02-Feb-2018 11:19 AM
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ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के मामले में दिल्ली आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या अन्य राज्यों के इस दायरे में आने वाले विधायकों के खिलाफ भी चुनाव आयोग कार्रवाई करेगा। अगर चुनाव आयोग कार्रवाई करता है तो कम से कम छत्तीसगढ़ और हरियाणा की भाजपा सरकारों पर संकट आ सकता है। वहीं इस संदर्भ में मध्य प्रदेश में भी राजनीति गरमा गई है। आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव अधिकारी को ज्ञापन देकर मप्र की वर्तमान विधानसभा के 118 विधायकों की सदस्यता लाभ के पद पर पदस्थ होने के कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 191(1)क अनुच्छेद 192 एवं लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के अंतर्गत तत्काल प्रभाव से समाप्त करने की मांग की है। जिनमें शिवराज सरकार के 8 मंत्रियों पर भी लाभ के पद के आरोप हैं।
आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल ने कहा कि देश को बड़ी मुश्किल से लोकतंत्र मिला है। इसको खत्म करने का काम चुनाव आयोग न करे। चुनाव आयोग ने दिल्ली में बहुत जल्दी कार्यवाही की, अब मध्यप्रदेश में भी इसी तेजी से कार्यवाही करनी चाहिए। अगर सही कार्यवाही की गई तो मप्र की सरकार ही नहीं बचेगी। दिल्ली की सरकार पर तो चुनाव आयोग की कार्यवाही का कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि आप ने 4 जुलाई 2016 को लाभ के पद के अंतर्गत 118 विधायकों की सदस्यता रद्द करने को लेकर शिकायत सौंपी थी, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की।
मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि भाजपा शासित कई राज्यों में इस मामले से जुड़े कई मामले सामने आए हैं। संसदीय सचिवों के पद को लेकर पहले भी विवाद होते रहे हैं। ऐसे में क्या चुनाव आयोग कोई कड़ा फैसला लेगी। अगर लेती भी है तो कई राज्य संकट की स्थिति में आ जाएंगे। कर्नाटक में ऐसे 10 मंत्रियों के नाम सामने आएं हैं जिन्हें खुद मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने नियुक्त किया था। जिनके नाम हैं माकाबुल एस बागावन, राजा आलागुर, उमेश जी जाधव, डोडामनी रामाकृष्ण, चैन्नाबासाप्पा शिवाली, शकुंतला टी शेट्टी, सी पुटुरंगाशेट्टी, एच पी मंजुनाथ, ई थुकराम, के गोविंदाराज। ये सभी राज्य के मंत्रियों के पद पर सैलरी और अलाउंस का लाभ ले रहे हैं, साथ ही संसदीय मंत्री जो कि पहले ही लाभ का पद है, से भी सैलरी और अलाउंस ले रहे हैं। छत्तीसगढ़ में सरकार ज्यादा बड़े संकट में है। यहां 90 सीटों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के 49 विधायक हैं, जिनमें से 11 संसदीय सचिव के पद पर कार्यरत हैं। अगर कार्रवाई हुई तो इनकी संख्या 38 रह जायेगी, ऐसे में बहुमत से 8 विधायक कम हो जाएंगे। इसके उलट कांग्रेस पार्टी के पास अभी 39 सदस्य हैं। वैसे राज्य के 11 संसदीय सचिवों के कामकाज पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने पहले ही रोक लगा रखी है। कांग्रेस समेत तमाम विरोधी दलों ने संसदीय सचिवों के खिलाफ जल्द कार्रवाई को लेकर चुनाव आयोग को पत्र भेजा है।
