17-Feb-2018 06:32 AM
1235051
भगवान कृष्ण कहते हैं : सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत। यानी सहज-स्वाभाविक कर्म दोषमुक्त होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए। मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह कर्म करे और फल अथवा परिणाम की चिंता न करे, लेकिन हमारे मनों में परिणाम की आशंका पहले से ही घर कर जाती है, जिससे न तो कर्म का मूल अर्थात विचार ही सहज रह पाता है और न ही सहज रूप से कर्म का निष्पादन हो पाता है। एक भाव और हमारे मन में व्याप्त रहता है। वह है कर्ता भाव। मैं ही अमुक कार्य करता हूं और मैं ही अमुक कार्य नहीं करता। मैं सबको खिलाता-पिलाता हूं, मैं किसी का नहीं खाता। मैं सब को आमंत्रित करता हूं और सबकी खातिरदारी करता हूं, लेकिन मैं हर ऐसे-गैर के यहां नहीं जाता। यह तो अहंकार और कर्ताभाव की
पराकाष्ठा है।
हम अपने सुखों और दुखों का अनुभव करने से बहुत पहले ही उनका चुनाव कर लेते हैं। कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। जो बीज हम बोते हैं, उसी बीज से उत्पन्न पेड़ के फल हमें प्राप्त होते हैं। कुछ बीज ऐसे होते हैं जो बोने के बाद जल्दी ही बड़े होकर फूल-फल प्रदान करने लगते हैं, जबकि कुछ बीज धीरे-धीरे अंकुरित होते हैं और धीरे-धीरे ही उनकी वृद्धि होती है। फूल-फल भी वे बहुत देर में देते हैं। जिस प्रकार हमें अपने बोए गए बीजों के फूल-फल अवश्य ही मिलते हैं, उसी प्रकार हमारे कर्म रूपी बीजों के फल भी अवश्य ही हमें देर-सवेर वहन करने पड़ते हैं। यही कर्म रूपी बीज हमारे सुख-दुख या हर्ष-विषाद का मूल हैं। हमारा वर्तमान इन्हीं के कारण इस अवस्था में है।
किसी भी कार्य की पहली रूपरेखा हमारे मन में बनती है। किसी भवन के निर्माण से पहले उसका नक्शा बनाया जाता है, लेकिन भवन का नक्शा कागज पर बनने से पहले मन में बनता है। इसी तरह कोई भी विचार सबसे पहले मन में आकृति ग्रहण करता है। उसके बाद ही विचार वास्तविकता में परिवर्तित होता है। इस प्रकार मन में निर्मित मानचित्र द्वारा ही हमारे कर्म की उत्पत्ति होती है। अर्थात, कर्म की उत्पत्ति हमारी सोच, हमारे चिन्तन, हमारे संकल्पों का परिणाम मात्र है। यह हमारे विचारों अथवा संकल्पों की तीव्रता तथा हमारे विश्वास की सीमा पर निर्भर है कि हमारे विचार कब कर्मफल के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं।
सोच अच्छी या बुरी यानी सकारात्मक या नकारात्मक कुछ भी हो सकती है। सकारात्मक सोच या नकारात्मक सोच में से सही का चुनाव करना व्यक्ति पर निर्भर करता है और यह निर्भर करता है व्यक्ति के परिवेश, शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों पर। लेकिन इतना निश्चित है कि सकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म हमारी भौतिक उन्नति के साथ-साथ हमारी आध्यात्मिक उन्नति में भी सहायक होते हैं, जबकि नकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म हमें न केवल हर दृष्टि से पीछे की ओर ले जाते हैं, बल्कि हमें औंधे मुंह गिराते भी हैं। मनुष्य की स्थिति ठीक एक दोपहिया वाहन के समान होती है। सभी दोपहिया वाहन पैडल या मोटर के सहारे केवल आगे की ओर चलते हैं, पीछे की ओर