02-Feb-2018 07:09 AM
1234859
भाजपा जहां कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम में जुटी हुई है, वहीं कांग्रेस 15 साल के वनवास से वापसी में। लेकिन दोनों पार्टियों के लिए यह चुनौती आसान नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, केंद्रीय संगठन, पूर्णकालिकों और आईबी की रिपोर्ट के अनुसार भाजपा की चौथी पारी आसान नहीं है। वहीं कांग्रेस के सामने अपने अस्तित्व को बचाए रखने की एक बड़ी चुनौती है। कांग्रेस की राजनीति के लिहाज से यह साल काफी महत्वपूर्ण साबित होगा। इसलिए पार्टी के नेता एकता के न केवल सुर अलाप रहे हैं बल्कि मुंगावली और कोलारस में इसका प्रदर्शन भी कर चुके हैं। लेकिन कमजोर संगठन पार्टी की राह में सबसे बड़ी समस्या है। यानी आगामी विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों के लिए अग्निपरीक्षा है।
शिवराज के भरोसे भाजपा
प्रदेश में लगातार चौथी बार सरकार बनाने की तैयारी में जुटी भाजपा पूरी तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के भरोसे है। इस कारण न तो भाजपा संगठन का और न ही सरकार का मतदाताओं पर प्रभाव दिख रहा है। पार्टी और सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चेतावनी को लगातार नजर अंदाज कर रहे हैं। अब खुफिया एजेंसियों और भाजपा के पूर्णकालिक समयदानियों की मैदानी रिपोर्ट ने भाजपा को असमंजस में डाल दिया है। इन दोनों रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में अब की बार 200 के पार का लक्ष्य लेकर चुनावी तैयारी में जुटी भाजपा के जनाधार में तेजी से गिरावट हुई है। हालांकि रिपोर्ट ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को काफी राहत दी है। रिपोर्ट में साफ कहा है कि शिवराज के चेहरे के बिना मध्यप्रदेश में भाजपा अगर चुनाव में जाती है तो उसे सबसे ज्यादा नुकसान होगा। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि मध्यप्रदेश में मोदी से ज्यादा प्रभावशाली चेहरा शिवराज का है।
उल्लेखनीय है की संघ समय-समय पर अपने स्वयंसेवकों द्वारा मिलने वाली मैदानी रिपोर्ट के आधार पर सरकार को चेताता रहता है। संघ कई बार संगठन और सरकार को बता चुका है कि मैदान में पार्टी की पकड़ कमजोर होती जा रही है। अब खुफिया जांच एजेंसियों की रिपोर्ट में भी ऐसा कुछ तथ्य सामने आया है। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई इस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि आज के हालात में आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा 70 सीटों पर ही सिमट सकती है। वहीं पूर्णकालिक समयदानियों ने अपनी रिपोर्ट में भाजपा को 157 सीटों पर कमजोर बताया है। अपनी रिपोर्ट में संघ और पूर्णकालिकों ने सरकार के चाल-चरित्र-चेहरे को लेकर काफी तीखी टिप्पणी की गई हैं। सरकार के भ्रष्ट कारनामों के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, जनता के साथ संवादहीनता, शासकीय योजनाओं का लाभ न दिला पाना, झूठी वाहवाही बटोरने जैसी टिप्पणी की गई हैं। जो सरकार के चरित्र को दर्शा रहा हैं। सरकार की चाल को लेकर अधिकारियों और कर्मचारियों से मनमानी पूर्ण रवैय्या, लालफीताशाही, समयबद्ध कार्य न होना, सरकारी योजनाओं में भी गड़बड़ी को लेकर टिप्पणी की गई हैं। हालांकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान और संगठन महामंत्री सुहास भगत का कहना है कि हमारी मैदानी तैयारी चल रही है। पार्टी की जिन क्षेत्रों में स्थिति कमजोर है वहां सबसे अधिक ध्यान दिया जा रहा है। प्रदेश अध्यक्ष का दावा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ने 200 के पार का जो नारा दिया है उसकी तैयारी जोरदार चल रही है। हमें सरकार के विकास पर विश्वास है।