अब बताते हैं हरियाणा के बारे में। हरियाणा में पिछले साल खट्टर सरकार ने चार बीजेपी विधायकों को मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इसे पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने अमान्य घोषित कर दिया था। जाहिर सी बात है कि बिना सुविधा लिए संसदीय सचिव बने विधायक की सदस्यता जा सकती है, तो सुविधा लेने वालों की क्यों नहीं। हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीट हैं। अभी भाजपा के पास 47 विधायक हैं। ऐसे में अगर चार कम होते हैं तो पार्टी के सदस्यों की संख्या बहुमत के लिए जरूरी 46 से सीधे 43 पर आ जाएगी। इस मामले में राज्यपाल को शिकायत करने की कवायद भी शुरू हो गई है। विधायक श्याम सिंह राणा, कमल गुप्ता, बख्शीश सिंह विर्क और सीमा त्रिखा को खट्टर सरकार ने मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त किया था। वहीं इस मामले में राजस्थान सरकार भी घिरती नजर आ रही है। यहां भी सत्तारूढ़ भाजपा के दस विधायक संसदीय सचिव बनाए गए हैं, जिनकी सदस्यता समाप्त करने की मांग उठने लगी है। राजस्थान विधानसभा में सदस्यों की संख्या दो सौ है। नियमानुसार 15 प्रतिशत ही मंत्री हो सकते हैं। अभी वहां 30 मंत्री हैं। उनके अलावा दस संसदीय सचिव बनाए गए हैं, जिन्हें मंत्री-स्तरीय सुविधाएं हासिल हैं।
कानून के विशेषज्ञों के अनुसार, अगर संसदीय सचिवों को मंत्री माना जाता है तो यह कानून का उल्लंघन होगा। यदि उन्हें मंत्री नहीं माना जाता तो फिर वे लाभ के पद वाले करार दिए जाएंगे। ऐसे में उनकी सदस्यता जा सकती है। यह बात अलग है कि राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल अब एक साल से भी कम बचा है। राज्य सरकार के लिए दोनों ही स्थिति में परेशानी है। विपक्षी कांग्रेस इस मसले को राष्ट्रपति और चुनाव आयोग तक ले जाने की तैयारी कर रही। राजस्थान प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष डॉ. अर्चना शर्मा का कहना है कि संसदीय सचिव बने विधायकों की सदस्यता समाप्त होनी चाहिए। हम कानून का सहारा लेंगे। विरोध में हवा भरते हुए निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल कहते हैं कि पांच फरवरी से शुरू होने वाले विधानसभा सत्र में यह मसला उठेगा। प्रतिक्रिया में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी का कहना है कि इससे राजस्थान सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
आखिर है क्या लाभ का पदÓ
सांसद या विधायक एक वित्तीय लाभ का पद है और इस पद में उसे तनख्वाह के साथ कार और अन्य चीजें भी उपलब्ध करवाई जा सकती है। इसके साथ ही वह सांसद या विधायक किसी भी ऐसे पद पर काम नहीं कर सकता जिससे उसे वेतन, भत्ता या अन्य कोई लाभ प्राप्त हो। ऐसा पद अन्य लाभ का माना जाएगा जो कानून में स्वीकार्य नहीं है। भारत के संविधान में इसे लेकर स्पष्ट व्याख्या है। संविधान के अनुच्छेद 102 (1) (ए) के तहत सांसद या विधायक ऐसे किसी अन्य पद पर नहीं हो सकते, जहां वेतन, भत्ते या अन्य दूसरी तरह के फायदे मिलते हों। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191 (1) (ए) और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) के तहत भी सांसदों और विधायकों को अन्य पद लेने से रोकने का प्रावधान है। कभी सोनिया गांधी और जया बच्चन भी इस कानून के लपेटे में आई थीं। 2006 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर लाभ के पदÓ का विवाद खड़ा हुआ था। आखिरकार सोनिया गांधी को लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर रायबरेली से दोबारा चुनाव लडऩा पड़ा था। सांसद होने के साथ सोनिया को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का चेयरपर्सन बनाए जाने से लाभ के पद का मामला बन गया था। 