03-Mar-2018 08:28 AM
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मप्र में सरकार वनक्षेत्र के विस्तार के लिए प्रयासरत हैं और इसके लिए वनवासियों को हाशिए पर खड़ा कर दिया गया है। उसके बाद भी प्रदेश में वनक्षेत्र कम होते जा रहे हैं। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में भले ही पिछले दो साल में 6778 वर्ग किमी इलाके में फॉरेस्ट कवर बढ़ गया हो, लेकिन मध्यप्रदेश में इसके उलट 12 वर्ग किमी में फॉरेस्ट कवर यानी जंगल पूरी तरह खत्म हो गया है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से जारी एफएसआई रिपोर्ट 2017 में यह तस्वीर सामने आई है। रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से 2017 के बीच प्रदेश में 289 वर्ग किमी क्षेत्र से डेंस फॉरेस्ट घटा है। इसमें 23 वर्ग किमी अतिसघन वन क्षेत्र और 266 वर्ग किमी मध्यम सघन वन क्षेत्र शामिल है। इसी दौरान ओपन फॉरेस्ट में 277 वर्ग किमी का इजाफा हुआ है। जाहिर है कि पेड़ों की संख्या काफी कम हो जाने के कारण घना जंगल खुले वन में तब्दील हो गया है। इससे वन विकास निगम (एफडीसी) की कार्यप्रणाली भी सवालों के घेरे में है।
वन विकास निगम (एफडीसी) की कार्यप्रणाली ने जंगल और वनवासियों के बीच दीवार खड़ी कर दी है। इससे दोनों के बीच लगातार संघर्ष तेज होते जा रहे हैं। 1970 के दशक में देश के कई राज्यों में एफडीसी का गठन किया गया। इनका गठन राज्य में वनों की उत्पादकता बढ़ाना और वनोपज का वाणिज्यिक उपयोग करने के लिए किया गया था। क्या वन विकास निगम वर्तमान में गौण हो गए हैं? क्या उनकी उपयोगिता कम हो रही है? ये ऐसे यक्ष सवाल हैं जिससे निगम अपने गठन के बाद से ही जूझ रहा है। निगम की कार्यप्रणाली ने जंगल और वनवासियों के बीच दीवार खड़ी कर दी है। इससे दोनों के बीच लगातार संघर्ष तेज होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वनों का संरक्षण ठीक से नहीं हो पा रहा है। प्रदेश में हर साल जीते-जागते, हरे-भरे जंगलों को बेरहमी से काट देते हैं और उसकी जगह पर पौधारोपण कर कहते हैं, हम नया जंगल लगा रहे हैं। कुछ समय बाद ये पौधे भी मुरझा जाते हैं। क्योंकि इन्हें लगाकर भूल जाया जाता है। इनकी देखरेख नहीं की जाती है। इसके बाद बची रह जाती है खाली जमीन। भारत में वनों पर नियंत्रण के लिए सालों से एक सतत संघर्ष जारी है। इस संघर्ष में एक तरफ वन समुदाय और पर्यावरणविद हैं, जबकि दूसरी तरफ सरकार के स्वामित्व वाले एफडीसी और निजी खिलाड़ी, जो औद्योगिक बागानों के लिए जंगल का अधिग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। मप्र सहित देश के आधा दर्जन से अधिक राज्यों में निगम के खिलाफ स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष चल रहा है।
जंगल कहीं खो नहीं गए बल्कि वास्तविकता यह है कि जंगल लगाए ही नहीं गए। मध्य प्रदेश के सीधी जिले के पडरा गांव के पूर्व फॉरेस्ट गार्ड रहे चंद्रभान पांडे बताते हैं, मैंने अपनी 32 साल की नौकरी में कभी नहीं देखा कि कहीं नए जंगल लगाए जा रहे हों। बस खानापूर्ति के लिए कभी-कभार स्कूली बच्चों को लाकर कुछ पौधे रोप दिए जाते हैं। वह कहते हैं, जंगल कैसे नहीं गायब हो जाएंगे? आखिर उनके रखवालों को (आदिवासी) सरकार ने जंगल से ही हकाल दिया, यह कहकर कि वे जंगल के रक्षक नहीं भक्षक हैं। जबकि हकीकत यह है कि आदिवासी सैकड़ों सालों से जंगलों के रक्षक बने हुए हैं। जंगल उनके डीएनए में है। वे जंगल को इस तरह से काटते हैं कि वह और बढ़ता है, जबकि हमारे जैसे लोग केवल नौकरी बचाने के लिए जंगल बचाने का कथित काम करते हैं, वनकर्मी जैसा बन पड़ा आरा-तिरछा काट कर एक बार में ही पेड़ को जड़ से नष्ट कर देते हैं।
मध्य प्रदेश के पूर्व उप वन संरक्षक सुदेश वाघमारे बताते हैं, निगम खराब वनों की जगह अच्छे वन लगाने के नाम पर प्राकृतिक वनों को काट देता है। लेकिन इसके बाद वह काफी समय तक उसकी ओर ध्यान नहीं देता। इससे स्थानीय पारिस्थिति की बुरी तरह से प्रभावित होती है।
मूल्यांकन प्रणाली जरूरी
अक्टूबर, 2013 में मध्य प्रदेश एफडीसी ने वैकल्पिक मॉडल पर चर्चा करने के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया था। जिसमें सुझाव आए कि किसानों को एफडीसी परियोजना क्षेत्रों के आसपास बंजर भूमि पर वानिकी करने के लिए सहयोग देना चाहिए। इसके अलावा यह भी सुझाव था कि बेहतर निवेश के लिए निजी क्षेत्र के साथ बातचीत की जा सकती है। इन दोनों अहम सुझावों पर विचार किया जा सकता है। यही नहीं बेहतर उत्पादन प्राप्त करने के लिए सरकार वर्तमान में मौजूदा एफडीसी बागानों को निजी क्षेत्र में सौंपने पर विचार कर सकती है। राज्य में कृषि वानिकी की सफलता से प्रेरित होकर आंध्र प्रदेश एफडीसी ने अपने पौधारोपण में मृदा और जल संरक्षण के उपाय करने का प्रयास किया है। जबकि एफडीसी अधिकारियों का दावा है कि इन उपायों के उपयोग से उच्च उत्पादकता और बेहतर परिणाम हासिल किया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को प्राकृतिक वनों को खत्म कर एफडीसी द्वारा किए जा रहे।
-बृजेश साहू