न किसान खुश...न ही कर्मचारी
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि चित्रकूट उपचुनाव और 19 नगरीय निकायों के चुनाव परिणाम ने दर्शा दिया है कि भाजपा के विकास के दावों की पोल खुल गई है। वह कहते हैं कि सरकार से न तो किसान खुश हैं और न ही आदिवासी। वहीं कर्मचारी संगठन तो सरकार के खिलाफ पिछले चार साल से हैं। इसलिए अब भाजपा का बोरिया-बिस्तर बांधने का समय आ गया है।
अगर संघ, खुफिया एजेंसियों और अन्य रिपोर्ट को देखें तो यह तथ्य सामने आते हैं कि वाकई सरकार की खिलाफत बढ़ गई है। संघ के बाद अब पूर्णकालिक समयदानियों की रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र है कि सरकार से न किसान खुश हैं, न ही आदिवासी और न ही अधिकारी-कर्मचारी। दरअसल, सरकार की योजनाओं का लाभ किसानों और आदिवासियों को अपेक्षा से कम मिला है। प्रदेश में 101 ऐसी विधानसभा सीटें हैं जिन पर किसानों का प्रभाव रहता है। वहीं 47 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं जहां आदिवासी मतदाता सबसे अधिक हैं। यानी कुल 148 विधानसभा सीटों पर भाजपा के खिलाफ जबरदस्त माहौल है। रिपोर्ट में एक बात पूरी तरह से कही है कि मध्यप्रदेश में भाजपा का कार्यकर्ता अपनी सरकार और संगठन दोनों से नाराज है। पार्टी के कार्यक्रमों से लेकर चुनाव तक में वह पूरी ताकत से नहीं जुट रहा है। कार्यकर्ता असंतुष्ट ही नहीं सरकार और संगठन से नाराज हैं। जिसके चलते सरकारी और संगठन के कार्यक्रम से कार्यकर्ता दूरी बना रहा हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता और पदाधिकारी आपसी लड़ाई में उलझे हुए हैं। चुनिन्दा नेता और पदाधिकारी सरकार की मलाई जमकर खा रहे हैं। जिसके चलते आमजन के बीच पार्टी का पक्ष नहीं रखा जा रहा हैं। रिपोर्ट में कार्यकर्ताओं में उत्साह, संगठन के प्रति दायित्व का भाव जगाने की आवश्यकता जताई गई हैं। मध्यप्रदेश भाजपा के कार्यकर्ताओं के मूल चरित्र को वापस लाने की आवश्यकता जताई गई हैं जिससे भाजपा की चाल भी बदलेगी। संगठन का भी चेहरा बदले बिना कार्यकर्ता के चाल और चरित्र को नहीं बदला जा सकता।
एकता के दावे हकीकत से दूर
उधर, कांग्रेस को सत्ता से बेदखल हुए 14 साल से अधिक समय हो गए हैं, लेकिन अभी तक उसके लिए सत्ता दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है। इसकी वजह यह है कि पार्टी को सत्ता में लाने की जिम्मेदारी जिन नेताओं पर हंै, वे ही बेपटरी है। सांसद कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरूण यादव में चेहरा बनने की होड़ लगी हुई है वहीं दिग्विजय सिंह नर्मदा यात्रा पर हैं। वे वहीं से अपनी गोटिया फिट करने में जुटे हुए हैं। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह संगठन के साथ चलने की कोशिश में जुटे हुए हैं। पार्टी लगातार अपने नेताओं की एकता की बात कर रही है लेकिन पदाधिकारियों और कार्यकताओं में ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। हैरानी की बात यह है कि विधानसभा चुनाव की तैयारी को लेकर कांग्रेस में बैठकों का दौर लगातार चल रहा है, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकल रहा है। हां, प्रदेश प्रभारी बावरिया की बौखलाहट जरूर देखने को मिल रही है। पिछले दिनों कांग्रेस कार्यालय में प्रदेश कांग्रेस के जिलाध्यक्ष, ग्रामीण अध्यक्ष व कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ बैठक में बावरिया की बौखलाहट सामने आई।
