16-Jan-2018 07:42 AM
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नसीम निकहत का एक शेर है...
अपने चेहरे को बदलना तो बहुत मुश्किल है
दिल बहल जाएगा आईना बदलकर देखो।
कुछ इसी तर्ज पर मप्र में कुछ आईएएस अफसरों ने नौकरशाही के चाल, चेहरा और चरित्र के सांचे से बाहर निकले की कोशिश की है, जिसके कारण वे इनदिनों देशभर में चर्चा और विवाद का विषय बने हुए हैं। दरअसल, मध्य प्रदेश में इन दिनों जिला कलेक्टरों की धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता बढ़ी है। कोई सिर पर पादुका लेकर घूम रहा है तो कोई झंडा लेकर चल रहा है तो कोई भगवा पहन ढोल बजाने के साथ ही झंडा थामे नाच रहा है। विपक्ष को लगता है ये नियमों का उल्लंघन है और सरकार को इसमें कुछ गलत नहीं दिखता। उधर, कुछ लोग नौकरशाहों के इस बदले स्वरूप को सामाजिक समरसता मान रहे हैं वहीं कुछ नौकरशाही का भगवाकरण।
दरअसल, प्रत्येक देश या राज्य का शासन व प्रशासन नौकरशाहों के इर्द-गिर्द घूर्णन करता दिखाई देता है। नौकरशाही शब्द जहां एक ओर अपने नकारात्मक अर्थों में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, पक्षपात, अहंकार, अभिजात्य उन्मुखी, अपनी प्रकृति के लिए कुख्यात है तो दूसरी ओर प्रगति, कल्याण, सामाजिक परिवर्तन एवं कानून व्यवस्था व सुरक्षा के संवाहक के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय मानस के अनुसार नौकरशाही में व्यवहार का रूप कठोर, यन्त्रद्ध, कष्टमय, अमानुषिक, औपचारिक तथा आत्मारहित होता है। इसकी मूल वजह है भारतीय नौकरशाही पर अंग्रेजों की छाप। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान नौकरशाही व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। परंतु उस समय ये नौकरशाह अंग्रेजी शासन के प्रति पूर्णत: राजभक्त तथा शासन के रक्षा कवच की भांति होते थे। सामान्यत: प्रत्येक जिले के कलेक्टर (प्रशासक) को जनता अपना माई बाप समझती थी। वस्तुत: 1937 में भारत के सात प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बन जाने के पश्चात इनकी निपुणता में कमी आई। स्वयं महात्मा गांधी इससे बहुत दु:खी थे। यदि महात्मा गांधी के कलेक्टेड वक्र्स में दिए गए उनके तत्कालीन वक्तव्यों, पत्रों तथा भाषणों को पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जाता है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय नौकरशाही के कार्यों को महानतम दु:ख कहा था। भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पहली बार भारतीय प्रशासकों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उनसे राजभक्ति से देशभक्ति की ओर प्रवृत्त होने का आह्वान किया था। परंतु उनकी शीघ्र मृत्यु हो जाने के कारण वे उनमें कोई परिवर्तन नहीं ला सके। इन सभी नेताओं की नजर में नौकरशाही अंग्रेजी शासन की तरह व्यवहार कर रही थी।
आज भी नौकरशाही उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है। सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष तक नौकरशाही पर आरोप लगाते हैं कि आजादी के 70 साल बाद भी नौकरशाही भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपना नहीं पाई है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो ऐसा दिखता भी है। दरअसल अभी तक नौकरशाही को केवल राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों में ही व्यस्त रखा जाता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह देखा जा रहा है कि नौकरशाही को सामाजिक, धार्मिक कार्यों की भी जिम्मेदारी दी जा रही है। इससे नौकरशाही पर भी इनका रंग चढ़ता जा रहा है। ऐसे में अब जब नौकरशाही ने अपना व्यवहार बदलने की कोशिश क्या कि है उसे चापलूस, चाटूकार नाम दिया जा रहा है। उनके कृत्य को अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमों के विपरीत माना जा रहा है।
