03-Mar-2018 08:54 AM
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मप्र की एक बड़ी आबादी के लिए मनरेगा रोजगार का बड़ा साधन है। लेकिन पिछले कुछ सालों से मनरेगा में भ्रष्टाचार ने लोगों की रोजी-रोटी छीन ली है। उस पर इस बार सूखे की दस्तक के कारण प्रदेश के डेढ़ दर्जन जिलों में खेती-किसानी पर भी संकट मंडराने लगा है। ऐसे में लोगों के लिए राहत की उम्मीद यह जगी है कि केंद्र ने मनरेगा में मजदूरी दिवस 150 दिन कर दिया है। इसके बावजूद आदिवासी और दलित बहुल जिलों में मजदूर पिछले कुछ दिनों से पलायन कर रहे हैं। यह सिलसिला अभी भी जारी है। दरअसल, इन जिलों में बेरोजगारी बड़ी समस्या है। उस पर मनरेगा के तहत काम नहीं मिल रहा है। इसलिए यहां के मजदूर दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं।
सूखे के हालात देखते हुए मनरेगा योजना के तहत जिन 18 जिलों में मजदूरी के दिवस अब 150 दिन किए गए हैं, उनमें अशोकनगर, भिंड, छतरपुर, दमोह, ग्वालियर, पन्ना, सागर, सतना, शिवपुरी, सीधी, टीकमगढ़, विदिशा, शाजापुर, मुरैना, दतिया, श्योपुर, शहडोल और उमरिया शामिल हैं। हालांकि मजदूरी दिवस बढ़ाना अच्छा कदम है, लेकिन योजना में मजदूरों को प्रतिदिन 172 रुपए के मान से ही भुगतान होता है, जबकि बाहर खुले में दिहाड़ी मजदूरी पर अकुशल मजदूर को भी 300 से 350 रुपए प्रतिदिन मिल जाते हैं। ऊपर से दिहाड़ी मजदूरी में शाम को भुगतान मिलता है, जबकि मनरेगा में सात दिवस में भुगतान होता है। यही कारण है कि जिले में मनरेगा मजदूरों को थाम नहीं पा रही है। विशेष बात यह है कि मध्यप्रदेश में मनरेगा की मजदूरी पड़ोसी राज्य राजस्थान से भी कम है, वहां 192 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं। यही कारण है कि सूखे के हालातों के बीच मनरेगा में न तो मजदूरों को आर्थिक संबल दे पा रही है और न ही पलायन रोक पा रही है। हालांकि प्रशासन योजना के तहत इन जिलों की सभी पंचायतों में काम जारी रखने की बात तो कहता है, लेकिन योजना में अल्प मेहनताना और फिर सात दिवस बाद मजदूरी का भुगतान ग्रामीणों और मजदूरों को रास नहीं आ रहा है, यही कारण है कि लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं।
सूखाग्रस्त घोषित हो चुके जिलों में मनरेगा के अंतर्गत हजारों काम चल रहे हैं इन कामों के जरिए किसान-मजदूर और जरूरतमंदों को काम देकर भरण पोषण करने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन इस सरकारी प्रयास को सरपंच और सचिवों ने पलीता लगा दिया है। स्थिति यह है कि खेतिहर-मजदूरों की जानकारी में लाए बिना ही बैंक में खाते खोलकर पैसा निकाल लिया। मजदूरों की शिकायत के बाद यह गोलमाल सामने आया है। ग्वालियर जिले के पथरीले और अभाव ग्रस्त क्षेत्र घाटीगांव के आदिवासी समुदाय के मजदूरों ने करहिया स्थित स्टेट बैंक में उनके नाम से खाता खुलवाकर प्रति मजदूर 1032 रुपए मजदूरी निकाली गई है जबकि मजदूरों का कहना है कि उनमें से किसी ने गांव में मजदूरी नहीं की है। इस मामले की शिकायत होने के बाद अब जिला पंचायत के अधिकारी पूरे मामले की तह तक जाने में जुटे हैं। सूखे के कारण खेती किसानी में नुकसान उठा रहे ग्रामीणों को रोजगार के लिए मनरेगा योजना चल रही है लेकिन, कागजों में। गांवों में मनरेगा के काम ठप पड़े हैं, रोजगार न मिलने के कारण ग्रामीण शहरों में पलायन कर रहे हैं लेकिन, किसानों को शहर में भी मजदूरी नहीं मिल रही है। ऐसे में प्रदेश के मजदूरों के सामने बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। चुनावी वर्ष होने के बावजूद इन्हें राहत मिलती नजर नहीं आ रही है।
दिखावा साबित हो रही है मनरेगा
हर मजदूर को उसके गांव में ही काम की गारंटी देने वाला अधिनियम मनरेगा कई जिलों में दिखावा साबित हो रहा है। डिमांड वेस पर संचालित इस योजना में पंचायतें काम की मांग नहीं कर रही है जिससे मजदूरों को काम नही मिल रहा है। एक वर्ष में मजदूरों को कम से कम 100 दिन के रोजगार की गारंटी इस अधिनियम में है। सूखा ग्रस्त घोषित होने के बाद यह गारंटी 100 से बढ़कर 150 दिन हो गई है। कागजों में मजदूरों को काम देने की योजना कितने भी दिन बढ़ गई हो लेकिन, धरातल पर आज मजदूर काम के लिए परेशान हैं। काम की तलाश में शहर आने वाले मजदूर ठेकेदारों के शोषण का शिकार भी हो रहे हैं। भवन सह निर्माण मजदूरों के लिए दैनिक मजदूरी 300 रुपए रोज तय है लेकिन ठेकेदार मौके पर लाभ उठाकर इन्हें 200 एवं 250 रुपए में ही मजदूरी करवा रहे हैं। यही हाल कुशल श्रमिकों का है। मकान बनाने में दक्ष कारीगरों का रेट 500 रुपए प्रतिदिन है इन्हें भी 300 व 400 रुपए रोज में मजदूरी करनी पड़ रही है। जो मजदूर कम दर पर जाने को तैयार नहीं है उन्हें शहर से बिना काम के वापस लौटना पड़ता है।
- बिन्दु माथुर