आक्रामकता के मायने!
17-Feb-2018 09:55 AM 1234847
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात चुनाव से पहले से ही आक्रामक रूख में देखा जा रहा है, नॉर्थ-ईस्ट और कर्नाटक चुनाव से पहले आक्रामकता में और इजाफा दर्ज हो चुका है। तो क्या इससे कुछ और भी संकेत मिलते हैं? चुनाव वक्त से पहले वास्तव में होंगे क्या? पहले इस तरह की बातें सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुंह से सुनी गयीं। फिर नीतीश कुमार और बीजेपी के कुछ मुख्यमंत्री भी हां में हां मिलाते सुने गये। राष्ट्रपति अभिभाषण में भी एक साथ चुनाव कराये जाने के पर्याप्त संकेत समझे गये। अब प्रधानमंत्री मोदी जिस तरीके से कांग्रेस को टारगेट कर रहे हैं ये तो 2014 से भी ज्यादा आक्रामक लग रहा है। पहले तो मोदी के इल्जाम विपक्षी दल के नेता की तरह हुआ करते थे - अब तो वो कांग्रेस के पाप पर चार साल तक चुप रहने की बात कर रहे हैं। आखिर मोदी के इस हमलावर रुख को राजनीति के किस मकसद से जोड़ा जा सकता है, ये सवाल स्वाभाविक है। दरअसल, समय पूर्व चुनावी अटकलों के बीच कुछ ऐसे आधार सामने आए हैं जो अटकलों को बल दे रहे हैं। पहला आधार है राष्ट्रपति का अभिभाषण। बजट सत्र में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण में एक साथ चुनाव कराये जाने का जिक्र हुआ। फिर तो समझ ही लेना चाहिये कि मोदी सरकार ने अपने इरादे साफ कर दिये हैं। अगर चुनाव नियत वक्त से कुछ ही पहले कराना होता तो ऐसी बातें आगे आने वाले मौकों पर भी की जा सकती थीं। दूसरा आधार है मोदी का अचानक आक्रामक हो जाना। आक्रामक तो मोदी यूपी चुनाव में भी काफी रहे, लेकिन वहां निशाने पर मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव रहे। कांग्रेस और राहुल गांधी का नाम वो अखिलेश के साथ ले लिया करते थे। हिमाचल प्रदेश चुनावों में तो कांग्रेस का टारगेट होना स्वाभाविक ही था। ये आक्रामकता और परिपक्व हुई गुजरात चुनाव में जहां कांग्रेस ने बीजेपी के लिए कदम-कदम पर मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। जहां तक मोदी के चुनावी मोड में होने की बात है तो उसकी एक वजह कर्नाटक और उससे पहले मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड का चुनाव होना भी हो सकता है। अगर बात इतनी ही होती तो मोदी चुनावी रैलियों में बीजेपी नेता और उसके स्टार कैंपेनर वाले अंदाज में पेश आते और संवैधानिक मंचों पर प्रधानमंत्री के तौर पर। जिस तरह संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री सिर्फ कांग्रेस की आलोचना और अपनी सरकार की उपलब्धियां बताते रहे, उससे तो ऐसा ही लगता है कि बात सिर्फ वो नहीं जो ऊपर से लगती है। वैसे भी मोदी के एक साथ चुनाव कराने की मंशा का समर्थन नीतीश कुमार खुले तौर पर कर चुके हैं। मोदी के इस प्रोजेक्ट को बिहार के अलावा महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और सिक्किम से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल चुका है। देखा जाये तो आजादी के बीस साल बाद तक चुनाव साथ-साथ ही होते रहे। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 - लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुआ करते रहे, लेकिन 1967 में राजनीतिक उथल पुथल के बाद हालात बदल गये और फिर चुनाव अलग-अलग होने लगे। अब तो आलम ये है कि पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव या उपचुनाव होते ही रहते हैं। 2002 में गुजरात में भी चुनाव समय से पहले कराये गये थे। तब के मुख्यमंत्री मोदी ने जुलाई में ही विधानसभा भंग कर दी और चुनाव दिसंबर में हुए। बीजेपी के विरोधियों का आरोप रहा कि ऐसा गोधरा हिंसा से संभावित वोटों के ध्रुवीकरण के मकसद से किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अक्टूबर, 1999 में बनी थी और इस हिसाब से अगला चुनाव सितंबर-अक्टूबर, 2004 में होना चाहिये था। ये तब की बात है जब बीजेपी को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में जीत मिली थी और पार्टी इंडिया शाइनिंग के आभामंडल में खोई हुई थी। वाजपेयी सरकार ने करीब छह महीने पहले ही आम चुनाव का रिस्क लिया - और सत्ता गवां बैठी। 