दरअसल, मध्य प्रदेश में आदि शंकराचार्य की प्रतिमा के लिए धातु संग्रहण और जनजागरण अभियान के लिए चल रही एकात्म यात्रा में कुछ कलेक्टरों ने जनता के रंग में रंगने की कोशिश की है। एकात्म यात्रा में मंडल कलेक्टर सूफिया फारुखी ने शंकराचार्य की चरण पादुकाओं का पूजन किया और पादुकाओं को सिर पर रखकर यात्रा में चलीं। इन तस्वीरों से मुस्लिम धर्मगुरू नाराज हो गए। यही यात्रा जब दमोह पहुंची तो जिला कलेक्टर श्रीनिवास शर्मा भी भगवा ध्वजा थामे चलते रहे। विदिशा कलेक्टर ने भी पादुका उठाने की पूरी जिम्मेदारी निभाई साथ ही झंडा लेकर भी चले। अपने कलेक्टरों के इस रुख को देखकर वहां की जनता अहलादित दिखी।
कलेक्टरों के इस रुख को देखकर सरकार को लगता है ये अच्छी पहल है। कांग्रेस मानती है सिविल सेवा शपथ का उल्लंघन। जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा कहते हैं कि स्वाभाविक रूप से किसी की आदत कमी निकालने की पड़ जाती है। कलेक्टरों ने अच्छी नजीर पेश की है। वहीं नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का साफ निर्देश है कि कोई राजनीतिक यात्रा सरकार की तरफ से नहीं हो सकती। इस यात्रा में कलेक्टरों का जो रूप देखने को मिल रहा है वह अखिल भारतीय सेवा नियमों का उल्लंघन है। अभी इस मुद्दे पर बहस चल ही रही है कि उज्जैन कलेक्टर संकेत भोंडवे शैव प्रदर्शनी में भगवा पहनकर जिस तरह ढोल बजाया और झंडा लेकर नाचे उसने आग में घी का काम किया। आलम यह है कि कलेक्टरों के इस रुख को देखते हुए कई नौकरशाह भी इनके विरोध में उतर गए। कुछ ने सार्वजनिक तौर पर तो कुछ ने दबे छुपे अपनी भड़ास भी निकाली। कोई कह रहा है उन्होंने अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमों का उल्लंघन किया है तो कोई कह रहा है अपनी कुर्सी बचाने के लिए कलेक्टर ऐसा कर रहे हैं। पूर्व आईएफएस डबास ने मुख्यमंत्री की एकात्म यात्रा पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा, यह एकात्म यात्रा प्रदेश की भोली-भाली जनता को धार्मिक रूप से बहलाकर राजनीतिक रोटी सेंकना प्रतीत हो रहा है। उन्होंने सीएम से आग्रह किया कि वे निर्देश दें कि कलेक्टर जैसे अफसर यात्रा में बढ़-चढ़कर भाग लेने की बजाय अपने जिले के विकास पर ध्यान केन्द्रित करें।
क्या है अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम
अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमों के अनुसार शासकीय नौकर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते जो एक सरकारी नौकर होने के कारण अनुचित हो। राजनीतिक रूप से पक्षपात नहीं कर सकते। ऐसे हर काम से दूर रहना होता है जो स्थापित कानून, नियम और व्यवस्था के अनुरूप न हो। किसी राजनीतिक दल से निकटता नहीं दिखा सकते। किसी ऐसे कृत्य में मदद नहीं कर सकते जिसका मकसद राजनीतिक लाभ पाना हो। इस संदर्भ में देखा जाए तो एकात्म यात्रा कहीं से भी राजनीतिक नहीं दिखती। प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान कहते हैं कि यह यात्रा सरकारी है। इसलिए इस यात्रा की जिम्मेदारी सरकारी अधिकारियों को दी गई है।
