घर बाहर के बीच
17-Feb-2018 09:40 AM 1234905
घरेलू भूमिकाओं को छोड़ कर अध्यापन, बैंकिंग, आईटी और पत्रकारिता जैसे पेशों में महिलाओं की मौजूदगी देखी जा सकती है, लेकिन नौकरी हो या व्यवसाय, दोनों क्षेत्रों में अभी लगता है कि खुद महिलाओं में कोई हिचक है। भले उनसे अपेक्षा है कि वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर काम करें, पर कई काम-धंधे हैं, जहां महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है। यह बेवजह नहीं है। इसके पीछे सामाजिक दबाव हैं, असुरक्षा का माहौल है। इसी के मद्देनजर हाल में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने दफ्तरों में यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने की एक व्यवस्था- शी बॉक्स के जरिए बनाई है। दरअसल, कामकाज की स्थितियां स्त्रियों को नहीं, बल्कि पुरुषों को ध्यान में रख कर बनाई गई हैं। ऐसे में चाह कर भी महिलाएं कई नौकरियों और बिजनेस में नहीं आती हैं और अगर आती भी हैं, तो वहां ज्यादा टिकती नहीं हैं। इस संदर्भ में एक छोटी पहल हुई है। पिछले साल, दिल्ली स्थित पर्सनल केयर उत्पाद बनाने वाली एक कंपनी ने महिलाकर्मियों के लिए एक खास छुट्टी का प्रावधान किया था। इस कंपनी ने महीने में दो दिन ऐसी छुट्टियां महिला कर्मचारी को देने की नीति बनाई, जब वे मासिक चक्र से गुजर रही हों। भारत में ऐसी व्यवस्था करने वाली यह पहली कंपनी मानी गई, हालांकि दुनिया में भी कुछ ही विकसित देशों में ऐसे प्रावधान हैं। उल्लेखनीय है कि विश्व स्तर पर इन छुट्टियों का प्रावधान सबसे पहले जापान में 1947 में किया गया था, जो बाद में दक्षिण कोरिया, ताइवान और इंडोनेशिया जैसे कुछ देशों में कुछ कंपनियों द्वारा अपनाया गया। महिला कर्मचारियों की जरूरतों में सबसे बड़ी मुश्किल तब आती है, जब वे विवाह करके अपना घर बसाती हैं और मातृत्व की ओर बढ़ती हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में ही नहीं, अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी स्त्रियों का रोजगार- खासकर किसी अच्छी कंपनी में नौकरी इस कारण खतरे में पड़ जाती है। वहां भी युवावस्था में नौकरी शुरू करने वाली स्त्रियां विवाह और मातृत्व के वक्त जब लंबी छुट्टियां लेती हैं तो इसकी गारंटी नहीं होती कि वे नौकरी में वापस आ पाएंगी। अगर वे लौटती हैं तो एक पिछड़ेपन के साथ। यानी या तो वे अपने ही सहकर्मियों से करिअर की रेस में पिछड़ जाती हैं या फिर उन्हें मातृत्व की अपनी योजना को लंबे समय तक टालना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि नौकरी या अध्ययन के दौरान मातृत्व से जुड़े सवालों पर भारत में भी कुछ दुविधाएं प्रकट होती रही हैं, जिन पर अदालत को दखल देना पड़ा है। सात साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी की दो विवाहित गर्भवती छात्राओं की याचिका पर दिए अपने फैसले में हाजिरी से छूट देने का आदेश दिया था। गर्भधारण के कारण इन छात्राओं की उपस्थिति निर्धारित संख्या से कम रह गई थी और कॉलेज ने उन्हें परीक्षा में बैठने से रोक दिया था। इस पर अदालत ने कहा था कि ऐसी छात्राओं को हाजिरी में छूट न देना संविधान की मूल भावना और महिला अधिकारों का उल्लंघन है। ऐसी ही एक पहलकदमी तीन साल पहले तब हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि केंद्र सरकार की महिला कर्मचारी अपने नाबालिग बच्चों की देखभाल के लिए दो साल की छुट्टी ले सकती है। उल्लेखनीय है कि छठे वेतन आयोग ने ऐसी ही छुट्टी की सिफारिश की थी। दिल्ली समेत कुछ राज्यों के सरकारी दफ्तरों और कॉलेज-यूनिवर्सिटियों में महिलाएं ऐसे अवकाश का लाभ उठा रही हैं। पर ये सारी सुविधाएं सिर्फ सरकारी महिला कर्मियों को हासिल हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर (जैसे टाटा, टेक महिंद्रा, आइसीआइसीआई बैंक आदि, जहां करीब बीस फीसदी नौकरियां उन महिलाओं के लिए सुरक्षित की जा रही हैं, जिन्होंने मातृत्व कारणों से लंबा अवकाश लिया था) निजी क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियों में मातृत्व के लिए अवकाश का सीधा अर्थ घर बैठ जाना है, क्योंकि नियोक्ता इतनी लंबी अवधि तक महिला कर्मचारी की अनुपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। यही वजह है कि मातृत्व की ओर बढऩे वाली निजी क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं नौकरी छोडऩा ही बेहतर समझती हैं। नौकरीशुदा महिलाओं के सामने कई समस्याएं यों लगभग पूरी दुनिया में किसी भी कंपनी में काम करते हुए करिअर के साथ बच्चे को जन्म देना और उसका पालन-पोषण करना एक बेहद मुश्किल काम है। विकासशील देशों में तो ज्यादातर छोटी कंपनियों में किसी महिला के लिए मातृत्व का मतलब आमतौर पर अपने करिअर की तिलांजलि देना ही होता है। गर्भधारण करने की स्थिति में महिलाओं के करिअर में कई बाधाएं हैं, अगर वह पूरी तरह खत्म नहीं होता तो वे अक्सर अपने ही सहकर्मियों से पिछड़ जाती हैं और योग्यताएं होते हुए भी वे किसी कंपनी में उन शीर्ष पदों पर नहीं पहुंच पाती हैं, जिनके लिए वे पूरी तरह सक्षम होती हैं। बड़ी कंपनियों के लिए भी महिला कर्मचारियों द्वारा अपना परिवार बढ़ाने का कदम काफी मुश्किलें खड़े करता है। उनका संकट यह है कि या तो वे ऐसी महिला कर्मचारी हमेशा के लिए खो देती हैं, जिन पर उन्होंने भारी-भरकम निवेश किया होता है। -ज्योत्सना अनूप यादव
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