बैठक में कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया ने बिना मुद्दे के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को नसीहत दी थी कि मेरे रहते पार्टी ड्रायवर, सेवकों आदि को टिकट नहीं देगी। बावरिया के इस बयान से पार्टी के कुछ नेताओं में आक्रोश है। उनका कहना है कि प्रदेश प्रभारी के ऐसे बोल से पार्टी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों में गलत संदेश जाता है। ऐसा बोलकर प्रदेश प्रभारी प्रदेश के नेताओं को निकम्मा घोषित कर रहे हैं, क्योंकि पार्टी तो हर बार जिताऊ उम्मीदवार ही मैदान में उतारती है। मध्य प्रदेश में मिशन 2018 की तैयारियों में जुटी कांग्रेस के लिए गुटबाजी खत्म करना नामुमकिन सा हो गया है। बिखरी पड़ी कांग्रेस को एकजुट करने की जिम्मेदारी निभाने में प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया के भी पसीने छूट रहे हैं। आलम यह है कि उनके सामने ही कभी कोई विधायक तो कभी कोई पदाधिकारी प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव को हटाने की मांग करने लगता है और बावरिया चुप्पी साधे रहते हैं।
साल 2003 में सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस अब 2018 के चुनाव में जीत की आस लगाए बैठी है लेकिन पार्टी हार की हैट्रिक का मंथन तो दूर आपसी गुटबाजी से उबर नहीं पा रही। कांग्रेस को सिंहासन से फिलहाल धरातल पर पहुंचाने में आपसी गुटबाजी और पार्टी नेताओं की ही भूमिका रही। यही कारण है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का चेहरा कौन हो, तमाम बैठकों के बावजूद कांग्रेस आलाकमान इस बात का फैसला नहीं कर पाया है। आलाकमान में इस बात पर सहमति तो अरसे पहले बन गई थी ज्योतिरादित्य सिंधिया या कमलनाथ में से किसी को चेहरा बना दिया जाए, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद फैसला नहीं हो सका। इसकी वजह ये है कि कोई बयान कुछ भी दे, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ अपना दावा छोडऩे को तैयार नहीं हैं। वहीं, खुद को सीएम की रेस से बाहर बता रहे दिग्विजय किसी को चेहरा बनाने की बजाय गुजरात की तर्ज पर सामूहिक नेतृत्व के फॉर्मूले पर लडऩे की सलाह दे रहे हैं। ऐसे में पार्टी का पूरा गणित गड़बड़ा रहा है।
निकाय परिणामों ने बढ़ाई चिंता
मध्य प्रदेश के 19 नगरीय निकाय चुनावों के नतीजों में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली। अध्यक्ष पद की 19 सीटों पर हुए इन चुनावों में दोनों ही पक्षों को 9-9 सीटों पर संतोष करना पड़ा। एक स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी ने बाजी मारी। वैसे तो आंकड़े बराबरी पर छूटे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि ये नतीजे भाजपा के लिए कोई खास अच्छी खबर लेकर नहीं आए हैं। बल्कि यूं कहें कि इन नतीजों से प्रदेश की सत्तारुढ़ पार्टी हैरान होगी, शायद गलत नहीं होगा। मध्यप्रदेश के अधिकतर चुनावों में शानदार जीत दर्ज करने वाली भाजपा को इस बार कांग्रेस ने न केवल कड़ी चुनौती दी, बल्कि कुछ जगहों पर उसके अभेद किले को बर्बाद भी दिया। आंकड़ों के नजरिए से देखें तो बीजेपी के कब्जे वाली धार, मनावर, सरदारपुर, धरमपुरी, खेतिया, अंजड़ निकाय को कांग्रेस ने छीन लिया, जिससे इस बात पर बल दिया कि इस नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव और उपचुनाव में भाजपा पुराने चुनावों जैसी सफलता दोहराने में नाकाम रही है। हालांकि इस बारे में भाजपा का कहना है कि उसने भी पलटवार किया है और कांग्रेस के कब्जे वाली कुक्षी, डही, पीथमपुर, राजपुर और ओंकारेश्वर सीट बीजेपी ने छीनी और जीत हासिल की। लेकिन चौंकाने वाले नतीजे सिर्फ इतने ही नहीं हैं। वैसे निकाय चुनाव के साथ ही राइट टू रिकॉल के तहत हुए चुनाव भी भाजपा के लिए कोई अच्छी खबर लेकर नहीं आए। तीन जगहों में से दो जगहों पर भाजपा के अध्यक्ष को मतदाताओं ने पद से हटाने के लिए ज्यादा वोट दिए। इसके अलावा भिंड में राइट टू रिकॉल के तहत हुए चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है।
हम सब एक हैं...