2006 में ही जया बच्चन विवादों में आईं। वह राज्यसभा सांसद होने के साथ उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की चेयरपर्सन भी थीं। इसे लाभ का पदÓ माना गया और निर्वाचन आयोग ने जया बच्चन को अयोग्य ठहरा दिया। उनकी राज्यसभा की सदस्यता खत्म कर दी गई। जया बच्चन ने इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी थी। यहां भी उन्हें राहत नहीं मिली। सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया कि अगर किसी सांसद या विधायक ने लाभ का पदÓ लिया है, तो उसकी सदस्यता जाएगी, चाहे उसने वेतन या दूसरे भत्ते लिए हों या फिर नहीं। लाभ के पदÓ के विवाद में 2015 में उत्तर प्रदेश के दो विधायकों बजरंग बहादुर सिंह और उमाशंकर सिंह की सदस्यता रद्द कर दी गई थी।
मप्र के 8 मंत्री 110 विधायक दायरे में
ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में शिवराज सरकार के मंत्री अर्चना चिटनीस, रुस्तम सिंह, ओमप्रकाश धुर्वे, जयभान सिंह पवैया, ललिता यादव, सूर्यप्रकाश मीणा, संजय पाठक और हर्ष सिंह पर भी आरोप हैं। इनके अलावा दुर्गालाल विजय, सूबेदार सिंह रजौदा, मेहरबान सिंह रावत, प्रदीप अग्रवाल, प्रहलाद भारती, पन्नालाल शाक्य, गोपीलाल जाटव, ममता मीणा, केडी देशमुख, योगेन्द्र निर्मल, चौधरी चंद्रभान सिंह, नत्थन शाह उइके, नानाभाई मोहोड़, रमेश दुबे, पंडित सिंह धुर्वे, रामप्यारे कुलस्ते, जालम सिंह पटेल, संजय शर्मा, गोविंद सिंह पटेल, कैलाश जाटव, कमल मर्सकोले, नंदनी मरावी, सुरेन्द्र नाथ सिंह, रामेश्वर शर्मा, विष्णु खत्री, रणजीत सिंह गुणवान, सुदेश राय, अमर सिंह यादव, कुंवरजी कोठार, हजारीलाल दांगी, कल्याण सिंह ठाकुर, रामकिशन पटेल, ठाकुरदास नागवंशी, विजयपाल सिंह, संजय शाह, हेमंत खंडेलवाल, महेन्द्र सिंह चौहान, चेतराम मानेकर, चंद्रशेखर देशमुख, महेश राय, पारूल साहू, प्रतिभा सिंह, सुशील कुमार तिवारी, अशोक रोहाणी, ओमप्रकाश धुर्वे, हरवंश राठौर, उमादेवी खटीक हटा, मानवेन्द्र सिंह, आर.डी. प्रजापति, पुष्पेन्द्र नाथ पाठक, रेखा यादव, केके श्रीवास्तव, अनीता सुनील जायसवाल, अनिल जैन, महेन्द्र सिंह, मीना विक्रम वर्मा, रंजना बघेल, कालूसिंह ठाकुर, देलसिंह भूरिया, बालकृष्ण पाटीदार, हितेंद्र सिंह ध्यानसिंह सोलंकी, राजकुमार मेव, देवेन्द्र वर्मा, लोकेन्द्र सिंह तोमर, दीवान सिंह विठ्टल पटेल, शांतिलाल बिलवाल, कलसिंह भावर, कु. निर्मला भूरिया, मालिनी गौड़, उषा ठाकुर, मनोज निर्भय सिंह पटेल, राजेश सोनकर, नगर सिंह चौहान, माधोसिंह डावर, दिलीप सिंह परिहार, कैलाश चावला, ओमप्रकाश सकलेचा, जीतेन्द्र गहलोत, संगीता चारेल, यशपाल सिंह सिसौदिया, चन्दरसिंह सिसोदिया, जगदीश देवड़ा, गायत्री राजे पंवारजी, राजेन्द्र फूलचंद वर्मा, आशीष शर्मा, चम्पालाल देवड़ा, अरूण भीमवद, इन्दर सिंह परमार, मुरलीधर पाटीदार, गोपाल परमार, दिलीप सिंह शेखावत, मुकेश पंड्या, सतीश मालवीय, बहादुर सिंह चौहान, अनिल फिरोजिया, गिरीश गौतम, नीलम अभय मिश्रा, नारायण त्रिपाठी, कुंवर सिंह टेकाम, रामलल्लू वैश्य, राजेन्द्र मेश्राम, प्रमिला सिंह, जयसिंह मरावी, रामलाल रौतेल, मीना माडवे, नरेन्द्र कुशवाहा और चौधरी मुकेश सिंह चतुर्वेदी पर ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग में शिकायत की है।
द्यदिल्ली से रेणु आगाल