15-Jun-2013 07:36 AM
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मध्यप्रदेश कांग्रेस में भावी मुख्यमंत्री को लेकर उठापटक शुरू हो गई है। हालांकि सत्य यह है कि वर्तमान में कांग्रेस का प्रदर्शन वैसा नहीं है कि उसे प्रदेश की सत्ता हासिल हो सके। किंतु जिस तरह का

घमासान भाजपा में शीर्ष स्तर पर मचा हुआ है उसका असर यदि मध्यप्रदेश पर आया तो बिल्ली के भाग से छींका टूट सकता है।
कांग्रेस की गुटबाजी का ही फायदा भाजपा को मिला था और वह वर्ष 2003 में सत्तासीन हुई थी। अब कमोबेश यही स्थिति दोनों दलों में है। कांग्रेस के दिग्गजों को वीके हरिप्रसाद एक मंच पर लाने में कामयाब तो रहे हैं, लेकिन दिग्गजों के दिल कितने मिल पाए यह कहना अभी बाकी है। कांग्रेस की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम कमलनाथ का प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होना है। कमलनाथ राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और मध्यप्रदेश में किसी भी नेता के मुकाबले उनका कद बहुत बड़ा है। जितना उनके विभाग का बजट है उतना मध्यप्रदेश का बजट है। इसी कारण कमलनाथ मध्यप्रदेश की गुटभरी राजनीति में आने के सदैव अनिच्छुक दिखाई दिए। उस समय भी नहीं जब आदिवासी कार्ड के चलते शिवभानु सोलंकी का मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था, किंतु गांधी परिवार में अपनी पैठ के कारण कमलनाथ ने अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया था।
इतिहास ने फिर करवट ली है। हालांकि इस बार संशय इस बात को लेकर है कि कमलनाथ किंग मेकर बनेंगे या स्वयं किंग बनना पसंद करेंगे। यह तो तय है कि 2014 के चुनाव में यूपीए की सरकार अब शायद ही बन पाए। ऐसी स्थिति में केंद्र में जोड़-तोड़ की राजनीति जोर पकड़ सकती है। कांग्रेस किसी कठपुतली सरकार को बिठाना पसंद करेगी ताकि भाजपा सत्ता से दूर रहे। उधर भाजपा भी एनडीए को बहुमत न मिलने की स्थिति में ऐसा ही दांव खेल सकती है। अभी तक हालात तय नहीं हैं कि क्या होगा। जबकि उससे पूर्व मध्यप्रदेश के चुनाव सामने हैं। ऐसी स्थिति में केंद्र में सरकार की डगमगाती नैया देख कमलनाथ मध्यप्रदेश की राजनीति में शुरूआत का विचार कर सकते हैं और यदि ऐसा होता है तो वे कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जा सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब स्वयं कमलनाथ आगे बढ़कर अपनी दावेदारी प्रस्तुत करें। हालांकि उनकी राह में भी रोड़े अटकाने वालों की कमी नहीं है। पर प्लस पाइंट यह है कि प्रदेश में भूमिका तलाशने के इच्छुक कमलनाथ को आलाकमान का समर्थन इस आधार पर मिल सकता है कि वे एक कम्प्रोमाइज केंडीडेट भी है। ज्यादा खींचतान की स्थिति में कमलनाथ का पलड़ा भारी रहेगा।
जहां तक ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रश्न है सिंधिया स्वयं अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर चुके हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह सहित कई नेता सिंधिया को मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहते। मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकर्ताओं को भले ही सिंधिया पसंद हो पर उनकी मुखालफत करने वालों की कमी नहीं है। सिंधिया के आने से फायदा यह होगा कि मालवा और बुंदेलखंड में कांग्रेस ताकतवर हो जाएगी। खासकर मालवा में अभी भी कांग्रेस के पुराने दिग्गज सिंधिया को पसंद करते हैं, लेकिन