अहिंदÓ बनाम हिंदुत्वÓ
03-Mar-2018 09:04 AM 1234791
इस गर्मी के मौसम में कांग्रेस पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। कर्नाटक में अपना आखिरी बड़ा सियासी गढ़ बचाए रखने की। इसके लिए अभी से सियासी चालें चली जाने लगी हैं। राज्य में चुनावी तैयारियों के बीच लोगों की धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाने का जतन शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो या भाजपा अध्यक्ष अमित शाह या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सभी धर्म की आड़ लेकर राजनीतिक मुहरंे बिठा रहे हैं। दोनों पार्टियों के नेताओं की नजर हिन्दुवादी और अहिंद (अल्पसंख्यक, हिंदू पिछड़ा वर्ग और दलित) वोटों पर है। इसलिए वे कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहते जिससे दूसरे वर्ग को ठेस पहुंचे। वह इसलिए भी कि अन्य राज्यों में भी दोनों वर्गों को साधने की यह राजनीति कारगर सिद्ध होगी। 2019 का लोकसभा चुनाव होने में एक साल से थोड़ा ही ज्यादा समय बचा है। लिहाजा, सभी राजनीतिक दल इसकी तैयारियों में जुट गए हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी 15 फरवरी को बाइक रैली कर हरियाणा के जींद से 2019 की लड़ाई का आगाज कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 16 फरवरी को नई दिल्ली में स्कूली बच्चों से परीक्षा पर चर्चा कर नए वोटरों को साधने की कोशिश की है मगर यह बड़ा सवाल है कि क्या 2014 की प्रचंड जीत नरेंद्र मोदी 2019 में भी दोहरा पाएंगे। मौजूदा राजनीतिक हालात से तो यह नहीं झलकता है कि 2019 की राह भाजपा और टीम मोदी के लिए आसान होगी। 2014 में छह बड़े राज्यों की कुल 248 सीटों पर एनडीए को 224 सीटें मिली थीं लेकिन वहां भी सियासी डगर कठिन लगती है। पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गृह राज्य गुजरात में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में बमुश्किल भाजपा की बादशाहत बरकरार रही। 2012 के मुकाबले भाजपा को 17 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और 182 सदस्यों वाली विधानसभा में मात्र 99 सीटें ही जीत पाई। हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात की सभी 26 संसदीय सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। यानी साफ है कि 2014 की मोदी लहर 2017 तक आते-आते गुजरात में कमजोर पड़ चुकी है। अब मोदी-शाह की जोड़ी उस लहर को कैसे फिर से जगा पाएंगे, कहना मुश्किल लगता है। राजस्थान में हाल ही में हुए उप चुनाव ने जाहिर कर दिया कि वहां भी भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है। दो संसदीय और एक विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। हालात ऐसे हैं कि राज्य भाजपा में ही दो फाड़ है और केंद्रीय नेतृत्व से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की मांग की जा रही है। इस साल के अंत तक यहां विधानसभा चुनाव भी होने हैं। 2014 के लोकसभा में राजस्थान की सभी 25 सीटें भाजपा को मिली थीं लेकिन अब वसुंधरा सरकार के खिलाफ उपजे असंतोष और मोदी सरकार के खिलाफ बनी हवा 2019 में मोदी राज की वापसी में अड़ंगे डाल सकता है। इधर, कांग्रेस पहले से मजबूत स्थिति में आई है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में करीब साल भर पहले तक भाजपा की लहर थी। विधानसभा में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो राजनीतिक वनवास खत्म करते हुए पार्टी ने योगी को सीएम बनाया। मगर देश में बनते-बिगड़ते सियासी समीकरण और दलित-मुस्लिम विरोधी होने का भाजपा पर लगता ठप्पा भाजपा के लिए साल 2019 की राह में रोड़ा अटका सकता है। 