अपने को गिराओ नहीं!
02-Feb-2018 06:54 AM 1235263
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद्गीता में कहा है... उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत। आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।। यानी शारीरिक अस्वस्थता में मन नहीं गिरे, यह ध्यान रखें। मनोबल ऊंचा बना रहे। दृढ़ विचार शक्ति, ऊंचा मनोबल अपने साथ मित्रता है। कमजोर मानसिकता, लडखड़ाई हुई नकारात्मक सोच, अपने साथ शत्रुता! श्रीमद भगवद्गीता का यह अद्भुत प्रेरक मंत्र है। अपने आप से अपने आपको उठाओ, अपने को गिराओ नहीं। शारीरिक बीमारी प्राय: तन और मन दोनों को गिरा देती है। अस्वस्थ होने पर कुछ तो शरीर गिरता है, लेकिन मन की नकारात्मक सोच व निराशा और अधिक डगमगा देती है। ऐसी स्थिति में श्री गीता जी का यह श्लोक याद आ जाना चाहिए। जब-जब मन लडखड़ाने, डगमगाने, घबराने या उकताने लगे, तब-तब इस श्लोक को सामने लाओ। भक्तचरितांक में एक गृहस्थ संत की कथा आती है। संत को भोजन करवाने के लिए किसी ग्राम साहूकार से उसने उधार राशन लिया। साहूकार ने कहा, ‘‘तू पैसे दे नहीं पाएगा, बाहर मैंने खेतों में एक कुआं बनवाना है। इसके बदले खुदाई कर दे।’’ बात मान ली। कुएं की खुदाई प्रारंभ की। एक दिन सायंकाल खुदाई करते-करते वह स्वयं उसमें गिर गए और आधे से ज्यादा शरीर उस में दब गया। अंधेरा हो चला था। दूर-दूर तक कोई आवाज सुनने वाला था नहीं। तभी गीता जी के इसी भावानुसार मन को संभाला, शरीर गिरा लेकिन मन को नहीं गिरने दिया। मन ही मन भगवान का स्मरण किया। यह विचार बनाया कि प्रभु तो यहां भी साथ हैं। उत्साह और विश्वास को जगाया। ऊंचे स्वर से भगवान के नाम का कीर्तन प्रारंभ कर दिया। रात्रि के समय आवाज दूर तक गूंजी। एक राजा शिकार खेलकर कहीं दूर वहां से निकल रहा था। भगवन्नाम का दिव्य स्वर कान में पड़ा। सैनिकों को भेजा। जब पता चला कि कुएं में गिरा, मिट्टी में दबा कोई व्यक्ति नाम संकीर्तन में मस्त है। राजा स्वयं गए, अद्भुत भाव दृश्य, सैनिकों को आज्ञा देकर बाहर निकलवाया और अपने साथ अपने राज्य में ले आए। विचार करें- शरीर गिरा, यदि मन भी यह सोच कर गिर जाता कि अब प्राण बचने संभव नहीं तब कुछ भी हो सकता था। मन को नहीं-गिरने दिया। स्वयं से स्वयं को उठाया-परिणाम कितना अच्छा! आओ, पक्का करें कि मन को नहीं गिराएंगे। भगवान कृपा करें शरीर भी स्वस्थ रहे, शरीर भी न गिरे, लेकिन यदि कुछ लगने लगे, तभी मन को संभालो, मन को शरीर की अस्वस्थता से नहीं, भगवान से जोड़ो। यही अपने साथ मित्रता है, मन का भी गिर जाना यह स्वयं के साथ शत्रुता है, हर समय मनोबल गिराकर जीना, क्या स्वयं से स्वयं का नुक्सान नहीं। आओ, विचार विश्वास और मनोबल ऊंचा उठाकर अपने मित्र बनें, शत्रु नहीं। वस्तुत: यहां गिरना और उठना शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति है। गिरते हैं जब ख्याल, तो गिरता है आदमी। जिसने इन्हें संभाला, वो खुद संभल गया।। अर्जुन के साथ यही तो था। रथ में भगवान से भी ऊंचे आसन पर था, लेकिन जब मन गिरा तो शरीर भी इसके पिछले भाग में जा गिरा। त्वचा जलने लगी और शरीर लडखड़ाने लगा, सिर चकराने लगा। श्री गीता का यह श्लोक बहुत मजबूत प्रेरणा है स्वयं को गिरने से बचाने के लिए तथा यदि शरीर अस्वस्थता में गिरा रहा है या गिर रहा है तो उसे फिर उठाने के लिए आओ प्रेरणा लें और उठाएं अपने आपको। बलं बलवतां चाहं कामरागविवॢजतम। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ।। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति तथा कामना रहित बल अर्थात सामथ्र्य हूं और सब प्राणियों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र अनुकूल काम हूं। बात बिल्कुल स्पष्ट है- शारीरिक बल या क्षमता देखें। शरीर की बनावट या संचालन स्थिति इसके पीछे कौन? हाड़-मांस-चमड़ी अपने आप में न चल सकते हैं, न सुन बोल सकते हैं, न ही कुछ और कर सकते हैं। थोड़ा और गहराई से देखें-गहरी नींद में जब हमें यह भी आभास नहीं रहता कि शरीर किस करवट में है- उस समय भीतर की संपूर्ण व्यवस्था कौन चला रहा होता है? निश्चित, नि:संदेह वही चेतना शक्ति, जो सबमें समान रूप से है। इसका स्पष्ट संकेत यह है कि बल सामथ्र्य आदि भगवत कृपा शक्ति की ही देन है। इसका उपयोग केवल अपने स्वार्थ, निजी लाभ, अहम-आसक्ति आदि की तुष्टि-पुष्टि तक ही न हो। धन, सामथ्र्य, बल, क्षमता आदि सब कुछ यहीं छूटने वाला है; लेकिन ईश्वरीय भाव से इनका परहित में सदुपयोग एक अमर प्रेरणा बन जाता है। इसलिए हमारे ऋषि कहते हैं कि सामथ्र्यवान वह नहीं, जिसके पास बहुत सामथ्र्य है, सच्चा सामथ्र्यवान तो वह है जो इसका सदुपयोग करता है। विद्वान वह नहीं, जिसके पास बहुत विद्या है; वह है जो दूसरों को भी पढ़ाकर निरक्षर से साक्षर बनाए। धनवान केवल वह नहीं, जिसके पास बहुत धन है; असली धनवान वह है, जो निर्धन, असहाय, रोगी, दुखी को सहारा दे और बलवान वह जो अपने बल से गिरे हुए को उठाए। -ओम
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