जन्नत या जहन्नुम?
17-Feb-2018 08:27 AM 1234891
जिस कश्मीर के बारे में किसी कवि ने कहा है-पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ की चादर, चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर, हसीं वादियों में महकती है केसर, कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के जेवर, यहां के बशर हैं फरिश्तों की मूरत, यहां की जुबां है बड़ी खूबसूरत, यहां की फिजां में घुली है मुहब्बत, अजानों से भजनों का रिश्ता पुराना, ये पीरों, फकीरों का है आशियाना, यहां सर झुकाती है कुदरत भी आकर, है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंजर पर उस जन्नत में पिछले डेढ़ दशक से दहशत, आतंकवाद, डर, मौत, और बर्बादी का मंजर दिखने लगा। हर रोज न जाने कितनी लड़ाइयां, कितनी मौतें, कितनी दहशत, कितना दर्द कश्मीर देखने लगा। यानी जन्नत (कश्मीर) अब जन्नत का रास्ता बन गया है। दरअसल हमारी राजनीतिक कमजोरियों का नतीजा है कि आज जन्नत जहन्नुम बना हुआ है। कश्मीर की आग में भारत और पाकिस्तान दोनों जल रहे हैं और अमेरिका-चीन जैसे देश इसमें घी डाल रहे हैं। यह आग तब तक नहीं बुझेगी जब तक भारत-पाकिस्तान को करारा जवाब नहीं देगा। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद 1947 से जारी है। इस विवाद को लेकर आरोप लगते रहे हैं कि भारत विभाजन के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ढुलमुल नीति और अदूरदर्शिता के कारण कश्मीर का मामला अनसुलझा रह गया। यदि पूरा कश्मीर पाकिस्तान में होता या पूरा कश्मीर भारत में होता तो शायद परिस्थितियां कुछ और होतीं। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता था, क्योंकि कश्मीर पर राजा हरिसिंह का राज था और उन्होंने बहुत देर के बाद निर्णय लिया कि कश्मीर का भारत में विलय किया जाए। देर से किए गए इस निर्णय के चलते पाकिस्तान ने गिलगित और बाल्टिस्तान में कबायली भेजकर लगभग आधे कश्मीर पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए, उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुन: प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरू ने यूएनओ से अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। फलस्वरूप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध-विराम की घोषणा कराई गई। नेहरू के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। आज कश्मीर में आधे क्षेत्र में नियंत्रण रेखा है तो कुछ क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर लगातार फायरिंग और घुसपैठ होती रहती है। इसके बाद पाकिस्तान ने अपने सैन्य बल से 1965 में कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया जिसके चलते उसे मुंह की खानी पड़ी। इस युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई। हार से तिलमिलाए पाकिस्तान ने भारत के प्रति पूरे देश में नफरत फैलाने का कार्य किया और पाकिस्तान की समूची राजनीति ही कश्मीर पर आधारित हो गई यानी कि सत्ता चाहिए तो कश्मीर को कब्जाने की बात करो। इसका परिणाम यह हुआ कि 1971 में उसने फिर से कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और बांग्लादेशÓ नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया। आतंक का सहारा इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इस हार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई और अगले युद्ध की तैयारी को अंजाम दिया जाने लगा लेकिन अफगानिस्तान में हालात बिगडऩे लगे। 1971 से 1988 तक पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथी अफगानिस्तान में उलझे रहे। यहां पाकिस्तान की सेना ने खुद को गुरिल्ला युद्ध में मजबूत बनाया और युद्ध के विकल्पों के रूप में नए-नए तरीके सीखे। यही तरीके अब भारत पर आजमाए जाने लगे। पहले उसने भारतीय पंजाब में आतंकवाद शुरू करने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में सिखों को खालिस्तानÓ का सपना दिखाया और हथियारबद्ध सिखों का एक संगठन खड़ा करने में मदद की। पाकिस्तान के इस खेल में भारत सरकार उलझती गई। स्वर्ण मंदिर में हुए दुर्भाग्यपूर्ण ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और उसके बदले की कार्रवाई के रूप में 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत की राजनीति बदल गई। हालांकि इंदिरा गांधी के बाद भारत की राह बदल गई। पंजाब में आतंकवाद के इस नए खेल के चलते पाकिस्तान की नजर एक बार फिर मुस्लिम बहुल भारतीय कश्मीर की ओर टिक गई। उसने पाक अधिकृत कश्मीर में लोगों को आतंक के लिए तैयार करना शुरू किया। अफगानिस्तान का अनुभव यहां काम आने लगा था। तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने 1988 में भारत के विरुद्ध ऑपरेशन टोपाकÓ नाम से वॉर विद लो इंटेंसिटीÓ की योजना बनाई। इस योजना के तहत भारतीय कश्मीर के लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे और फिर उन्हीं के हाथों में हथियार थमाने थे। बेरोकटोक चला ऑपरेशन टोपाक भारतीय राजनेताओं को सब कुछ मालूम था लेकिन फिर भी वे चुप थे, क्योंकि उन्हें भारत से ज्यादा वोट की चिंता थी, गठजोड़ की चिंता थी, सत्ता में बने रहने की चिंता थी। भारतीय राजनेताओं के इस ढुलमुल रवैये के चलते कश्मीर में ऑपरेशन टोपाकÓ बगैर किसी परेशानी के चलता रहा और भारतीय राजनेता शुतुरमुर्ग बनकर सत्ता का सुख लेते रहे। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़कर भारतीय राजनेता सब जगह ध्यान देते रहे। ऑपरेशन टोपाकÓ पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे चरण में पहुंच गया। अब उनका इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और उसके बाद आतंकवाद का सिलसिला चल पड़ा। पहले चरण में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, दूसरे में कश्मीर से गैरमुस्लिमों और शियाओं को भगाना और तीसरे चरण में बगावत के लिए जनता को तैयार करना। अब इसका चौथा और अंतिम चरण चल रहा है। अब सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत की जाती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैरमुस्लिम नहीं बचे और न ही शियाओं का कोई वजूद है। कश्मीर में आतंकवाद के चलते करीब 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए और वे जम्मू सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर रहने लगे। इस दौरान हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया। हालांकि अभी भी कश्मीर घाटी में लगभग 3 हजार कश्मीरी पंडित रहते हैं लेकिन अब वे घर से कम ही बाहर निकल पाते हैं। उधर कश्मीर घाटी में आतंक का खेल बेखौफ जारी है। 16 वर्ष में 7500 करोड़ खर्च पड़ोसी देश पाकिस्तान की तरफ से छेड़े गए परोक्ष युद्ध में कश्मीरवासियों को ने केवल अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ रही है, बल्कि देश को इस स्थिति से निपटने में हर वर्ष हजारों करोड़ रुपये सुरक्षा संबंधी खर्च भी उठाना पड़ रहा है। पिछले 16 वर्ष के भीतर केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में आतंकवाद से निपटने के लिए करीब 7500 करोड़ रुपये सुरक्षा कारणों पर खर्च किए हैं। इस खर्च में कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों व आत्म समर्पण कर चुके आतंकियों के पुर्नवास पर खर्च होने वाली राशि भी शामिल है। ईमानदार प्रयास की जरूरत यह तस्वीर तभी बदलेगी, जब ईमानदार राजनीतिक प्रयास होंगे। केंद्र व राज्य सरकार को मिलकर पहल करनी चाहिए, ताकि लोगों को कुछ राहत मिल सके और वे हमारे साथ खड़े हो सकें। दुखद है कि ऐसा कुछ होते नहीं दिख रहा। सांप के निकलने के बाद लकीर पीटने की अपनी परंपरा अनुसार विरोधी कश्मीर की इस समस्या के लिए जवाहरलाल नेहरू को दोष देकर अपने फर्ज की इतिश्री मान रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यह कहते नहीं थकते हैं कि अगर सरदार वल्लभभाई पटेल प्रधानमंत्री होते तो पूरा कश्मीर हमारा होता। जबकि वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता प्रीतीश नंदी ने विभिन्न स्रोतों के हवाले से दावा किया गया है कि विभाजन के समय पटेल पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देने को तैयार थे। नेहरू नहीं होते तो वह भी हमारे पास नहीं होता, जो आज है। खैर इन विवादों से कश्मीर समस्या का हल नहीं होने वाला। ईमानदार राजनीतिक प्रयास ही कश्मीर समस्या का समाधान कर सकते हैं। यानी पाकिस्तान को 1971 की तरह सबक सिखाना होगा। दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या राजीव गांधी की या मनमोहन सिंह