03-Mar-2018 07:11 AM
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हृदय में ज्ञान उदय होने के बाद ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा जी कहते है...
ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द: विग्रह:,
अनादिरादि गोविन्द: सर्व कारण कारणम:।
यानी भगवान तो कृष्ण है, जो सच्चिदानन्द (शास्वत, ज्ञान तथा आनन्द के) स्वरुप है। उनका कोई आदि नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि है। वे समस्त कारणों के कारण है। फिर भी हम उन्हें दर-दी ढूंढ़ते फिरते हैं। दरअसल, आज का संसार प्राय: भोगवादी है। संसार के लोगों की इस संसार के रचयिता को जानने में कोई विशेष रूचि दिखाई नहीं देती। सब सुख चाहते हैं और सुख का पर्याय धन बन गया है। इस धन का प्रयोग मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास, वाहन, यात्रा व बैंक बैलेंस में वृद्धि आदि कार्यों को करने में लगे रहते हैं। इन्द्रियों के सुख के पीछे सभी दौड़ रहे हैं और इसे पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के व्यवहार करते हैं। ऐसा करते हुए लोग ईश्वर व अपनी आत्मा को भुला देते हैं। क्या ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं है? यदि है तो यह बच्चों को पुस्तकों वा विद्यालयों में क्यों पढ़ाया नहीं जाता। इस पर लोग आपस में कभी चर्चा क्यों नहीं करते? एक-दूसरे व विद्वानों के पास जाकर ईश्वर व जीवात्मा विषयक अपनी शंकायें क्यों नहीं बताते और उनके समाधान क्यों नहीं पूछते हैं, ऐसा इस लिये हो रहा है कि आज की बाल-युवा-वृद्ध पीढ़ी इन प्रश्नों को जानना उचित नहीं समझती। उसने विदेशियों से यही सीखा है कि खाओ, पियो और जीवन का आनन्द लो। इसी का अनुसरण करते हुए सभी दिखाई दे रहे हैं। यह वाममार्गी सोच है जो बहुत ही हानिकारक है।
यह एक तथ्य व वास्तविकता है कि संसार में ईश्वर की सत्ता है। उसी ने इस संसार को रचा व बनाया है। यदि वह न होती तो यह संसार कैसे बनता? अर्थात् बन ही नहीं सकता था। जड़ पदार्थ के परमाणु स्वयं नहीं बन सकते और उन परमाणुओं से संसार में विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, लोक लोकान्तर भी स्वयं नहीं बन सकते। जो लोग ऐसा मानते हैं कि यह संसार स्वयं बनता व बिगड़ता है, इसका कारण उनकी अविद्या व अल्पज्ञान है। विद्या तो यही बताती है कि सभी रचनाओं का रचयिता व सभी कृतियों का कत्र्ता अवश्य ही हुआ करता है। दर्शन ग्रन्थ में इन विषयों पर विचार किया गया है और सिद्ध किया गया है कि यह संसार मूल जड़ पदार्थ प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक है, उसके अत्यन्त सूक्ष्म कणों से, जो आंखों से नहीं देखे जा सकते, उनसे परमाणु और अणु आदि बनकर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट बुद्धि व शक्ति से पूर्व कल्पों के अनुसार यह सृष्टि ईश्वर के द्वारा बनाई गई है। सृष्टि रचना का कार्य अपौरुषेय है अर्थात् इस कार्य को मनुष्य अकेले व सभी मिलकर भी नहीं कर सकते। जब सृष्टि को पूर्णतय: जान ही नहीं सकते तो उसकी रचना करने का तो प्रश्न ही नहीं है। प्रकृति के सत्व, रज व तम गुण वाले सूक्ष्म कणों को जब देखा ही नहीं जा सकता तो उनसे सृष्टि निर्माण करना तो मनुष्यों के लिए कदापि सम्भव हो ही नहीं सकता। अत: यह सृष्टि एक ऐसी सत्ता ने बनाई है कि जो सत्य व चित्त सहित आनन्द गुणों से युक्त है। इन गुणों के कारण ही उसे सच्चिदानन्द कहते हैं। वह सत्ता निराकार, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, पवित्र ही हो सकती है। यही ईश्वर का सत्यस्वरूप है। ईश्वर के इस सत्यस्वरूप पर सभी मनुष्यों वा मत-मतान्तरों के आचार्यों व अनुयायियों को एकमत होना चाहिये परन्तु अपनी-अपनी अविद्या व स्वार्थों के कारण वह इस तर्क एवं युक्तिसंगत सिद्धान्त के प्रति अपनी निष्ठा व विश्वास प्रदर्शित नहीं करते। इसे हम वर्तमान युग का आश्चर्य ही कह सकते हैं।
ईश्वर का होना इस लिए आवश्यक है कि सृष्टि का निर्माण व मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म, उनकी मृत्यु व पुनर्जन्म की व्यवस्था, उनके कर्म फलों का ज्ञान व उसके अनुसार उन्हें भोग प्रदान करना, सृष्टि का पालन करना व सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करना आदि इन कार्यों को ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। अत: ईश्वर का होना व इन गुणों व कार्यों को इस सृष्टि में करने वाली सत्ता को ही ईश्वर कहते हैं। ऋषि दयानन्द सरस्वती जी वेदों के विद्वान थे और वह अपूर्व तार्किक, सत्यान्वेषी, साधक और सत्य को ग्रहण व असत्य का त्याग करने वाले महापुरुष थे। उन्होंने अपने ज्ञान व अनुभव सहित वेद व ऋषियों द्वारा रचित सत्य वैदिक साहित्य के आधार पर ईश्वर की एक परिभाषा दी है। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। उसी ईश्वर की उपासना करनी सब मनुष्यों को योग्य व आवश्यक है।
जीवात्मा के गुणों वा स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि जीवों में यह गुण विद्यमान हैं यथा पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, दु:खादि की अनिच्छा, वैर, पुरुषार्थ, बल, सुख वा आनन्द, दु:ख, विवेक ज्ञान, प्राणवायु को बाहर निकालना, प्राण को बाहर से भीतर को लेना, आंख को मींचना, आंख को खोलना, प्राण को धारण करना, निश्चय स्मरण और अहंकार करना, गति, सब इन्द्रियों को चलाना, भूख, प्यास, हर्ष व शोकादियुक्त होना। जीवात्मा के इन गुणों से आत्मा की प्रतीती करनी। आत्मा स्थूल नहीं अपितु सूक्ष्म है, यह स्मरण रखना चाहिये। ऋषि यह भी लिखते हैं कि जब तक आत्मा शरीर में होती है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ चला जाता है तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों और न होने से न हों वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशदि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का ज्ञान गुणों के द्वारा होता है। संक्षेप में हम यह भी कह सकते हैं कि जीवात्मा सत्, चित्त, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, पवित्र स्वभाव वाली, एकदेशी, अल्प, अल्पज्ञ, ससीम, जन्म-मरण में बन्धा हुआ, कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन वा परतन्त्र है। मनुष्य योनि में मृत्यु होने के बाद इसका पुनर्जन्म अवश्य होता है। सन्ध्या, स्वाध्याय, यज्ञ-अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मों को करके यह मोक्ष को भी प्राप्त होता है।
द्यओम