शिवपुरी के कोलारस और अशोकनगर के मुंगावली में विधानसभा के उपचुनाव में अपने प्रत्याशियों के नामांकन फार्म भरवाने के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया, प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, सांसद कांतिलाल भूरिया ने एक सुर में कहा कि वह एक हैं और भाजपा को इस बार सत्ता से उखाड़ फेकेंगे। कांग्रेसी नेताओं ने कहा कि प्रदेशभर में सरकार के खिलाफ माहौल है। भाजपा को अपनी विदाई का अहसास हो गया है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ कहते हैं कि मुंगावली और कोलारस का उपचुनाव साधारण नहीं हैं। यह चुनाव प्रदेश को नया संदेश देंगे। साढ़े 14 साल की मप्र सरकार धोखा देकर और कलाकारी करके प्रशासन चलवा रहे हैं। मप्र के मतदाताओं ने बदलाव का पूरी तरह मन बना लिया है। सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं कि हम सब एक हैं और हमारा एक ही उद्देश्य है मप्र से भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकना और विदा करना है। इसकी शुरूआत चित्रकूट और अटेर से हो गई थी, कोलारस और मुंगावली से मप्र सरकार की अंतिम विदा होने की पूरी तैयारी है, क्योंकि वहां की जनता न तो मप्र सरकार के प्रलोभन में आने वाली है और न ही उनकी धमकियों के दबाव में आने वाली। साढ़े चौदह साल बाद मप्र सरकार को वहां की याद आई, अतिथि के रूप में आने वाले सीएम, मंत्री को यहां से विदा भी करेगी।
14 साल में दलित चेहरा नहीं तैयार कर पाई भाजपा
प्रदेश में करीब डेढ़ दशक से सत्ता सुख भोगने वाली भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों एक ऐसा अदद आदिवासी व दलित चेहरा तक मौजूद नहीं है जिसका उपयोग वे पूरे प्रदेश में चुनाव के समय कर सके। इस संकट के चलते भाजपा के रणनीतिकारों को चिंता में डाल रखा है। दरअसल, इतने लंबे समय में सरकार व पार्टी किसी भी अपने आदिवासी और दलित नेता को आगे लाने में असफल रहा है। हालात यह हैं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाए जाने के बाद से आदिवासी नेता फग्गनसिंह कुलस्ते खुद प्रदेश के संगठन और सरकार में उपेक्षित बने हुए हैं। प्रदेश में आदिवासी व दलित मतदाता सरकार से बेहद खफा हैं। उन्हें सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। यही वजह है कि भाजपा को प्रदेश की आदिवासी लोकसभा सीट झाबुआ-रतलाम को उपचुनाव में हारनी पड़ी है। शहडोल सीट जरूर जैसे-तैसे भाजपा जीत पाई थी। अब पार्टी के सामने संकट ये है कि आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वह इन वर्गों के किन चेहरों को आगे रखकर वोट मांगेगी। यही वजह है कि भाजपा की ङ्क्षचता को ध्यान में रखकर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामाजिक समरसता की पैरवी कर रहा है। आदिवासी वोट बैंक मूलरूप से कांग्रेस के साथ रहा है। कुछ वर्षों पहले ये भाजपा के पास तो आया लेकिन इन दिनों भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। इसकी वजह है कि ज्यादातर आदिवासी नेता भाजपा में उपेक्षित हैं। फग्गनसिंह कुलस्ते मप्र के पुराने आदिवासी नेता हैं लेकिन वे केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाले जाने के बाद से हाशिए पर हैं। कैबिनेट में भी चुनिंदा मंत्री ही हैं। विजय शाह को लेकर आदिवासी ही एकमत नहीं हैं। ओमप्रकाश धुर्वे की हालत ये है कि नगरीय निकाय चुनाव में वे खुद के क्षेत्र में भाजपा को नहीं जिता पाए। अंतरसिंह आर्य भी कमोवेश इसी हालत से गुजर रहे हैं। मध्यप्रदेश में 47 विधानसभा क्षेत्र आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं जिनमें से अभी भाजपा के पास 30 सीटें हैं। 