सरकारी आदेश के अनुसार भी यह यात्रा पूरी तरह शासकीय है। इस यात्रा के संदर्भ में 14 नवंबर 2017 को योजना, आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग के अपर मुख्य सचिव दीपक खांडेकर ने सभी कलेक्टरों को 17 सूत्रीय निर्देश जारी किए हैं कि अपने जिले में एकात्म यात्रा की पूरी तैयारी की जाए। अत: यात्रा की पूरी जिम्मेदारी कलेक्टरों ने संभाली है। जब यह यात्रा सरकारी है और आदि शंकराचार्य की प्रतिमा स्थापित करने के लिए धातु संग्रहण एवं जनजागरण किया जा रहा है तो इसमें कलेक्टरों का सहभोगी बनना कहां अनुचित है? अपने जिले में चल रही इस यात्रा से अगर कोई कलेक्टर अपने आपको अलग रखता तो उस पर लालफीताशाही, अंग्रेजी वाली ब्यूराक्रेसी का ताना दिया जाता। अब जब मंडला, दमोह, विदिशा और उज्जैन के कलेक्टरों ने सामाजिक सद्भाव को बढ़ाने वाली यात्रा में सहभागी बने तो उन्हें कटघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है।
इस संदर्भ में पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद बेहार का कहना है कि अफसरों के इस व्यवहार से उनकी एक पार्टी के प्रति निष्ठा झलकती है। एक शासकीय अधिकारी संविधान के प्रति निष्ठा रखता है। इसलिए संवैधानिक मूल्यों का पालन करना उसका कर्तव्य है। जिस तरह की घटनाएं देखने को मिली है उससे हमारी सेवा की कमजोरी सामने आई है। किसी नौकरशाह को ऐसे कार्यों से दूर रहना चाहिए। वहीं पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच कहती हैं कि यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह देखे कि उसके अधिकारी अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमों का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं। एक कलेक्टर क्या करता है इसकी निगरानी सामान्य प्रशासन विभाग के अपर मुख्य सचिव या प्रमुख सचिव को करना होता है। वहीं मुख्य सचिव की जिम्मेदारी सभी की कार्यप्रणाली पर नजर रखने की है। वहीं इस मामले में सामान्य प्रशासन विभाग के अपर मुख्य सचिव प्रभांशु कमल का कहना है कि मैं इस संदर्भ में कुछ नहीं कहना चाहता। जो जीएडी के दिशा-निर्देश हैं उसका पालन होना चाहिए।
उधर राजनीति हुई तेज
कलेक्टरों द्वारा एकात्म यात्रा में चरणपादुका सिर पर रखने और झंडा लेकर चलने को लेकर प्रदेश की राजनीति में उफान आ गया है। मध्य प्रदेश भाजपा इकाई ने मंडला की जिला कलेक्टर सूफिया फारूकी के इस काम का प्रचार करने में समय नहीं गंवाया था। राज्य बीजेपी के मीडिया इंचार्ज लोकेंद्र पराशर ने ट्विटर पर उनकी फोटो को शेयर करते हुए इस अंदाज को सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक बताया। इस घटना पर मचे सियासी विवाद के बीच राज्यसभा में कांग्रेस सांसद विवेक तन्खा ने ट्वीट किया, सूफिया जी, यह यात्रा कुछ भी नहीं, बल्कि राजनीति है। कलेक्टरों और अफसरों को राजनीति से दूर रहने और इस तरह के किसी कार्यक्रम से सम्मानजनक दूरी बनाए रखने की सलाह दी जाती है। उधर, नेता विपक्ष अजय सिंह ने कहा कि वह मुख्य सचिव को पत्र लिखेंगे और उनसे पूछेंगे कि क्या प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह के कामों की इजाजत है। अजय सिंह कहते हैं कि नौकरशाही अपने आपको सरकार का करीबी बताने में जुटी हुई है। यानी अपनी कुर्सी बचाने के लिए कलेक्टर तरह-तरह के जतन कर यह दिखाने का प्रयास कर रहे है कि वे भी संघ से जुड़े हुए है।
कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि एक प्रशासनिक अफसर को इस तरह का आचरण नहीं करना चाहिए। कांग्रेस का यह विरोध तब फुस्स हो गया जब एक-एक कर लगभग सभी कलेक्टर चरण पादुकाओं को सिर पर रखकर एकात्म यात्रा का हिस्सा बन रहे हैं।
फिर राम राज्य की परिकल्पना क्यों?
