16-Mar-2018 09:41 AM
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मर जाएं या मिट जाएं
अब लेके रहेंगे अपना हक
ओ शेतकर किंवा शेतकरी
पुढे जा पुढे जा
ओ शेतकर किंवा शेतकरी
मुंबईला ये, मुंबईला जा
हिंदी, मराठी और बीच-बीच में पारधी व गुजराती में गूंजते नारों के साथ भीषण गर्मी में खेती-बाड़ी छोड़कर छह दिन तक पैदल चलकर करीब 200 किलोमीटर लंबी यात्रा कर मुंबई पहुंचे महाराष्ट्र के करीब 30 हजार किसान मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से लिखित आश्वासन मिलने के बाद अपने घरों को लौट गए। इन किसानों में बड़ी संख्या में आदिवासी भी शामिल थे। ये आदिवासी जंगल की उस जमीन के मालिकाना हक के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं जिस पर वे दशकों से रह रहे हैं और वहीं पर खेती कर अपनी आजीविका चलाते हैं।
महाराष्ट्र सरकार ने आश्वासन दिया है कि वन भूमि के मालिकाना हक के दावों पर 6 महीने में अंतिम फैसला किया जाएगा। साथ ही जिन किसानों को अपात्र करार दिया गया है, उनके दावे फिर जांचे जाएंगे। जिन किसानों को कम जमीन दी गई है, उन्हें 2006 से पहले जितनी जमीन दी जाएगी। हालांकि विशेषज्ञ इस सरकारी आश्वासन से सहमत नहीं हैं। उन्हें लगता है कि किसान एक बार फिर से ठगे गए हैं। सर्वहारा जन आंदोलन की कार्यकर्ता उलका महाजन के मुताबिक वन अधिकार कानून के इतिहास पर गौर करें तो आदिवासियों को पहले भी यही आश्वासन कई बार दिया जा चुका है लेकिन सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं होने के कारण उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। बता दें, इसी कानून के बनने के बाद आदिवासी उस जमीन के मालिकाना हक के लिए हकदार हो गए जिस पर वे कई पीढिय़ों से खेती करते आए हैं।
भाजपा सरकार ने किसानों की करीब 80 फीसदी मांगों को मान लिया है, लेकिन ये मांगे कब पूरी होंगी इसकी कोई तय समय सीमा नहीं है। ऑल इंडिया किसान सभा के सचिव राजू देसले ने किसानों की इस लड़ाई को आर-पार की लड़ाई बताते हुए बहुत साफ-साफ शब्दों में घोषणा की है कि किसान राज्य सरकार की तथाकथित विकास परियोजनाओं के नाम पर सुपर हाइवे और बुलेट ट्रेन के लिए खेती वाली जमीन नहीं देंगे। यानी सरकार और किसानों के बीच टकराव आगे भी जारी रहेगा।
सर्वहारा जन आंदोलन की कार्यकर्ता उलका महाजन कहती हैं कि वर्ष 2011 में भी रायगढ़, नासिक, धूले और राज्य के अन्य हिस्सों से बड़ी संख्या में आदिवासी मुंबई आए थे। उस समय कांग्रेस सरकार सत्ता में थी और पृथ्वीराज चव्हाण मुख्यमंत्री थे। उन्होंने भी आदिवासियों से उसी तरीके के वादे किए थे जैसा कि वर्तमान सीएम फडणवीस ने किए हैं। यह वादा था कि आदिवासियों को व्यक्तिगत और समुदाय के स्तर पर जंगल के जमीन का स्वामित्व मिलेगा। मार्च 2016 में ऑल इंडिया किसान सभा के बैनर तले 1 लाख किसानों ने दो दिनों तक धरना दिया था। इस धरने के बाद भी फडणवीस सरकार ने वादा किया था कि आदिवासियों को जंगल की जमीन दी जाएगी। लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हुआ। ऐसे में किसान सरकार पर दोबारा भरोसा कर तो गए, लेकिन अगर सरकार ने आनाकानी की तो गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
किसान हैं इस देश का
नया विपक्ष!
जब बीजेपी लगातार एक के बाद एक चुनाव जीत रही है और यह कहा जा रहा है कि अब बीजेपी की सरकार को रोकने या झुकाने की ताकत किसी भी पार्टी में नहीं बची है, वैसी स्थिति में यह अद्भुत संयोग है कि देश के किसान लगातार बीजेपी की सरकारों को झुकने पर मजबूर कर रहे हैं। 2014 में बीजेपी ने किसानों की आत्महत्या समेत कई मुद्दों को अपना मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया था। 2014 के चुनावों के बाद बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनाव में भी किसानों के मुद्दों को आधार बनाकर जबरदस्त चुनावी जीत हासिल की थी। यूपीए सरकार जाने की एक बड़ी वजह किसानों की बदतर होती हालात और बढ़ती आत्महत्याएं थीं। मोदी सरकार के आने के बाद भी किसानों की हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है। पहले मंदसौर फिर सीकर और अब महाराष्ट्र में किसानों ने अपने मुद्दों को लेकर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया है।
-बिन्दु माथुर