आत्महत्या की खेती
02-Feb-2018 07:02 AM 1235012
मप्र और उत्तर प्रदेश के 13 जिलों से बने बुंदेलखंड में इन दिनों किसानों का बुरा हाल है। रोजगारी के अभाव में यहां के किसान और उनके परिवार आत्महत्या को मजबूर हैं। मध्य प्रदेश में वर्ष 2017 में 760 किसान और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की है। इनमें से 81 बुंदेलखंड से आते हैं। वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के सात जिलों का हाल और भी बुरा है। तमाम मीडिया रिपोर्टों के आधार पर यहां सालभर में 266 किसान और खेतिहर मजदूरों ने खुदकुशी की। इनमें 184 ने फांसी लगाकर, 26 ने रेल से कटकर या कीटनाशक पीकर जान दी। वहीं बाकी 56 में कई तो ऐसे हैं, जिन्होंने खुद को आग लगाकर जान दे दी। किसान समस्या और जल संरक्षण के लिए बुंदेलखंड में अरसे से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता संजय सिंह का कहना है, यह बात पूरी तरह सही है कि जो किसान आत्महत्या करता है या जिस गांव में ज्यादा आत्महत्याएं होती हैं, वहां का किशोर अन्य सामान्य किशोरों से अलग होता है। वह डरा-सहमा, परेशान और हताश नजर आता है। इसे उन किशोरों के चेहरे पर आसानी से पढ़ा जा सकता है। बुंदेलखंड की महिला सामाजिक कार्यकर्ता ममता जैन कहती हैं कि बुंदेलखंड में एक तरफ सूखा पड़ रहा है, तो दूसरी ओर रोजगार के बेहतर अवसर नहीं है। यही कारण है कि बड़ी संख्या में लोग पलायन करते हैं। इस बार भी ऐसा ही कुछ है। किशोर मन पर जीवन की किसी भी घटना का असर सबसे ज्यादा होता है, इसलिए आत्महत्या की घटनाओं का उन पर असर होना लाजिमी है। बुंदेलखंड में दोनों ही राज्यों की स्थिति कमोबेश एक सी है। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के बाबाखेरा गांव में 28 साल के हजारी लाल आदिवासी ने फांसी लगाकर 28 दिसंबर को जान दे दी। इसी जिले के पृथ्वीपुर थाने के बरगोला खिरक धनीराम कुशवाहा ने 29 दिसंबर को आत्महत्या कर ली। इसके परिवार के पास डेढ़ एकड़ जमीन है लेकिन सूखा पड़ गया और खेती नहीं हुई। झांसी के उल्दन थाना के बिजना गांव में 67 साल की बुजुर्ग किसान महिला धनकुंवर कुशवाहा ने 25 दिसंबर को फांसी के फंदे से लटककर सिर्फ इसलिए जान दे दी, क्योंकि फसल चौपट हो गई थी। बैंक का कर्ज था। परिवार में शादी सिर्फ इसलिए टूट गई थी कि उसके परिवार पर कर्ज था। फसल चौपट हो चुकी थी और दूसरा कोई कारोबार नहीं था जिसके चलते धनकुंवर तनाव में थी। जल-जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह ने बताया, बुंदेलखंड में किसान की आर्थिक तौर पर कमजोर हो गया है। झांसी जिले के बबीना विकास खंड का एक किसान अपनी बेटी के इलाज के लिए झांसी से बेंगलुरू तक चक्कर लगाता रहा। इसके लिए साहूकार से कर्ज लिया लेकिन डेढ़ एकड़ जमीन में कुछ पैदावार नहीं हुई और उसने आत्महत्या कर ली। इस इलाके में लगातार तीसरे वर्ष सूखा पड़ा है। आम किसान यूनियन के संस्थापक सदस्य केदार सिरोही कहते हैं कि सरकार किसानों की आमदनी दो गुना करने का वादा करती है, फसल के डेढ़ गुना दाम देने की घोषणा होती है। कर्ज माफी की बात कही जाती है, मगर जमीन पर कुछ नहीं होता। खेती की लागत बढ़ती जा रही है, वह हर बार नई संभावना के चलते कर्ज लेकर खेती करता है, मगर उसके हिस्से में घाटा आता है। पढ़ाई और स्वास्थ्य का इंतजाम भी उसके लिए आसान नहीं। यही कारण है कि जब किसान हताश हो जाता है, तो आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर होता है। बच्चों को खोखला करतीं किसानों की आत्महत्याएं बुंदेलखंड में बड़ी संख्या में हो रही किसान आत्महत्याओं की दहशत इलाके के बच्चों के दिल और दिमाग पर बहुत गहरा असर छोड़ रही है। यह दुष्प्रभाव उनकी पूरी जिंदगी में नजर आएगा, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। भोपाल की मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. रोमा भट्टाचार्य ने माना, जब किसी किशोर के परिवार का वरिष्ठ सदस्य या कोई करीबी आत्महत्या कर लेता है, तो उसके मन पर जो असर होता है, वह जीवन भर रहता है। उसमें हमेशा असुरक्षा का भाव नजर आता है, तो उसे हर वक्त यही लगता है कि वह कहीं जीवन से संघर्ष में असफल न हो जाए। वे कहती हैं, किशोरावस्था में अपनों खासकर माता-पिता की आत्महत्या के चलते हताशा में आए लोग युवावस्था में कई बार न तो बेहतर संबंध बना पाते हैं और न ही उनमें आत्मविश्वास आ पाता है। उनकी हालत तो यह होती है कि घर का कोई व्यक्ति कुछ देर के लिए बाहर जाए और समय से न लौटे तो उन्हें घबराहट होने लगती है और अनहोनी की आशंका तक सताने लगती है। -धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया
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