भारत विविधतापूर्ण भाषा संस्कृति वाला देश है। देश को एक सूत्र में पिरोकर रखने के लिए ऐसे नेतृत्व की सदैव आवश्यकता रही है जो समस्त विविधताओं में समन्वय स्थापित कर सामाजिक व्यवस्था में समरसता बनाएं रख सकें। इस दृष्टि से मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम सामाजिक समरसता के अग्रदूत हैं। हमारे वेद तथा धर्मशास्त्रों में धर्म के स्वरूप व आचार-विचार की विवेचना तो हैं किन्तु सामाजिक जीवन में उसको व्यवहार में कैसे लाया जाए इसका आदर्श उदाहरण भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र में ही दृष्टिगोचर होता है। समस्त लौकिक व अलौकिक गुणों का समावेष भगवान श्रीराम के जीवन में स्पष्ट होता है। वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक साधारण मनुष्य के रूप में समस्त सामाजिक नैतिक राजनैतिक मर्यादाओं का जैसा पालन श्रीराम ने किया है वैसा कोई अन्य उदाहरण विश्व साहित्य में भी उपलब्ध नहीं है। इसी कारण भारत में राम राज्य की कल्पना बार-बार की जाती है। अब जब यहां की नौकरशाही अपने आपको जनता के साथ जोड़ रही है तो उस पर सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं। सरकारी आदेश और आयोजन के स्वरूप को देखते हुए तो यह
साफ दिख रहा है कि एकात्म यात्रा राजनीतिक नहीं है।
आजादी के बाद से ही नौकरशाही संदेह के घेरे में
दरअसल, भारत में आजादी के बाद से ही नौकरशाही संदेह के घेरे में रही है। एक प्रसिद्ध विद्वान के अनुसार भारतीय नौकरशाही में 26 ऐसे मुद्दे हैं जो ऊपर से नीचे तक व्याप्त हैं। ये मुद्दे हैं-सर्वत्र भ्रष्टाचार, निर्दयता, लालफीताशाही, झूठ बोलना, जान-बूझकर काम में देरी करना, परिस्थिति को टालना, बहाने बनाना, जांच को बढ़ाना, भूलना, जोर से चिल्लाना, अव्यवस्था, फाइलें न मिलना, फाइल कतार में लगी है बताना, असफलता आदि। अनेक कार्यों में उनकी भूमिका घुमावदार, अपराधपूर्ण तथा कपटी जैसी होती है। विश्व में भारत के नौकरशाहों को सर्वाधिक खतरनाक शक्तियों से युक्त माना जाता है। ये शक्तियां गला घोटने वाली, सुस्त तथा कष्टदायक हैं। लेकिन अब नौकरशाही का चाल, चेहरा और चरित्र बदल रहा है।
गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बनी सूफिया फारूकी
प्रदेश में कलेक्टरों द्वारा एकात्म यात्रा में आदि शंकराचार्य की चरणपादुका लेकर चलने पर राजनीतिक तौर पर भले ही विवाद हो रहा है, लेकिन जनता को इसमें सामाजिक समरसता दिख रही है। जनता की नजर में तो मंडला की कलेक्टर सूफिया फारुकी ने अपने कदम से समाज में बेहतरीन संदेश दिया है। मुस्लिम समुदाय से आने वालीं कलेक्टर सूफिया फारुकी ने इस कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर शिरकत कीं। इस मौके पर सूफिया फारुकी ने हिन्दू रीति-रिवाजों से एकात्म यात्रा का स्वागत किया, इस दौरान साड़ी में नजर आ रहीं कलेक्टर साहिबा शंकराचार्य की चरणपादुका को सिर पर रख कर यात्रा में चलीं और चरण पादुकाओं का पूजन भी किया। सूफिया फारुकी के इस कदम की सोशल मीडिया और स्थानीय मीडिया में काफी तारीफ हुई है। शंकराचार्य की चरण पादुका को सिर पर उठाये उनकी तस्वीर लोगों ने काफी पसंद की और इसे भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बताया। हालांकि इसके बाद राजनीति भी शुरू हो गई, लेकिन कलेक्टर सूफिया फारूकी वली ने जिस तरह सर्वधर्म समभाव को सर्वोपरि बताया है इससे सभी की आंखे खुल गई हैं। उन्होंने कहा कि एक कलेक्टर होने के नाते सामाजिक समरसता के लिए कोशिश करना हमारा कर्तव्य है। मैं हिंदू ही नहीं सिख, मुस्लिम और ईसाई समुदाय के कार्यक्रमों में भी शामिल होती हूं। छुआछूत खत्म करने के लिए मैंने सामाजिक समरसता कार्यक्रम में भी भोजन किया है। यह निजी नहीं, बल्कि एक सरकारी कार्यक्रम था। कलेक्टर होने के नाते मुझे ही इस कार्यक्रम की अगुवाई करनी थी। कई जगह कलेक्टर ही मठ और मंदिर के प्रमुख होते हैं। यह मेरी ड्यूटी का हिस्सा है। मैं दर्शनशास्त्र की छात्रा रही हूं। मैंने शंकराचार्य का अद्वैतवाद के बारे में काफी गहराई से पढ़ा है। यह निरंकारी शंकर की बात करता है। जिसका कोई आकार नहीं, कोई धर्म नहीं। इस लिहाज से यह सर्वधर्म समभाव ही तो है।