की या फिर अब नरेंद्र मोदी की सबने पाकिस्तान के साथ वार्ता करके कश्मीर में शांति बहाली की कोशिश की है। लेकिन पाकिस्तान के मनसूबे दिन पर दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। हमारी सरकार द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक की धमकी दी जा रही है। शब्दों से पाकिस्तान को डराने की कोशिश हो रही है। इससे उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पडऩे वाला। सीमा पर जवाबी फायरिंग भी उसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा सकती। मेरा मानना है कि जब तक पाकिस्तान के उन ठिकानों को नष्ट नहीं किया जाएगा, जो आतंकियों के पनाहगाह हैं, तब तक हमारे ऊपर सीमा पार हमले होते रहेंगे। रक्षात्मक नहीं आक्रामक रणनीति हमारे हुक्मरानों को यह समझना होगा कि कश्मीर को लेकर रक्षात्मक नीति कामयाब नहीं रही है। यह सही है कि हम घाटी में दाखिल होने वाले आतंकियों का सफाया कर रहे हैं, पर यह हमारे लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं। अगर वे हमारी सीमा में घुसकर हमारे लोगों या फौजी-जवानों को मार दें और फिर हम उनका सफाया करें, तो इसमें हमारा नुकसान ही ज्यादा है। यही बात सीमा पार से होने वाली गोलीबारी के बारे में भी कही जा सकती है। वे हमारे सैनिकों को मारते हैं और हम उनके। इस सिलसिले का कोई नतीजा नहीं निकलने वाला, क्योंकि जो हथियार हमारे पास है, वह उनके पास भी है। इसलिए जब तक हम कोई ऐसा हथियारÓ इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिसका जवाब उसके पास न हो, तब तक हम प्रभाव नहीं छोड़ पाएंगे। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थित ट्रैनिंग कैंप को नष्ट करना ऐसी ही एक कार्रवाई हो सकती है, जिस दिशा में हमारी सरकार को सोचना चाहिए। पाकिस्तान के खिलाफ नई रणनीति बनाना वक्त की जरूरत है। जैसे ही पाकिस्तान को घर में घुसकर मारने की कार्रवाई शुरू होगी, उसका पूरा अमला इसके बचाव में जुट जाएगा। अभी वह इसलिए हमसे ज्यादा खौफ नहीं खा रहा, क्योंकि उसे पता है कि सीमा पर बाड़ेबंदी तक ही हमारी फौज जा सकती है। इस रक्षात्मक नीति को बदलना होगा। एक या दो दफा सर्जिकल स्ट्राइक करना बेअसर होगा, यदि हम लगातार पाकिस्तान पर दबाव न बनाएं। इसका सुबूत सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी पाकिस्तानी हमलों का न रुकना है। यह स्थिति बदलनी चाहिए, और ऐसा तभी होगा, जब पाकिस्तान को दुरुस्त किया जाएगा। कश्मीर की लड़ाई कश्मीरियों के साथ नहीं, पाकिस्तान के साथ है, लिहाजा हमें पहले उस पर कार्रवाई करनी चाहिए। पाकिस्तान के शिथिल होते ही कश्मीर की आग खुद बुझ जाएगी। दो माह से बिगड़े हालात पिछले दो महीनों में संघर्ष विराम उल्लंघन में भारी वृद्धि हुई है। पिछले वर्षों के आंकड़े देखें, तो 2015 में 387, 2016 में 271, 2017 में 860 और इस वर्ष जनवरी के तीसरे हफ्ते तक संघर्ष विराम उल्लंघन के 134 मामले सामने आए हैं। 2017 में सर्वाधिक(147) संघर्ष विराम उल्लंघन के मामले दिसंबर में देखे गए। पिछले कुछ महीनों के रुझान को देखते हुए इसमें केवल वृद्धि ही होगी। इस वर्ष हमारी ओर नागरिकों और सुरक्षा बलों, दोनों की मौत के आंकड़े करीब दोगुने हो गए और इसमें बढ़ोतरी की ही आशंका है। जम्मू एवं कश्मीर में सुरक्षा बलों ने 2017 में कुल 206 आतंकियों को मार गिराया, जबकि 75 अन्य को हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने के लिए राजी किया गया। पाकिस्तान में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता के साथ मुल्क पर लगभग पूरी तरह से सेना का नियंत्रण है। कश्मीर में सक्रिय आतंकी गिरोहों को उसका समर्थन बढ़ा है। इन समूहों के नेता आसानी से आतंकियों को खरीद सकते हैं, जिन्हें वे प्रशिक्षण एवं असलहा देते हैं। कश्मीर में उनके घुसपैठ के लिए पाकिस्तानी सेना जिम्मेदार है। भारतीय सेना घुसपैठ करने वाले आतंकियों को खत्म करने में सक्षम है। इसलिए उनकी घुसपैठ में मदद करने के लिए संघर्ष विराम उल्लंघन में बढ़ोतरी की जाती है। इसलिए इस समस्या का समाधान इसी में है कि भारत एक बार अपनी पूरी ताकत के साथ पाकिस्तान से आर-पार की लड़ाई लड़ ले। वर्ना हमारी जन्नत जहन्नुम बनी रहेगी।
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