03-Mar-2018 08:17 AM
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दिल्ली में जिस तरह से आम आदमी पार्टी की सरकार और नौकरशाही के बीच शर्मनाक तरीके से जंग चल रही है वो एक बार फिर अरविंद केजरीवाल की टकराव वाली राजनीति की ओर इशारा कर रही है। ये केजरीवाल का अपना विशेष तरीका है जिसे वो वक्त-वक्त पर आजमाते चले आए हैं। लेकिन इस तरह की राजनीति के अपने जोखिम हैं। केजरीवाल ने जिस तरह से अपने विशेष टकराव वाले स्टाइल से राजनीति की बुलंदियां हासिल की वो ही खास स्टाइल आज उनके और उनके दल के नेताओं की राजनीति को मटियामेट कर रहा है। इस समय केजरीवाल के विधायकों पर आरोप है कि उन्होंने दिल्ली के मुख्य सचिव के साथ आधी रात में मीटिंग के दौरान न केवल उनके साथ बदसलूकी की बल्कि उनको मारा भी। दिल्ली पुलिस के समक्ष की गई अपनी एफआईआर में अंशु प्रकाश ने आरोप लगाया है कि उनके साथ दो विधायकों अमानतुल्ला खान और प्रकाश जारवाल ने अरविंद केजरीवाल की उपस्थिति में उनके साथ मारपीट की। अब इन विधायकों को तिहाड़ की मंडोली जेल भेज दिया गया है। अंशु प्रकाश का कहना है कि मुख्यमंत्री के सामने हुई घटना के बाद केजरीवाल ने इस पर चुप्पी साध ली। इस घटना ने केजरीवाल के राजनीतिक भविष्य को खतरे में डाल दिया है।
हालांकि जब तक स्वतंत्र जांच से ये बात साबित नहीं हो जाए कि ऐसी घटना घटी थी और इसके लिए आप के विधायक जिम्मेदार हैं तब तक केजरीवाल और उनके विधायकों को कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन केजरीवाल की राजनीति का जिस तरह का इतिहास रहा है उसे देखते हुए अंशु प्रकाश के आरोपों को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। इस घटना से केजरीवाल की विश्वसनीयता पर खतरा उत्पन्न हो गया है। उनके टकराव और अराजकता के प्रति झुकाव और विवाद को सुलझाने की जगह बढ़ाने की आदत ने खुद उनकी छवि को ही फांस लिया है। उनका राजनीतिक इतिहास और छवि ही ऐसी रही है कि उनके आलोचक उन पर लगे आरोप को बिना जांच के ही सही मान लेते हैं।
कारण बहुत साधारण है, जिस तरह से प्रशंसनीय डार्केस्ट ऑवरÓ में किंग एडवर्ड विंस्टन चर्चिल के बारे में कहते हैं उसी तरह से कोई ये नहीं जानता कि केजरीवाल के मुंह से आगे क्या निकलने वाला है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान बीजेपी ने केजरीवाल पर हमला बोलते हुए उन्हें उपद्रवी गोत्र का बताते हुए विज्ञापन प्रकाशित करवाए थे। अब जिस तरह से दिल्ली में लगातार टकराव चल रहा है और खास कर इस बार नौकरशाही से केजरीवाल की भिड़ंत बीजेपी को अपने आरोप साबित करने का मौका देती है। कारण चाहे जो भी हो केजरीवाल टकरावों को संभालने में नाकामयाब रहे हैं। उनका किसी विवाद पर सीधा रुख टकराव की ओर होता है जिसे उनके समर्थक युद्ध का इशारा समझते हुए म्यान से अपनी-अपनी तलवारों को खींचते हुए मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं। ये उनके पहले कार्यकाल में दिखने लगा था जब उन्होंने लोकपाल विधेयक पर उपराज्यपाल की अनुमति न मिलने पर सीधे भिडऩे का फैसला करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
अपने राजनीतिक पदार्पण के महज कुछ ही वर्षो में उन्होंने दोस्त से ज्यादा दुश्मन बनाए। यहां तक की अपने करीबियों योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण कपिल मिश्रा और मयंक गांधी सरीखे सहयोगियों से लड़ बैठे, जिस कुमार विश्वास से वर्षों तक भाइयों जैसा प्रेम रहा, दांत काटी रोटी रही उसे भी केजरीवाल ने दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। सार्वजनिक जीवन में उनके गुरु रहे अन्ना हजारे भी उनके व्यवहार से आजिज आकर दूर चले गए। राजनीति के शुरुआती दौर में केजरीवाल को जिसने भी सहयोग किया आज वो सब उनके दुश्मन बने बैठे हैं।
इसका मतलब साफ है कि केजरीवाल सब लोगों को साथ लेकर नहीं चल सकते। उनके साथ केवल वो ही रह सकता है जो उनके हां में हां मिलाए और उनके निर्णयों पर सवाल उठाने की चेष्टा न करे। उनके पास धैर्य, सूझबूझ और व्यवहार कुशलता की कमी होने के साथ लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता भी नहीं है। जाहिर है वो लोगों का नेतृत्व शांति से करने में सक्षम न होकर केवल उन विवादों में उलझे रहना चाहते हैं जिससे किसी का भला न हो सके लेकिन उनके अहम की तुष्टि पूरी हो सके।
विवाद की जड़ खुद केजरीवाल
नौकरशाही के साथ विवाद केजरीवाल की खुद की करनी से हुआ है। उन्हें ये जानकारी है कि दिल्ली की उन 20 सीटों पर जल्द ही उपचुनाव होने वाले हैं जहां के विधायकों को ऑफिस ऑफ प्राफिट के मामले में चुनाव आयोग ने अयोग्य करार दिया हुआ है। उन्हें ये समझना चाहिए कि ऐसे विवाद उनके द्वारा तीन साल में किए गए विकास कार्यों पर भारी पड़ेंगे और ये उनके राजनीतिक विरोधियों को उनकी सरकार पर हमला करने का एक और मौका दिलाएंगे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इस विवाद को सुलझाने के बजाए इसमें घी डालकर उसे और भड़काना चालू रखा है।
केजरीवाल के साथ समस्या ये है कि सबसे उलझने वाले रवैये की वजह से उनका वोटर उनसे दूर हो रहा है और वो इसे समझ नहीं पा रहे। ये सच है कि केजरीवाल को केंद्र में बैठी एनडीए की सरकार खुल कर काम नहीं करने दे रही।
- इन्द्र कुमार