17-Feb-2018 09:46 AM
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कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने विगत दिनों प्रमुख विरोधी दलों की बैठक बुलाई ताकि अगले आम चुनाव के पहले एक बड़ा संयुक्त मोर्चा खड़ा किया जा सके। सोनिया की पहल पर 17 पार्टियों का मिलना अपने आप में महत्वपूर्ण है। इस जमावड़े में मायावती, ह.द. देवेगौड़ा और मुलायम सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति पर ध्यान जरुर गया लेकिन इस बैठक ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि देश के विरोधी दल अगले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को टक्कर देने के लिए संकल्पबद्ध हैं।
यह संकल्प तो दिखाई पड़ रहा है लेकिन इसके पीछे सत्ता-प्रेम के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। इन नेताओं और पार्टियों ने एक-दूसरे के खिलाफ जमकर तलवारें भाजी हैं। यह अभी गठबंधन कम, गड़बड़ बंधन ज्यादा दिखाई देता है। इन नेताओं को एक सूत्र में जोडऩे वाला न तो कोई सिद्धांत है, न कोई विचारधारा, न कोई नीति और न ही कार्यक्रम। कोई रचनात्मक पहलू है ही नहीं। सिर्फ एक ही पहलू है। सिर्फ + मोदी हटाओ अभियान है लेकिन मोदी की टक्कर में खड़ा होने वाला क्या कोई नेता इस गठबंधन के पास है? इसमें शक नहीं कि देश की जनता का मोदी से मोहभंग शुरु हो गया है। गुजरात और राजस्थान के उपचुनाव इसके प्रमाण हैं। जहां तक इस महागठबंधन के नेता का सवाल है, वह अपने आप में एक महाभारत है। इसके अलावा जो बजट अभी आया है, यदि उसमें दिखाए गए सपनों के आधे भी सरकार ने साकार कर दिए तो गठबंधन की हवा अपने आप निकल जाएगी। यों भी विरोधी नेताओं को आज किसी जयप्रकाश नारायण की जरुरत है, जो न सिर्फ विरोधियों को एक कर सके बल्कि जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक और भाजपा के लोगों की भी सहानुभूति अर्जित कर सके। मोदी ने अपने व्यवहार से देश के राजनीतिक भद्रलोक में सर्वत्र अपने दुश्मन खड़े कर लिये हैं लेकिन आज भी राजनीति में उनका कोई विकल्प नहीं है। यदि इस शेष अवधि में मोदी मन की बात के बजाय काम की बात करने लगे तो भाजपा का शासन अगले पांच साल में भी पक्का ही रहेगा।
विपक्षी गठबंधन के रास्ते की पहली बाधा यहीं है कि कई पार्टियों का राज्यों में आपस में टकराव है और इसलिए वे राष्ट्रीय स्तर पर भी एक साथ नहीं आ सकती हैं। सोनिया गांधी की बैठक में समाजवादी पार्टी की ओर से रामगोपाल यादव शामिल हुए, जबकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव कह चुके हैं कि अगले चुनाव में कांग्रेस के साथ तालमेल की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। फिर भी विपक्ष के साथ एकता दिखाने के लिए उन्होंने अपना प्रतिनिधि बैठक में भेजा। इसके उलट बसपा प्रमुख मायावती ने दूरी दिखाई। असल में कहा जा रहा है कि मायावती को उत्तर प्रदेश में मजबूती का अहसास होने लगा है। उनको लग रहा है कि योगी आदित्यनाथ के राज में बढ़ते ठाकुरवाद की वजह से ब्राह्मण नाराज हैं और दलित देश भर में भाजपा से नाराज हैं। सो, वे अपने दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम समीकरण के सहारे अकेले चुनाव जीतने के सपने देख रही हैं। इसलिए यह कहा जा रहा है कि वे अब गठबंधन से अलग ही रहेंगी।
तृणमूल कांग्रेस की ओर से डेरेक ओ ब्रायन जरूर सोनिया गांधी की बुलाई बैठक में शामिल हुए। पर जो बात बसपा के बारे में कही जा रही है वहीं बात तृणमूल के बारे में भी कही जा रही है। तृणमूल कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में 42 में से 33 सीटें जीती थीं। इस बार ममता बनर्जी को लग रहा है कि वे 35 सीटें जीत सकती हैं और लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर आ सकती हैं। ऐसे में उनकी पार्टी के नेता उनके प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं। उलूबेरिया लोकसभा और नोआपाड़ा विधानसभा सीट के उपचुनाव की जीत से उनकी यह धारणा और मजबूत हुई है। सो, यह लगभग तय माना जा रहा है कि वे किसी से तालमेल नहीं करेंगी। सो, उत्तर प्रदेश की 80 और पश्चिम बंगाल की 42 सीटों यानी 122 सीटों में महागठबंधन बनने की संभावना नहीं है। बिहार की 40 सीटों में भी सिर्फ राजद व कांग्रेस साथ आते दिख रहे है। अगले चुनाव के लिहाज से ये 162 सीटें भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए सबसे अहम हैं। इनमें गठबंधन नहीं बना तो विपक्ष का इरादा कामयाब नहीं होगा।
