01-Jan-2018 09:48 AM
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वाकई नरेंद्र मोदी जादूगर हैं। उनके जादुई प्रभाव और अथक प्रयास से हिमाचल प्रदेश में सत्ता के पलटने से भगवे रंग का दायरा और बढ़ गया है। यानी भाजपा अब देश के 29 में से 19 राज्यों की सरकार में है। 26 मई 2014 को जब भाजपा ने लोकसभा में शानदार जीत दर्ज की तब भाजपा की 5 राज्यों गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और नगालैंड में सरकार थी। अब यानी करीब साढ़े तीन साल में भाजपा की 29 में से 19 राज्यों में सरकार है।
तो क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा होने को है? लेकिन गुजरात के नतीजे कुछ अलग ही कहानी कह रहे हैं। कहां तो 182 सीटों में से दो-तिहाई जीतने की बात भाजपा कर रही थी और कहां वह 99 सीटों पर सिमट गई। यह बहुमत से सात ही अधिक है। हालांकि, भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है। भाजपा का समर्थक वर्ग गुजरात में उसके साथ बना हुआ है और न ही कांग्रेस और न ही सत्ता विरोधी लहर इसे प्रभावी तौर पर हिला पाई है, लेकिन गुजरात के परिणाम ने भाजपा को भविष्य के लिए सचेत कर दिया है। गुजरात चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट है कि अच्छे दिन और सबका साथ, सबका विकास की उम्मीदें धुंधली हो रही हैं। ऐसे में इस साल छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान व कर्नाटक सहित 8 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए चुनौती भरे होंगे।
भाजपा की कमजोरियां उजागर
गुजरात के नतीजों ने भाजपा की कमजोरियां भी उजागर कर दीं। 2018 में जब वह राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावों के लिए खुद को तैयार करेगी तो ये कमजोरियां उसे परेशान करेंगी। वोट बटोरने वाले नेता के रूप में मोदी के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भरता है और दूसरी कतार का नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आ रहा। वोट की प्रवृत्ति में भी शहरी-ग्रामीण भेद साफ नजर आ रहा है। गांवों में कांग्रेस ने भाजपा को मात दे दी क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी किसानों की दिक्कतों और ग्रामीण गरीबी को दूर करने जैसे मसलों से निबटने में नाकाम रही। युवाओं और बेरोजगारों में भी मोहभंग की स्थिति बढ़ रही है, जिन्हें राहुल और हार्दिक ने कारगर तरीके से एकजुट किया। यह मान लेना जी को दिलासा देना ही होगा कि मतदाताओं ने अर्थव्यवस्था में सुस्ती लाने के बावजूद नोटबंदी और जीएसटी का अनुमोदन किया है। गुजरात के शहरों ने मोदी का साथ दिया है तो बस इसलिए कि बाकी लोगों की तुलना में वे अब भी मोदी को ही मौजूदा आर्थिक हालात से देश को बाहर निकालने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति मानते हैं। इस वजह से भी कि केंद्र सरकार ने जीएसटी संबंधी उन कई दिक्कतों को हटाने के लिए अपने कदम वापस खींच लिए जिनके कारण राज्य के व्यापारी विरोध में खड़े हो गए थे।
कहां गया विकास का मॉडल
जिस गुजरात मॉडल को देशभर में लागू करने की बात मोदी करते फिरते हैं वह गुजरात में गायब रहा। मोदी और भाजपा ने जीतने की बेताबी में गुजरात में प्रचार के आखिरी दौर में गुजरात के विकास मॉडल की बातों को किनारे करके सांप्रदायिक तौर पर विभाजनकारी बातों को केंद्र में कर लिया। नतीजा: कांग्रेस राख से जी उठी और भाजपा की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में हरकत में आ गई।
चुनाव परिणाम के बाद अमित शाह गुजरात में भाजपा की सीटें घटने के पीछे जातिवाद की राजनीति पर जो ठीकरा मढ़ रहे हैं, उन्हें इस बात पर भी विचार करना होगा कि उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री को जनता के सामने भाजपा को रोकने के लिए पाकिस्तान की साजिशों और मणिशंकर अय्यर सरीखे बौद्धिक सामंतों के साथ पाक के पूर्व विदेश मंत्री की बैठक के जरिए गुजरात और भाजपा की साजिशों के प्रचार (?) की कहानियां गढऩे को विवश होना पड़ा? वो तो भला हो हार्दिक पटेल का, जिन्होंने जिला प्रशासन की इजाजत के बगैर अहमदाबाद और वड़ोदरा में रैलियां करके जनता को यह सोचने पर विवश कर दिया कि जो विपक्ष की राजनीति करते हुए इतना निरंकुश हो सकता है वह सत्ता के संरक्षण के बाद क्या करेगा? लेकिन यह बात तय है कि गुजरात का यह नतीजा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिए खतरे की घंटी है। वो इसलिए, क्योंकि इन तीनों राज्यों में केंद्र की मोदी सरकार की एंटी-इनकम्बेंसी के साथ शिवराज सिंह चौहान, डॉ.रमन सिंह और वसुंधरा राजे की व्यवस्था विरोधी लहर से रूबरू होने वाली है। मोदी ने अपने राज्य की व्यवस्था विरोधी लहर को तो साम-दाम-दंड- भेद से झेल लिया है, पर इन राज्यों में वह क्या कर सकेंगे?
