिन वाम मोर्चे को शिकस्त देकर ममता बनर्जी आईं, तो वहां लेनिन की मूर्तियां नहीं तोड़ी गईं। लेनिन की मूर्ति गिराने के पीछे यह दलील देना कि वे भारत के नहीं थे, निहायत बेतुकी दलील है। जिन महापुरुषों ने तमाम देशों में बहुत-से लोगों को प्रभावित किया है और दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ी है, लेनिन उनमें से एक हैं। गांधी जी की भी मूर्तियां बहुत-से देशों में हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर की भी। लेनिन, गांधी, पेरियार और आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी से असहमत होने और उन्हें अपना आदर्श न मानने का किसी को भी हक है। लेकिन इनमें से किसी की भी प्रतिमा तोडऩा-ढहाना एक ऐसा उन्माद है जिसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव नहीं होता, सहिष्णुता और सौहार्द भी होता है। अगर ये घटनाएं नहीं थमीं तो प्रतिमा ध्वंस का सिलसिला कहां जाकर खत्म होगा, कौन जानता है! लेकिन सवाल है कि सरकार को चेतने में देर क्यों लगी? सबसे पहले त्रिपुरा में सोवियत क्रांति के जनक और कम्युनिस्ट विचारक लेनिन की प्रतिमा ढहाई गई। तब इसकी निंदा करने के बजाय भाजपा के कई नेता घुमा-फिरा कर इसे सही ठहराते रहे, यह कहते हुए कि यह वामपंथी शासन के दौरान दमन के शिकार रहे लोगों द्वारा अपने रोष का इजहार है। आजादी मिलने के बाद बहुत-से औपनिवेशिक निशान हटाने की घटनाओं से भी इसकी तुलना की गई। लेनिन की मूर्ति ढहाने को परोक्ष रूप से उचित ठहराने में त्रिपुरा के राज्यपाल तक शामिल हो गए, जबकि नई सरकार के शपथ ग्रहण से पहले कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी उन्हीं की थी। फिर बात यहीं नहीं रुकी। तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय सचिव एच राजा ने एक फेसबुक-पोस्ट डाल कर पेरियार की मूर्ति का भी लेनिन की मूर्ति जैसा ही हश्र किए जाने की धमकी दे डाली। इसके कुछ ही घंटों बाद वेल्लोर में पेरियार की प्रतिमा गिरी हुई और खंडित अवस्था में मिली। इससे तमिलनाडु का सियासी पारा चढ़ गया। उधर कोलकाता में जनसंघ (भाजपा के पूर्व-रूप) के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी और मेरठ के एक गांव में दलितों के प्रेरणा-स्रोत भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के साथ तोड़-फोड़ की खबरें आईं। इस सब पर संसद के भीतर भी काफी हंगामा हो चुका है और बाहर भी। इन घटनाओं में कौन लोग शामिल थे, यह देखना संबंधित राज्य की पुलिस का काम है। मूर्तियों की रक्षा से ज्यादा जरूरी विचारों को बचाना मूर्तिभंजन का दौर जारी है। यह दौर एकदम अनूठा है। जैसे-जैसे मूर्तियां टूट रही हैं वैसे -वैसे जड़ता बढ़ रही है। वैचारिक संकीर्णता की हिंसात्मक अभिव्यक्ति को राज्याश्रय और शायद जनस्वीकृति देने का चलन बढ़ रहा है। अमूमन जब मूर्तियां महत्वहीन हो जाती हैं तब ऐसा माना जाता है कि समाज अंधश्रद्धा और अंधविश्वास तथा इनसे उपजने वाली कट्टरता और असहिष्णुता से मुक्त हो रहा है। किंतु यहां तो मूर्तियां तोड़ी ही इसलिए जा रही हैं कि मामला विचार का न रहकर विश्वास का बन जाए, तर्क का महत्व समाप्त हो जाए और आस्था का काला जादू सिर चढ़कर बोलने लगे, चर्चा और बहस का स्थान अराजक हिंसा द्वारा ले लिया जाए। मूर्तिभंजक और मूर्तिपूजक दोनों घृणा और हिंसा की भाषा बोलने लगें। यह देखना आश्चर्यजनक है कि जिन महापुरुषों की मूर्तियां टूट रही हैं- लेनिन- पेरियार-अम्बेडकर- उन्होंने अपना सारा जीवन कुतर्क, अंधविश्वास और कट्टरता से संघर्ष में लगाया था। ये महापुरुष इस बात को कदापि स्वीकृति नहीं देते कि इनकी वैचारिक उदारता को मूर्तियों के रूप में संकीर्ण और सीमित कर कट्टरता में परिवर्तित कर दिया जाए। किंतु इन महापुरुषों का दुर्भाग्य रहा कि इनके समर्थकों ने इन्हें देवता बना दिया और इनके विचारों को धर्म ग्रंथों के आप्त वाक्यों में परिवर्तित कर दिया। - अक्स ब्यूरो
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