30 विधायकों के बावजूद कैबिनेट में इस वर्ग के मात्र 3 मंत्री हैं। पहले ज्ञानसिंह मंत्री हुआ करते थे लेकिन सांसद बन जाने से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। रंजना बघेल 2013 तक तो मंत्री थीं लेकिन तीसरी बार सरकार बनने के बाद उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया।
प्रदेश में अल्पेश और हार्दिक की खोज
गुजरात विस चुनाव में कांग्रेस ने अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक पटेल जैसे नौजवानों का सहारा लिया और जाति समीकरणों पर जोर दिया। इसी तरह का प्रयोग मध्यप्रदेश में भी किए जाने की संंभावना है। वैसे इस संभावना के सवाल पर सिंधिया कहते हैं कि मप्र बहुजातीय वाला प्रदेश है यहां कांग्रेस ने सदैव हर जाति और वर्ग को महत्व दिया है। सिंधिया अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इसे जातीय समीकरण के आधार पर क्यों देखा जाता है, अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक में जो क्षमता है वह व्यक्तिगत क्षमताएं हैं। व्यक्तिगत क्षमताओं के आधार पर हर व्यक्ति का उपयोग कांग्रेस राष्ट्रीय और प्रादेशिक हित में करती है। बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य दलों से गठबंधन के सवाल को सीधे तौर पर सिंधिया ने इंकार नहीं किया, मगर कहा कि वे संभावनाओं और अगर मगर का जवाब नहीं देते। साथ ही कहा कि हमारी सोच एक विचारधारा है। उन्होंने कहा कि जो तत्व देश की उन्नति, प्रगति, विकास में रोड़ा बन रहे हैं उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए विचारधारा के लोग साथ आएं।
मुद्दा विकास...
फोकस जातियों पर
मुंगावली और कोलारस विस क्षेत्रों में गुजरात चुनाव की झलक दिखाई दे रही है। इन दोनों ही क्षेत्रों में विकास का मुद्दा पीछे रह गया है और जातिगत समीकरणों की चुनावी बिसात बिछने लगी है। दोनों ही दलों द्वारा जातिगत समीकरण को फिट करने के लिए नेताओं को पूरी तरह से सक्रिय कर दिया गया है। यही नहीं इसी आधार पर टिकट भी दिया गया है। कोलारस और मुंगावली के जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने कोलारस से महेंद्र सिंह यादव को और मुंगावली से बृजेंद्र सिंह यादव को टिकट दिया है। इन दोनों क्षेत्रों में यादव और उसके समकक्ष की जातियों का प्रभाव है। साथ ही पार्टी ने कोलारस में सहानुभूति का फायदा उठाने के लिए दिवंगत विधायक रामसिंह यादव के पुत्र महेंद्र सिंह यादव को टिकट दिया है। वहीं मुंगावली में भाजपा ने बाईसाहब राव देशराज सिंह यादव और कोलारस से देवेन्द्र जैन को टिकट दिया है। मजेदार बात तो यह है कि मुंगावली में भाजपा की उम्मीदवार बाईसाहब यादव और कांग्रेस उम्मीदवार बृजेंद्र सिंह यादव आपस में भाभी-देवर हैं। आपको बता दें कि बाईसाहब यादव मुंगावली जिला पंचायत के अध्यक्ष और पूर्व विधायक देशराज सिंह यादव की पत्नी है। दोनों ही सीटें कांग्रेस की परंपरागत सीटें मानी जाती हैं यहां ज्योतिरादित्य सिंधिया और सिंधिया परिवार का खासा प्रभाव माना जाता है।