सुभाष यादव, दिग्विजय सिंह सहित कई बड़े नेता सिंधिया की राह में रोड़े अटका सकते हैं। सियासत के इस खेल में दिग्विजय आज भी मध्यप्रदेश में महत्वपूर्ण खिलाड़ी बने हुए हैं। उन्हें उपेक्षित कर मध्यप्रदेश में कांग्रेस कोई बड़ा फैसला नहीं कर सकती। भले ही पदाधिकारियों ने खुलकर दिग्विजय सिंह को प्रदेश से बाहर रखने की बात की हो, किंतु सच्चाई तो यह है कि मध्यप्रदेश में दिग्विजय अनिवार्य है। कार्यकर्ताओं में उनकी लोकप्रियता किसी भी नेता के मुकाबले अधिक है। हालांकि सिंधिया और कमलनाथ से वे बराबर की दूरी बनाकर चलते हैं। लेकिन कांतिलाल भूरिया पर भी ऊपर ही ऊपर प्रेम दिखाते हैं और आदिवासी कार्ड खेलने के माहिर हैं। छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपना कमाल दिखा ही दिया था। यदि मध्यप्रदेश में आदिवासी कार्ड खेला गया तो कांग्रेस की पर्याप्त सीट आने की स्थिति में दिग्विजय सिंह उर्मिला सिंह को भी आगे कर सकते हैं। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश की राज्यपाल श्रीमती उर्मिला सिंह एक चौंकाने वाला नाम है, लेकिन भीतरी खबर यह है कि कांतिलाल भूरिया को रोकने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। उर्मिला सिंह की 10 जनपथ में भी अच्छी पकड़ है, जिसका फायदा उन्हें आगे मिलेगा।
सियासत के इस खेल में अजय सिंह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से लगभग बाहर बताए जा रहे हैं। वह स्वयं भी इस तथ्य से अवगत हैं, लेकिन प्रदेश में मेहनत करने में कोई कसर इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि आशा से आसमान बंधा है। कभी दाऊ साहब को कुर्सी दिलवाने में कमलनाथ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस बार वे ही कमलनाथ कांग्रेस का अर्थशास्त्र भी देखेंगे। 10 वर्ष तक सत्ता से दूर रही कांग्रेस की अर्थव्यवस्था मध्यप्रदेश में बहुत गड़बड़ा गई है।
आने वाले दिनों में कांग्रेस में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं। वीके हरिप्रसाद विदाई की बेला में है, लेकिन पहले सिंधिया को चुनाव समिति की कमान सौंपने की तैयारी चल रही है। कांग्रेस के भीतरी सूत्रों की माने तो सिंधिया को कांग्रेस में अपीलिंग फेस समझा जा रहा है और जिस तरह क्रिकेट की राजनीति में वे अविजित रहे हैं उसी तरह प्रदेश में भी चुनाव जिता सकते हैं ऐसा कुछ नेताओं का मानना है। सिंधिया के आने से मालवा में भी पाटी की हालत सुधरेगी। राजवंशों का प्रभाव मालवा में अभी पूरी तरह मिटा नहीं है। दिग्विजय- सिंधिया-भूरिया एक ऐसा त्रिकोण है जो मध्यप्रदेश में सत्ता दिलवा भी सकता है और कांग्रेस को बुरी तरह डुबा भी सकता है।
बहरहाल कुछ सक्रियता सुरेश पचौरी ने भी दिखाई है। हाशिए से बाहर जाते पचौरी को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की भोपाल यात्रा के बहाने ताकत दिखाने का मौका मिल गया। पचौरी ज्यादातर समय राष्ट्रपति के साथ मंच में करीब ही बैठे रहे और राजभवन में भी राष्ट्रपति से उनकी निकटता चर्चा का विषय रही। खबर यह भी है कि पचौरी समर्थकों ने राजधानी में राष्ट्रपति के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगा रखे थे। देखना यह है कि लूपलाइन पर चल रहे पचौरी को राष्ट्रपति की निकटता से प्रदेश में क्या लाभ मिलता है। फिलहाल तो कांग्रेसी पचौरी के विषय में बात करने में विशेष रुचि नहीं दिखाते हैं। जहां तक चुनाव का प्रश्न है कांग्रेस ने चुनाव को देखते हुए