2014 में यहां की 80 लोकसभा सीटों में से 73 भाजपा और सहयोगियों की झोली में गई थी। अगले साल होने वाले संसदीय चुनावों में योगी सरकार का कामकाज, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और गैर भाजपाई-गैर कांग्रेसी राजनीतिक समीकरण अहम भूमिका निभा सकता है। वैसे अगले महीने होने वाले फुलपुर और गोरखपुर संसदीय उप चुनाव में 2019 की झलक दिखाई दे सकती है। इन दोनों सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। राजनीतिक रूप से उर्वर रहे बिहार में राजद अध्यक्ष लालू यादव के जेल में रहने से सियासी समीकरण नया रूप ले सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव का समीकरण टूट सकता है। एनडीए से राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले रामविलास पासवान, केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी अलग हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हालांकि, नीतीश पहले ही राजद का साथ छोड़कर एनडीए में शामिल हो चुके हैं। इससे जदयू के कुछ बागी राजद की तरफ भी जा सकते हैं। जातीय गोलबंदी फिर से होने लगी है। बता दें कि 2014 के चुनावों में बिहार की 40 सीटों में से 31 पर भाजपा और सहयोगी दलों की जीत हुई थी। मध्य प्रदेश में भी इस साल के आखिर तक विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां भी शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी फैक्टर हावी है। लिहाजा माना जा रहा है कि वहां भी भाजपा के लिए राह 2014 के मुकाबले आसान नहीं होगी। बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 29 में से 27 सीटें मिली थीं। वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया है। ऐसे में वहां भाजपा के लिए 2019 का रण जीतना आसान नहीं होगा। 2014 में एनडीए को 48 में से 42 सीटें मिली थीं। इनमें से 18 पर शिवसेना की जीत हुई थी। शिवसेना के अलग होने से 2019 का राजनीतिक परिदृश्य अलग हो सकता है। इसके अलावा शरद पवार अगर कांग्रेस से समझौता करते हैं तो मुकाबला और कड़ा हो सकता है। देवेंद्र फड़णवीस सरकार का कामकाज भी अहम रोल अदा करेगा। उन पर मराठा सेंटिमेंट के आरोप लगते रहे हैं। कांग्रेस अहिंद वोटों की भी गिनती कर रही है जहां तक कांग्रेस का ताल्लुक है तो कर्नाटक में उसकी प्रतिष्ठा कहीं ज्यादा दांव पर लगी है। जाहिर तौर पर उसके दो कारण हैं। एक- पार्टी अभी वहां सरकार चला रही है। इसलिए चुनाव में वोटिंग भी सीधे तौर पर उसके कामकाज पर होगी। दूसरी बात- पंजाब को छोड़कर कर्नाटक इकलौता ऐसा बड़ा राज्य है जहां कांग्रेस सत्ता में है। यहां से उसकी हार का मतलब उसकी प्रतिष्ठा को बड़ा झटका होगा। इस दोहरे दबाव के बावज़ूद कांग्रेस को लगता है कि उसकी स्थिति कर्नाटक में भाजपा से बेहतर है। इसके क्या कारण हो सकते हैं? पार्टी के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गुंडू राव कहते हैं, मजबूत नेतृत्व, स्थिर सरकार और कोई घोटाला नहीं। इससे भी बड़ी बात। हमने जो वादा किया उसे पूरा किया। पिछले चुनाव के वक्त हमने घोषणा पत्र में 165 वादे किए थे। इनमें से 156 अब तक पूरे हो चुके हैं।Ó समाज विज्ञानी एआर वसावी भी बताती हैं, सरकार ने ऐसे विभागों के काम करने के तौर-तरीकों में खास सुधार किया है जो सीधे लोगों से जुड़ते हैं। जो समाज कल्याण की योजनाओं और उनके कार्यान्वयन से संबंधित हैं जैसे- समाज कल्याण, खाद्य, पंचायत, महिला एवं बाल विकास आदि। भाजपा के लिए मोदी और हिंदुत्व का सहारा भाजपा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदुत्व का सहारा है। उसके नेता इस तथ्य को भी ध्यान में रख रहे हैं कि 1985 के बाद से कर्नाटक की जनता ने किसी पार्टी की सरकार को लगातार दूसरी बार मौका नहीं दिया। इसके अलावा उन्हें यह भी भरोसा है कि खास तौर पर लिंगायत जैसी ऊंची जातियों में जो पार्टी का जनाधार है वह बरकरार रहेगा। हालांकि लिंगायत समुदाय में अलग धर्म की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को लेकर कुछ चिंता भी है। लेकिन ज्यादातर भाजपा नेताओं का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के आगे ये चिंताएं धराशायी हो जाएंगी। अहिंद वोटों पर सबकी नजर देश में अहिंद कांग्रेस के परंपरागत सामाजिक वोट बैंक थे। लेकिन धीरे-धीरे यह वर्ग उनके हाथों से निकलता गया। आज आलम यह है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस वर्ग को साधने के लिए न केवल प्रयास किया है बल्कि इस वर्ग को भी कई टुकड़ों में बांट दिया है। कर्नाटक हो या महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान या अन्य कोई राज्य हर जगह इस वर्ग को बड़ा वोट बैंक माना जाता है। यह वोट बैंक किसी भी पार्टी की जीत हार को तय करता है। - दिल्ली से रेणु आगाल
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