2002 में गुजरात के हालात और थे - और 2004 में देश के और। क्या मोदी सरकार वाजपेयी जैसा रिस्क उठाने को तैयार है? मोदी का भाषण सुन कर तो कुछ-कुछ ऐसा ही लगने लगा है। एक स्थिति ऐसी भी बनती है कि एक साथ चुनाव कराये जाने के मकसद से वोटिंग की तारीख कुछ टाल दी जाये। अभी के हिसाब से देखें तो चुनाव 2019 के अप्रैल-मई में होने चाहिये। फिलहाल बीजेपी की ऐसी पोजीशन है कि देश के 19 राज्यों में वो चुनाव की तारीख आगे पीछे करा सकती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव 2019 से पहले होने हैं तो महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव उसके बाद। किसी सर्वदलीय बैठक में कोई सहमति बने तो चुनावों की कोई ऐसी भी कॉमन तारीख तय हो सकती है। हालांकि वित्त मंत्री अरूण जेटली फिलहाल ऐसी संभावना को नकार रहे है। उधर जानकारों की मानें तो जेटली भले खारिज करें लेकिन जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी हर जगह चुनावी मोड में देखे जा रहे हैं, एकबारगी यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि चुनाव समय से पहले या फिर एक साथ नहीं होंगे। अबूधाबी के ओपेरा हाउस में भारतीय समुदाय के लोगों से मुखातिब मोदी ने जो कुछ कहा उसका लहजा तकरीबन वैसा ही रहा जैसा हाल के संसद भाषण में था। बिलुकल किसी आम चुनावी रैली की तरह। संसद में भी मोदी ने देश की हालत के लिए कांग्रेस के पापों को जिम्मेदार बताया था। कई मामलों में तो ये भी बताया की चार साल से ऐसे पापों को लेकर वो खुद किस तरह चुप थे। कांग्रेस शासन की ओर इशारा करते हुए मोदी ने कहा-हम निराशा, आशंका और दुविधा के दौर से भी गुजरे... पहले आम आदमी किसी काम को लेकर पूछता था कि क्या ये संभव होगा? आज पूछता है कि मोदी जी बताओ कब होगा? आज देश में कुछ भी संभव लगता है। मोदी ने कहा कि भारत विकास की नई ऊंचाईयों को छू रहा है....। ये कुछ ऐसे संकेत हैं जो यह बता रहे हैं कि मोदी और उनकी सरकार समय पूर्व चुनाव कराने के लिए तैयार है। एक साथ चुनाव कराये जाने के खिलाफ तर्क ये है कि जीतने के बाद एक ही पार्टी को पूरी ताकत हासिल हो जाएगी जिससे उसके निरंकुश होने की संभावना प्रबल है। संविधान में भी ऐसे उपाय इसीलिए किये गये हैं कि हर हाल में लोकतंत्र को कोई खतरा न हो। एक साथ चुनाव के पक्ष में तो सबसे बड़ी दलील यही है कि संसाधनों पर खर्च कम होंगे और विकास के काम सुचारू रूप से चलते रहेंगे। दोनों तर्क अपने-अपने हिसाब से सही हैं लेकिन कोई कॉमन रास्ता भी तो खोजा जा सकता है, वैसे भी जनता अब बहुत जागरुक हो चुकी है। समय पर चुनाव क्यों नहीं? सवाल ये है कि ये प्रयोग 2019 में ही क्यों? 2024 में क्यों नहीं? 2019 में सब कुछ आपाधापी में करना होगा, जबकि 2024 के लिए चुनाव आयोग को भी तैयारी का पर्याप्त मौका मिलेगा - और हर चीज को दुरूस्त करने के लिए किसी तरह की जल्दबाजी नहीं होगी। वैसे फिलहाल समय पर चुनाव क्यों नहीं कराये जा सकते? यानी जैसे-जैसे विधानसभाओं और लोक सभा की मियाद पूरी होती जाये चुनाव करा लिये जायें। क्या सिर्फ इसलिए कि जिस पार्टी के पास सत्ता है वो ऐसा करना चाहती है? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि सत्ताधारी पार्टी को इसमें अपना फायदा दिखता है? जाहिर है सरकार के पास मशीनरी होती है और वो चुनाव के लिए विपक्ष से हमेशा बेहतर स्थिति में होती है। क्या समय पर ही चुनाव होंगे? केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के नजरिये से देखें तो आम चुनाव 2019 में ही और निश्चित समय पर ही होंगे। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी सहित कई नेताओं के बयान और बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण में एक साथ चुनाव कराये जाने का जिक्र आने के बाद लोग मानने लगा है कि चुनाव समय से पहले हो सकते हैं। इतना ही नहीं आम चुनाव के साथ कई राज्यों के चुनाव भी कराये जा सकते हैं। एक टीवी इंटरव्यू में जेटली को कांग्रेस की तैयारियों की ओर ध्यान दिलाया गया। सवाल के जवाब में जेटली का कहना था - तैयार तो हम भी हैं लेकिन ऐसी कोई संभावना मुझे नहीं दिखाई दे रही है। -इन्द्र कुमार
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