मप्र, छग और राजस्थान को बचाने की चुनौती
भाजपा के लिए 2017 तो शुभ साबित हो गया पर 2018 को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। कई प्रदेशों में इस वर्ष विधानसभा चुनाव होंगे। कुछ जगह भाजपा अपनी सरकार बचाना चाहेगी तो कुछ प्रदेशों में कांग्रेस से सत्ता झटकने का मंसूबा पालेगी। हां, गुजरात में कांग्रेस की बढ़त के बाद अब कांग्रेस मुक्त भारत का राग शायद अमित शाह नहीं अलापेंगे। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को बचाना आसान नहीं होगा। लंबे राज के कारण पैदा होने वाला व्यवस्था विरोधी रुझान मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आड़े आएगा। राजस्थान का मिजाज हिमाचल सरीखा ठहरा। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा 2003 से लगातार सत्ता पर काबिज है तो भी इन दोनों सूबों से ज्यादा चिंता मोदी और शाह की जोड़ी को गुजरात से सटे राजस्थान को लेकर दिखती है। इस सूबे का सियासी मिजाज हिमाचल सरीखा ठहरा। मतदाता ज्यादा ही जागरूक हैं। हर बार सरकार बदल देते हैं। इस नाते कांग्रेस आत्मविश्वास पाल सकती है पर पंजाब में इस तरह के कयास 2012 में गलत साबित हो गए थे जब शिरोमणि अकाली दल और भाजपा के गठबंधन को सूबे के लोगों ने परंपरा तोड़ कर दोबारा राजपाट सौंप दिया था। राजस्थान में पिछली दफा वसुंधरा राजे ने बंपर बहुमत का नया कीर्तिमान बनाया था, लेकिन अपने चार साल के कार्यकाल में वे कोई सकारात्मक छवि पेश नहीं कर पाई हैं। ऊपर से संघी खेमे से इस दौरान उनकी दूरी लगातार बनी रही। विधानसभा चुनाव से पहले इस सूबे में अजमेर और अलवर की लोकसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो जाएगा। देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस उपचुनाव में कैसा प्रदर्शन करेगी।
चार साल के वसुंधरा सरकार के कार्यकाल के जश्न में तो लोगों ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। मंत्रियों को भी हर जगह विरोध का सामना करना पड़ रहा है। लोग काले झंडे नहीं ले जा पाए तो अपने काले स्वेटर और कोट ही लहरा कर मंत्रियों को अपने गुस्से से अवगत कराया। नतीजतन अब पुलिस चौकन्नी हो गई है कि ऐसे किसी भी कार्यक्रम में कोई काले कपड़े पहन कर न पहुंचे। सरकार की चौथी वर्षगांठ पर हर जिले में विकास प्रदर्शनी लगी तो भाजपा के कार्यकर्ता ही खिल्ली उड़ाते नजर आए कि कहां हुआ विकास।
किसान पुत्र की छवि पर दांव
गुजरात में भाजपा के पास प्रदेशस्तर का कोई बड़ा चेहरा न हो पर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के रूप में उसके पास बेहद लोकप्रिय चेहरा है। सीएम की सहजता और सरलता के कारण 12 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भी लगातार उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। इस चुनाव में भी शिवराज सिंह पीएम नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के साथ प्रदेश में तारणहार की भूमिका में होंगे। खुद को किसान पुत्र कहने वाले शिवराज सिंह को इस बार भी किसानों के मतों का भरोसा है।
गुजरात चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि मप्र में सियासी जंग में तख्तापलट की भूमिका किसान निभा सकते हैं, इसलिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही राजनीतिक दलों का मुख्य फोकस किसान हो गया है। दोनों ही दल आने वाले समय में किसानों को ध्यान में रखकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करने में जुट गए हैं। प्रदेश कांग्रेस में तैयार हो रहा रोड मैप यदि लागू किया तो कांग्रेस का इस बार फोकस ग्रामीणों क्षेत्रों में ज्यादा होगा। मिशन 2018 के लिए एआईसीसी के निर्देश पर प्रदेश कांग्रेस रोड मैप तैयार कर रही है। इस मैप में प्रदेश में किसानों को साधने का काम किया जाएगा। ऐसा माना जा रहा है कि जनवरी या फरवरी में प्रदेश कांग्रेस किसान आक्रोश रैली की शुरूआत करेगी। किसान आक्रोश रैली 63 संगठनात्मक क्षेत्रों में आयोजित होगी।
