16-Mar-2018 09:09 AM
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लोकसभा चुनाव वक्त से पहले होने की अटकलबाजियों के बीच बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया है। राज्य में नीतीश कुमार की अगुआई वाले राजग से एक सदस्यीय विधायक वाली पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने अपना नाता तोड़ लिया है। अब वह लालू प्रसाद यादव के महागठबंधन का हिस्सा होंगे। बिहार की राजनीति में यह शुरुआत भर है। जैसे ही लोकसभा का चुनाव नजदीक आएगा, कुछ और दल भी तोडफ़ोड़ करके अपने गठबंधन से बाहर निकलेंगे। इसका मतलब साफ है कि अगला लोकसभा चुनाव राज्य में दो ध्रुवीय होगा। एक छोर की कमान जहां राजद के हाथ में होगी, वहीं दूसरे गठबंधन की अगुआई भाजपा करेगी। लेकिन जीतन राम मांझी के राजग से अलगाव के अपने मायने हैं। 243 सीटों वाली विधानसभा में बेशक वह अकेले विधायक हैं, लेकिन उनका राजग से बाहर होने के प्रतीकात्मक महत्व हैं।
मांझी का राजनीतिक उदय जिन नीतीश के सहारे हुआ, उन्हीं से उनकी इतनी अदावत बढ़ी कि दोनों के रिश्तों में गहरी खाई बन गई। 2013 में भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी कथित सेक्युलर छवि बरकरार रखने के लिए राजग से नाता तोड़ लिया था। इसके बाद राज्य में राजद के सहयोग से सरकार चलाई। चूंकि लोकसभा चुनावों में नीतीश के जदयू को करारी शिकस्त मिली थी, लिहाजा नीतीश कुमार ने राज्य में नए समीकरण उभारने के मकसद से महादलित जीतन राम मांझी को अपना खड़ाऊं मुख्यमंत्री बना दिया था।
नीतीश को उम्मीद थी कि मांझी उनके इशारे पर काम करेंगे और उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के बाद राज्य के महादलितों में वह अपनी पैठ बना सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मांझी ने नीतीश के इशारों पर चलने से मना कर दिया तो उन्हें मुख्यमंत्री पद छोडऩे का फरमान सुना दिया गया। लेकिन मांझी ने इस्तीफा देने के बजाय विधानसभा में बहुमत साबित करने की ठानी और उसमें नाकाम रहे तो 20 फरवरी 2015 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। तब से उनकी नीतीश से अदावत बनी रही। 2015 के राज्य विधानसभा चुनावों में उन्होंने राजग के साथ चुनाव लड़ा, लेकिन राजद, जदयू, कांग्रेस के महागठबंधन के आगे राजग की हार हुई। मांझी अपनी ही सीट बचा पाए। इसी तरह राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के भी दो ही विधायक जीत सके।
विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भले ही राजद, कांग्रेस और जदयू की सरकार बनी, लेकिन उलटबांसियों से भरी यह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई। राजनीतिक समीक्षक अनुमान लगा रहे थे कि महागठबंधन की सरकार 2017 के दिसंबर तक चल पाएगी, लेकिन उससे करीब पांच महीने पहले ही नीतीश ने राजद से नाता तोड़ लिया और फिर पुरानी सहयोगी भाजपा के साथ हो गए। इसके बाद से ही बिहार राजग में शामिल मांझी असहज हो गए थे। तभी से वह अलग होने का अवसर तलाश रहे थे। राजग से अलग होने के लिए अब भी उनके पास मजबूत आधार तो नहीं मिला है, अलबत्ता बहाना बनाने का मौका जरूर मिल गया। अप्रैल में होने जा रहे राज्यसभा चुनावों के लिए बिहार से छह सीटें खाली हुई हैं। जिनमें दो पर राजद, दो पर जदयू और एक पर भाजपा की जीत तय है। छठी सीट पर पेंच फंसा है।
अगर राज्य कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी ने बगावती रुख छोड़ दिया तो यह सीट कांग्रेस को जा सकती है। हालांकि सत्ताधारी मोर्चे की कोशिश इस सीट को झटकने की है। इन्हीं सीटों में से एक विधायक वाली पार्टी के.अध्यक्ष मांझी अपने लिए एक सीट मांग रहे थे। मांझी जानते थे कि उनके राजनीतिक आधार को देखते हुए यह मांग पूरी नहीं होने वाली है। लिहाजा उन्होंने अलग होने की राह चुनने का बहाना बना लिया। जिस तरह कांग्रेस ने उनका स्वागत किया है, उससे साफ है कि राजद और कांग्रेस मिलकर मांझी को राज्यसभा पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं। अगर ऐसा करने में वे कामयाब रहे तो यह उनकी ओर से नीतीश कुमार को प्रतीकात्मक जवाब होगा, जिसका करीब छह फीसदी महादलित वोटरों को गोलबंद करने की दिशा में जरूर कुछ असर हो सकता है।
राज्य में आने वाले दिनों में कई अन्य नेता पार्टी और गठबंधन बदलते नजर आएंगे। खासकर कांग्रेस और अन्य छोटे दलों में यह भगदड़ और तेज हो सकती है। यह राज्य की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है।
नीतीश की लोकप्रियता बरकरार
यह तय है कि अगले चुनाव में महागठबंधन के लिए यादव, मुस्लिम, कोइरी, महादलित जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की जाएगी। हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों में दिखा कि नीतीश कुमार ने उपेन्द्र कुशवाहा की कोइरी जाति के अधिकांश वोट झटक लिए थे। वैसे बिहार में नीतीश की पलटीबाजी के चलते लोकप्रियता में कमी दिख रही है। स्थानीय प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि राज्य में अगला चुनाव महागठबंधन और भाजपा-जदयू के बीच होगा। हालांकि पढ़े-लिखे वर्ग में नीतीश की लोकप्रियता का एक हिस्सा बरकरार है। इसलिए राजग राहत की सांस ले सकता है, लेकिन जाति पर केंद्रित रही बिहार की राजनीति में मांझी और कुशवाहा जैसे छोटे-छोटे हिस्से महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाएंगे। इसीलिए राजद की अगुआई वाला गठबंधन इन दलों को तोडऩे और नीतीश कुमार को प्रतीकात्मक मात देने की कोशिश में अभी से जुट गया है।
- विनोद बक्सरी