इधर कई अफसर विरोध में
कलेक्टरों द्वारा आदि शंकराचार्य की पादुका सिर पर लेकर चलने पर कई अफसरों ने विरोध जताया है। नौकरशाहों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए सीएम से आग्रह किया है कि वे कलेक्टरों को निर्देश दें कि वे जिम्मेदार पद पर बैठे हैं, इसलिए यात्रा के बजाय अपने जिले के विकास पर ध्यान केन्द्रित करें। उन्होंने सवाल उठाया कि यह देखकर आश्चर्य होता है कि कलेक्टर जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे अधिकारियों को क्या-क्या करना पड़ता है। कलेक्टर का यह तर्क और चौंकाता है कि सामाजिक समरसता के लिए इस आयोजन में शामिल हुईं। वहीं पूर्व आईएफएस आजाद सिंह डबास ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अपनी भड़ास निकाली है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि राज्य के मुख्य सचिव को मूल काम छोड़कर राजस्व मामलों के लिए संभाग स्तर पर बैठकें लेना पड़ रहा हैं, कलेक्टर जिले के विकास छोड़ अन्य कार्यों में लगे हैं। पत्र में मंडला कलेक्टर सूफिया फारुखी द्वारा एकात्म यात्रा में आदि शंकराचार्य की चरण पादुकाएं सिर पर रखकर चलने को अनुचित बताया। जबकि, मंडला जिले की ही बात करें तो वह विकास में काफी पिछड़ा है। प्रदेश में भरपूर बिजली पैदा होने के सरकारी दावे के बावजूद आदिवासी किसानों को समय पर बिजली नहीं मिल पा रही है। भ्रष्टाचार का बोलबाला है। ऐसी गंभीर परिस्थितियों होने पर भी कलेक्टर मूल काम छोड़कर यात्रा में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। यह सिर्फ मंडला जिले की बात नहीं है, अन्य जिलों में भी ऐसा ही हो रहा है।
इस देश में भगवा से इतना बैर क्यों?
मंडला, दमोह, विदिशा और उज्जैन के कलेक्टर ने पिछले दिनों सामाजिक समरसता के लिए जो कुछ किया उसे नौकरशाही का भगवाकरण होना माना जा रहा है। आखिर भारत में भगवा से इतना बैर क्यों? भगवा एक पार्टी का नहीं वरन सतत कर्म, अभ्युदय और नि:श्रेयस का रंग है। यह रंग भारत को प्रिय है। भारत के प्राणों में रचा बसा है भगवा। भगवा वर्तमान राजनीति का चर्चित शब्द है। एक वर्ग के राजनीतिज्ञ राष्ट्रवादी राजनीति पर भगवाकरण का आरोप लगाते हैं लेकिन अर्थ स्पष्ट नहीं करते। आखिरकार भगवा का अर्थ है क्या? भग का साधारण अर्थ है - दाता, देने वाला। इसी भग से विकसित हुआ भगवा रंग। भगवा त्याग, प्रकाश, ज्ञान और मुक्त जिज्ञासा का प्रतीक है। भग संपूर्ण ऐश्वर्य है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ऐश्वर्य। इस ऐश्वर्य का रंग वर्ण भगवा है और भग के सम्पूर्ण ऐश्वर्य का धारक भगवान है। भगवान संपूर्णता में विद्यमान संपूर्ण धर्म का धारक हैं और लोकसंग्रह से प्राप्त संपूर्ण यश का भी स्वामी है। यह सत्य है लेकिन प्रकृति के परम सौन्दर्य को धारण करता है, अभिव्यक्त भी करता है। यह सत्य है, शिव और सुंदर भी है। यही संपूर्ण ज्ञान है, ज्ञाता है। ज्ञाता का विषय है। ज्ञान का लक्ष्य है। ज्ञान की सर्वोत्तम उपलब्धि भी है। समस्त सार और असार इसके भीतर हैं। भक्त का चरम भगवान है उसकी प्रीति भगवा है। भगवा भारत की प्रकृति है और प्रकृति भगवान की अभिव्यक्ति है। अब कोई इसके रंग में रंगता है तो यह अपराध तो नहीं है।