नहीं। स्कूटर, मोटरसाइकल अथवा साइकल में पिछला गियर नहीं होता। साइकल में सही दिशा में पैडल मारेंगे तो आगे बढ़ेंगे। गलत दिशा में पैडल मारेंगे, तो फ्री व्हील की कट-कट की आवाज के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। ज्यादा प्रयत्न करेंगे तो संतुलन बिगड़ जाएगा, साइकल समेत जमीन पर आ गिरेंगे। इसी प्रकार अपनी सकारात्मक या नकारात्मक सोच द्वारा अपने सुख-दुख का सामान जुटाने वाले हम स्वयं हैं, अन्य कोई नहीं।
एक बार एक व्यक्ति चूहे मारने की दवा खरीदने बाजार गया। दुकानदार से दवा ली, पैसे दिए और घर की तरफ चल दिया। रास्ते में मन में न जाने क्या खयाल आया कि वापस दुकान पर गया और दुकानदार से पूछा, भाई एक बात बताओ। दवा से चूहे मरेंगे और चूहे मरेंगे, तो पाप लगेगा। अब ये बताओ कि पाप तुम्हें लगेगा या मुझे? दुकानदार ने कहा कि पाप-पुण्य तो तब लगेगा, जब चूहे मरेंगे। आज तक इस दवा से कोई चूहा नहीं मरा है।
मनुष्य दुख और सुख का अनुभव मन के माध्यम से करता है। मन का निर्माण भूतकाल की यादों और अनुभवों द्वारा होता है। अतीत की यादें कभी सुखद तो कभी आत्मग्लानि, अपराधबोध, हीनता, आक्रोश और कटुता जाग्रत करने वाली होती हैं। मनुष्य वर्तमान के मोह में असंतुष्टि, अज्ञान और अन्य कारणों के साथ अतीत की यादों द्वारा सबसे ज्यादा दुखी महसूस करता है। इन बुरी और हीन यादों का बोझ वह न चाहते हुए भी ढोता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संसार में अभी तक कोई ऐसी औषधि नहीं बनी, जिसके सेवन से इन यादों को मिटाया जा सके। पुरानी यादों के द्वारा अपराध बोध से ग्रसित होकर मनुष्य का स्वभाव नकारात्मक हो जाता है और इसकी अति होने पर मानसिक बीमारियां-जैसे अवसाद आदि से ग्रसित होकर स्थाई रूप से दुख अनुभव करने लगता है। पुरानी यादें मनुष्य के स्वयं के कर्मों की ही प्रतिक्रिया हैं और कर्मफल से संसार में कोई भी प्राणी यहां तक कि ईश्वर भी नहीं बच सके हैं। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि हर जीव को कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इस तथ्य की पुष्टि आज के समय में विज्ञान के तथ्यों द्वारा अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ब्रायन ब्रास ने अपनी पुस्तक मैनी लाइफ मैनी मास्टर्सÓ में की है।
इससे स्पष्ट होता है कि दुखों का मूल केवल कर्मफल और अज्ञानता है। इससे बचने का उपाय भगवान ने गीता में बताया है कि मनुष्य को कर्म, अकर्म एवं विकर्म का भेद जानकर केवल वही कर्म करना चाहिए जो उसके स्वधर्म के अनुकूल हो और स्वधर्म के अनुसार किए कर्म का फल स्वत: भगवान को अर्पण हो जाता है। इस प्रकार कर्मफल से मुक्त होकर वह प्रतिक्रिया स्वरूप सुख-दुख से भी मुक्त हो जाता है। विकर्म वह है, जो स्वधर्म एवं नैतिकता के विरुद्ध किया जाता है। इस कारण इसका कर्मफल मनुष्य को स्वयं भोगना पड़ता है। विकर्म के लिए उसे उसके मन और बुद्धि ही प्रेरित करते हैं। इसलिए संयम, सदाचार और महापुरुषों के आचरण का पालन करके मनुष्य विकर्म से बचकर दुखों से भी बच सकता है। आइए कर्मफल के सिद्धांत को समझकर विकर्म से बचकर सुख और आनंद की प्राप्ति करें। यही मर्म समझकर हम अपने जीवन को सही मायनों में सार्थक बना सकते हैं।
-ओम