सक्रियता बढ़ा दी है। सत्यव्रत चतुर्वेदी, मीनाक्षी नटराजन, सज्जन सिंह वर्मा जैसे नेताओं के लिए चुनावी भूमिका आने वाले दिनों में तय कर दी जाएगी। अगले माह पार्टी अपने कार्यक्रमों की घोषणा करेगी। सांसदों को अपने क्षेत्रों में समन्वय की जिम्मेदारी सौंपी गई है। भाजपा विधायक और मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर पोल खोलो अभियान चलाने की योजना है छत्तीसगढ़ में हुआ नक्सली हमला मध्यप्रदेश में भी चुनावी मुद्दा बन सकता है।
किंतु यह तभी संभव है जब कांग्रेस आक्रामक रणनीति अपनाए। फिलहाल तो जिन लोगों को जिम्मेदारी सौंपी गई है वह स्वयं ही चुनाव हारकर बैठे हैं। रामेश्वर नीखरा, प्रताप भानु शर्मा, इंद्रजीत पटेल, मानक अंग्रवाल, विजय दुबे, सुनील सूद, एडवोकेट साजिद अली, चंद्रभान लोधी, रमेश अग्रवाल, आभा सिंह, अशोक सिंह जैसे नेताओं को भाजपा के दिग्गजों को घेरने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। सवाल यह है कि जो खुद चुनाव नहीं जीत सके वे इन मंत्रियों को कौन सी रणनीति के तहत घेर सकेंगे। यही हाल उन नेताओं का है जो बार-बार चुनाव हारने के बाद भी टिकिट की उम्मीद लगाए बैठे हैं। कांग्रेस की एक उच्च स्तरीय समिति ने टिकिट वितरण में भारी परिवर्तन का सुझाव दिया है। यदि राहुल गांधी का फार्मूला लागू किया गया तो मध्यप्रदेश में चुनाव के समय कांग्रेस की तरफ से कुछ नए चेहरे उभरकर सामने आ सकते हैं। वैसे भी बार-बार हारने वालों को संगठन और सत्ता में भूमिका देने पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बेहद नाराजगी देखी जा रही है। लेकिन जिस तरह का कार्य विभाजन कांग्रेस ने किया है उसमें दिग्विजय और कमलनाथ का दबदबा साफ देखा जा सकता है। यही आलम रहा तो चुनाव के समय इन्हीं नेताओं के पास असली शक्ति केंद्रित रहेगी।
इस बीच दिग्विजय सिंह ने जहां भाजपा नेताओं पर जमीन लूटने का आरोप लगाया है, वहीं राहुल भैया ने कहा है कि सत्ता में आने पर कांग्रेस मुख्यमंत्री की पंचायतों की जांच करवाएगी। चुनाव के समय कांग्रेस शिवराज सिंह को घेरने की रणनीति बना रही है और फिलहाल शिवराज का कोई तोड़ सामने नहीं आ पाया है। इसी कारण कांग्रेस में यह मांग उठी है कि शिवराज के समकक्ष किसी चेहरे को प्रस्तुत करने से कार्यकर्ताओं में उत्साह भी आएगा और चुनाव भी टक्कर का हो सकता है, पर यह तभी संभव है जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस गुटबाजी से उभरकर सही दिशा में काम करे। राहुल गांधी कांग्रेस की इस मजबूरी को समझते हैं इसलिए वे गुपचुप फीडबैक ले रहे हैं। चौथे चरण की परितर्वन यात्रा को लेकर भी जो फीडबैक राहुल गांधी को भेजा गया था उसका सार यही था कि प्रदेश में अभी भी दिग्गज नेता एक मंच पर नहीं आ सके हैं। बाद में राहुल गांधी के निर्देश पर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में दिग्गज नेताओं की एकता दिखाने की कोशिश की गई। राहुल ने प्रदेश में नेताओं को आक्रामक प्रचार करने की समझाइश दी है। कुछ समय पूर्व जब केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश परिवर्तन यात्रा में शामिल हुए थे तो उन्होंने भी प्रदेश सरकार के खिलाफ आक्रामक तेवर दिखाए थे। पर प्रदेश के नेता भाजपा सरकार के खिलाफ ढिलाई क्यों बरत रहे हैं यह समझ से परे हैं। कांग्रेस आलाकमान भी इस गुत्थी को सुलझाने में जुटा हुआ है कि आखिर कांगे्रस जानबूझकर भाजपा को वाक ओवर क्यों दे रही है।
कुमार राजेंद्र