स्त्री की आजादी में धर्म का दखल
03-Mar-2018 08:57 AM 1234913
जहां स्त्री अपनी मरजी की जिंदगी जीना चाहती है, वहीं धर्म से संचालित होने वाला समाज उसकी मरजी को बुरा मानता है। अगर वह शादी नहीं करती, तो यह सामाजिक और धार्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन माना जाता है, क्योंकि धर्म ने वैवाहिक नाम की संस्था को हाईजैक कर लिया है। इसलिए अगर कोई लड़की अपनी मरजी से शादी न करने का निर्णय लेती है या लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है अथवा संतान पैदा नहीं करना चाहती, तो यह सीधे-सीधे धर्म का उल्लंघन माना जाता है। शादी एक पर्सनल चीज है और यह पूरी जिंदगी का समझौता भी है। आज भी शादी से स्त्री की आजादी छिन जाती है। उसकी पर्सनल स्पेस कम हो जाती है और तो और घर की सारी जिम्मेदारियां उसी के जिम्मे डाल दी जाती हैं। इसलिए वह शादी के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने लगी है। नई जैनरेशन अधिक बोल्ड हो गई है। वह कोई भी निर्णय लेने से नहीं डरती। यही कारण है कि जैसे-जैसे लड़कियां इंडिपेंडेंट हो रही हैं वे ज्यादती बरदाश्त नहीं कर रही हैं। लेकिन आज भी स्त्री अपनी मनमरजी से नहीं जी सकती। धर्म उसकी आजादी में पाबंदी लगाना चाहता है। एक युवती का समाज सम्मान तभी करता है जब वह धार्मिक रीति रिवाजों से, पंडित के मंत्रों द्वारा अग्नि के सामने किसी युवक के साथ 7 फेरे लेकर उसकी जीवन संगिनी बनती है। उसके बाद वह संतान प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं से विनती करती है। अपने सुखी वैवाहिक जीवन की कामना करती है। मंदिरों, तीर्थ स्थलों में जाती है। इससे पहले वह वर प्राप्ति के लिए व्रत, पूजा करती है। शादी के बाद पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है। इसके अलावा और कई तरह के हवन यज्ञ करवाती है, बाबाओं की शरण में जाती है। सुखी गृहस्थ जीवन के लिए तभी वह पूर्ण सम्मानित स्त्री मानी जाती है। आज की युवतियां जो अपनी मरजी धर्मरहित आधुनिक जीवन जीना चाह रही हैं, उसके चलते वे समाज की नजरों में सम्मान के काबिल नहीं रह गईं। धर्म स्त्री की मरजी पर सदियों से पाबंदी लगाता आ रहा है। आज सिंगल वूमन जिस तरह से रहना चाहती है वह धार्मिक, सामाजिक सत्ता का खुला उल्लंघन है। इसीलिए धर्म के ठेकेदार उसके प्यार करने, पहनने-ओढऩे, खाने-पीने, पढऩे-लिखने जैसे नितांत निजी फैसलों पर अपने फतवे जारी करते रहते हैं। समाज में शादी को पवित्र संस्था समझा जाता है। भले ही शादी बुरी साबित हो। स्त्री की सफलता का पैमाना उसके कैरियर की उपलब्धियों को नहीं, बल्कि सफल वैवाहिक जीवन को माना जाता है। समाज न सिंगल रहने वाली लड़की को आसानी से स्वीकार कर पाता है और न ही पुरुष को। दोनों को ही हजारों सवालों का सामना करना पड़ता है। यह सही है कि समाज की सुविधा के लिए शादी करना जरूरी है, लेकिन जो शादी नहीं करना चाहते उन्हें इसकी आजादी भी होनी चाहिए। किसी भी अविवाहित व्यक्ति को अकेला क्यों समझा जाता है? क्या सिर्फ पति-पत्नी बनने से ही रिश्ते बनते हैं? बाकी सभी रिश्ते गौण होते हैं? अगर पेरैंट्स का पूरा सहयोग हो, एक बेहतरीन कैरियर हो, अपने फैसले पर आप को पूरा यकीन हो, स्ट्रौंग पर्सनैलिटी हो और ऐसे फ्रैंड्स हों, जो जिंदगी के हर मोड़ पर आप के साथ खड़े हों, तो अविवाहित व्यक्ति खुद को कभी अकेला महसूस नहीं करेगा। शादी न करने का फैसला अचानक लिया गया फैसला नहीं होता है। बचपन से ही लड़की को उसके परिवार द्वारा यह शिक्षा दी जाती है कि किसी गलत बात पर दबना नहीं चाहिए और जब तक अपने पैरों पर खड़ी न हो जाओ तब तक शादी नहीं करनी चाहिए। ऐसा करते-करते समय बीतता जाता है और फिर आप के स्टेटस का लड़का मिलना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा लड़की जब अपने परिवार में मां, बुआ और बहन को पुरुष यंत्रणा का शिकार होते देखती है या बात-बात पर पति या पिता को यह कहते सुनती है कि मेरे घर से निकल जाओ, तो बचपन से ही उसके मन में यह बात बैठ जाती है कि उसे इस सब का शिकार नहीं होना है। उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है। किसी के आगे नहीं झुकना है। महिलाओं को सशक्त बनाना जरूरी आज के समय में लगभग हर जगह चाहे वह गांव हो या शहर हर जगह महिला सशक्तिकरण पर चर्चा हो रही है, लेकिन इसके वास्तविक मायने कितने लोग समझ पाते हैं यह कहना मुश्किल है। हमारे भारतीय समाज में इसकी कितनी मान्यता मिल रही है, यह अनुसंधान करना बेहद कठिन है, हालांकि हमारे भारतीय समाज में महिलाओं की अवस्था में काफी सुधार हुआ है लेकिन जिस तरह स्वस्थ रूप से सुधार की कल्पना की जाती है, सुधार हो सकता था वैसा सुधार नहीं हुआ है, आने वाले समय में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। -ज्योत्सना अनूप यादव
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