17-Feb-2018 09:49 AM
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तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में लिखा है कि होइहि सोइ जो राम रचि राखा। राजस्थान में अजमेर, अलवर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव के तीनों नतीजों में मुंह की खाने के बाद बीजेपी के सामने भी अब यही सवाल है। क्या उसकी हार और सरकार में होने के बावजूद इतना बुरा प्रदर्शन भी भगवान की ही मर्जी है? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि सत्ता के 5वें साल में होने के बावजूद न पार्टी और न ही सरकार ने मतदाताओं से अपने काम के आधार पर वोट मांगे। इसके बजाय वोट मांगने की एक बानगी देखिए- अलवर में बीजेपी उम्मीदवार जसवंत यादव ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि जो असली हिंदू है वो उन्हें ही वोट देगा। मेव इलाकों में लोगों ने जब पूछा कि गौरक्षा के नाम पर मार दिए गए पहलू खान और उमर जैसे लोगों की जान क्या किसी पशु से भी सस्ती है? तो रामगढ़ विधायक ज्ञानदेव आहूजा ने कहा कि मुसलमान अगर गाय की खरीद फरोख्त करेंगे तो यूं ही मारे जाते रहेंगे।
कानून व्यवस्था और शांति, सुरक्षा के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया की तरफ से इसे मूक समर्थन दिया गया। यही नहीं अलवर शहर विधायक बनवारी सिंघल ने तो वोटों के लिए हिंदुओं से कहा कि चेतो, संभल जाओ वरना मुस्लिम राज आ जाएगा और वो तुम्हारी बोटियां ही नहीं बेटियां भी नोंच खाएंगे। कहने की जरूरत नहीं कि संभलना और चेतना तब होता जब बीजेपी को वोट दिया जाता। इस सबके बावजूद वो कौन से कारण रहे कि बीजेपी अपनी लाज बचाने लायक प्रदर्शन नहीं कर पाई। आखिर 4 साल में ही लोगों को इतनी नफरत कैसे हो गई कि अजमेर के 2 गांवों से तो पार्टी को एक भी वोट नहीं मिला।
2013 में बीजेपी को जनता ने इतनी सीटें दी थीं जितनी आजादी दिलाने का दावा करने वाली कांग्रेस आजादी के तुरंत बाद भी नहीं जीत पाई थी। ये इतनी थी, जितनी राजस्थान में पार्टी की जड़ें जमाने वाले भैरों सिंह शेखावत भी नहीं ला पाए थे। 200 में से पार्टी ने 163 सीटें जीती थी। तब बीजेपी या खुद वसुंधरा राजे से ज्यादा योगदान एक मोदी सुनामी का था। वसुंधरा राजे ने जीत के तुरंत बाद अपने पहले भाषण में इसे कबूल भी किया था, लेकिन एक बड़ी वजह और थी। पहले मैं सोचता था कि उस वजह को मौजूदा बीजेपी ने जानबूझकर क्रेडिट नहीं दिया, लेकिन मौजूदा हार देख कर लग रहा है कि पार्टी उसे समझ ही नहीं पाई थी। ये वजह है, कांग्रेस की पिछली गहलोत सरकार की नाकामी। गहलोत सरकार पर आरोप था कि उसने 4 साल तक कुछ नहीं किया। जो करने की कोशिश की गई या करने का दिखावा किया गया, वो ज्यादातर सत्ता के 5वें साल में ही किया गया। फिर चाहे वे नई भर्तियां हों या फिर रिफाइनरी जैसी बड़ी योजनाओं का शिलान्यास।
जनता, खासकर युवा दुखी थे और ऐसी सरकार की हार परिवर्तन के साथ नई उम्मीदें भी लेकर आने वाली थी। अफसोस कि परिवर्तन तो हुआ पर सिर्फ सत्ता का। उम्मीदें कहीं किसी गहराई में दबी ही रही। बीजेपी ने 5 साल में 15 लाख नौकरियों का वादा किया था। जबकि हाल ये है कि धरातल पर इसकी 1 प्रतिशत नियुक्तियां भी बमुश्किल दिखी हैं। इससे सरकार के खिलाफ माहौल है।
...लेकिन कांग्रेस जश्न में न डूबे!
बहरहाल, उपचुनाव की जीत कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी खुशी लेकर आई है। इन उपचुनावों को सेमीफाइनल माना जा रहा था। इनमें पायलट और उनकी टीम ने मेहनत भी बहुत की थी। आखिर ये जीत अगले सीएम के तौर पर अशोक गहलोत के सामने उनकी दावेदारी भी मजबूत करने वाली थी। इसमें कोई शक नहीं कि सचिन पायलट अपने इस इम्तिहान में कामयाब रहे हैं। अब पायलट वो सपना भी देख सकते हैं जिसके लिए गहलोत ने उन्हें मना किया था। गहलोत ने कहा था कि प्रदेशाध्यक्ष बनते ही मुख्यमंत्री बनने का सपना नहीं देखना चाहिए। पायलट और उनकी टीम जश्न मना सकती है लेकिन इसी समय ये भी ध्यान रखना होगा कि उपचुनाव या कहें कि सेमीफाइनल के ये नतीजे कांग्रेस या पायलट की जीत से ज्यादा वसुंधरा राजे की हार हैं। अगले 7 महीने कांग्रेस को और ज्यादा मेहनत करनी होगी, क्योंकि निश्चित रूप से इन नतीजों ने बीजेपी दफ्तर में हलचल तो मचा ही दी है।
-जयपुर से आर.के. बिन्नानी