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में मोदी और शाह की बीजेपी से मुकाबले के लिए बड़ा और मजबूत गठबंधन बनाने की कांग्रेस की कोशिशों को झटका लगता दिख रहा है। चुनाव के लिहाज से सबसे अहम माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 2019 में कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने के साफ संकेत दिए हैं। उधर पश्चिम बंगाल में ममता के साथ पार्टी के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं हैं, सोनिया के अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद लेफ्ट पार्टियां भी कांग्रेस से दूर नजर आ रही हैं, बिहार में लालू यादव के जेल जाने के बाद आरजेडी में अनिश्चितता का दौर है। ऐसे में 2019 में बीजेपी से मुकाबले के लिए विपक्षी एकता दूर की कौड़ी नजर आ रही है।
एकता की नई उम्मीद
राजस्थान और पश्चिम बंगाल में तीन लोकसभा और दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने एक राज्य में भाजपा को करारा झटका तो दूसरे में उम्मीद बंधाते हुए विपक्षी एकता का बीज रोप दिया है, हालांकि अभी उसके अंकुरित होने में कई तत्वों की भूमिका रहेगी। ये परिणाम गुजरात चुनाव में अधखिली कांग्रेस के लिए खाद-पानी का काम करेंगे और कांग्रेस और माकपा के रिश्तों के लिए नया माहौल प्रदान करेंगे। अब देखना है यह एकता की नई उम्मीद क्या असर दिखाती है।
बसपा-सपा को साधना जरूरी
विपक्षी एकता के लिए बसपा और सपा को साधना जरूरी है। बताया जा रहा है कि समाजवादी पार्टी यूपी की सभी 80 लोकसभा सीटों के लिए उम्मीवारों के चुनाव के काम में जुट गई है। हालांकि वह यूपी में ऐंटी-बीजेपी गठबंधन बनाने के विकल्प खुले रखेगी। मामले के जानकार सूत्रों ने बताया कि पार्टी प्रमुख और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल में पार्टी के पदाधिकारियों और विधायकों के साथ कई बैठकें की थीं। वहीं मायावती भी उत्तर प्रदेश में किसी के साथ साझेदारी करती नहीं दिख रही हैं।
देश को फिर मिलता मजबूत विपक्ष
गुजरात चुनावों के 4-5 माह पूर्व पक्का ही लग रहा था कि गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा 2014 के लोकसभा चुनावों वाला समर्थन पाएगी जिसका अर्थ होता 182 में से 140-160 सीटें। 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस भाजपा से सिर्फ 17 सीटों पर आगे रह पाई थी। इस तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 165 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में बहुमत मिला था। इसी को आधार मान कर अमित शाह 160 सीटों पर जीतने का दावा कर रहे थे। अब राहुल गांधी को 83 सीटों पर सफलता मिली और इस तरह राहुल गांधी ने भाजपा से अंदाजे से ज्यादा 60-62 सीटें छीन कर चाहे पूरी जीत हासिल न की हो, यह दर्शा दिया है कि वे कांग्रेस को अब लडऩे के मूड में ला रहे हैं। सोनिया गांधी की शारीरिक कमजोरी का जो नुकसान कांग्रेस को हुआ था अब राहुल गांधी की सक्रियता से कम हो सकता है। देश को मजबूत विपक्ष इसलिए चाहिए क्योंकि यहां सरकारें आमतौर पर बहुमत पाते ही इंदिरा गांधी मोड में आ जाती हैं। यह उन राज्यों में दिखता रहा है जहां राज्य सरकार किसी छोर्टी पार्टी की हो तो अच्छा बहुमत पाते ही दंभी हो जाती है। मायावती, ममता बनर्जी, कम्यूनिस्ट पार्टियों की सरकारें, शिव सेना की सरकार इस बात के नमूने हैं। बहुमत में आते ही मनमरजी होने लगती है। पैसा बरबाद होने लगता है। अनाप शनाप फैसले लिए जाने लगते हैं। जनता की सुनवाई बंद हो जाती है। भाजपा की इस मनमानी पर कांग्रेस रोक लगा सके यही काफी होगा।
- दिल्ली से रेणु आगाल