गुजरात चुनाव के परिणामों ने भी ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा फोकस करने की तरफ पार्टी को संकेत दिए हैं। प्रदेश में किसानों और ग्रामीणों की कई समस्याएं हैं जो सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। इसका फायदा कांग्रेस कैसे उठाए इसे लेकर रणनीति बनाई जा रही है। इस रणनीति के तहत यह सामने आया कि किसानों को पार्टी की तरफ आकर्षित किया जाए। वहीं प्रदेश सरकार को किसानों के मुद्दों पर किसानों के बीच जाकर ही घेरा जाएगा। इसके लिए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को मैदान में उतारा जाएगा। पहले चरण में किसान आक्रोश रैली में जिला मुख्यालयों की जगह पर किसी बड़ी तहसील या कस्बे में ये आक्रोश रैली करवाने का रोड मैप तैयार हो रहा है।
घटते वोट बैंक ने बढ़ाई चिंता
गुजरात में भाजपा की सरकार भले ही बन गई हो पर वहां लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के घटते वोट बैंक ने पार्टी के रणनीतिकारों को गहरी चिंता में डाल दिया है। मध्यप्रदेश से सटे इस राज्य के नतीजे मध्यप्रदेश पर भी दूरगामी असर डालने वाले होंगे। ग्यारह महीने बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में गुजरात के नतीजे प्रदेश में चौथी बार सत्ता आरोहण की तैयारी में लगी कैडर बेस भाजपा के लिए सावधान और खबरदार करने वाले हैं। भाजपा के लिए चिंताजनक यह भी है कि तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में उसे साठ फीसदी वोट के साथ 161 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी। वहीं कांग्रेस को 33 प्रतिशत मत मिले थे। विधानसभा चुनाव में भाजपा को जहां 49.1 फीसदी मत मिले वहीं कांग्रेस 33 से बढ़कर 41.9 फीसदी मत लेने में सफल रही। मतों में 11 फीसदी तक की गिरावट ने भाजपा को चौंका दिया है। गुजरात चुनाव परिणाम को 2019 के लोकसभा चुनाव की स्क्रीप्ट माना जा रहा है।
राहुल गांधी ने दिखा दी अपनी क्षमता
गुजरात में भले ही छठी बार बीजेपी की सरकार बनने जा रही हो और कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ रहा हो मगर इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में बीजेपी के स्टार प्रचारक और पीएम नरेंद्र मोदी को सियासी अखाड़े में पटखनी देने की क्षमता है। उन्होंने तीन महीने में गुजरात में जिस तरह से राजनीतिक गठजोड़ और चुनाव प्रचार कर एंटी इन्कमबेन्सी फैक्टर का लाभ उठाया, वह काबिले तारीफ है। राहुल की सियासी रणनीति की वजह से ही टूट की कगार पर खड़ी कांग्रेस में न केवल जान आ गई बल्कि उसी कांग्रेस ने उम्दा प्रदर्शन करते हुए बीजेपी को कांटे की टक्कर दी। यही वजह है कि मोदी और अमित शाह को गुजरात में इतना जोर लगाना पड़ा, जितना उन्होंने शायद ही कभी पहले लगाया हो। बीजेपी के भी कई लोगों का मानना था कि गुजरात की लड़ाई बहुत कठिन है। कई बीजेपी नेताओं को भी भरोसा नहीं था कि उनकी पार्टी सत्ता में वापसी करेगी। दरअसल, राहुल गांधी ने गुजरात चुनावों में यह साफ कर दिया कि उनमें समाज के सभी पक्षों को साथ लेकर चलने का माद्दा है। पाटीदार, ओबीसी, दलित-आदिवासी, अल्पसंख्यकों और समाज के वंचितों को लेकर वो एक प्रभावशाली गठजोड़ बनाने में कामयाब रहे। उन्होंने स्थानीय और समुदाय के स्तर पर भी उन नेताओं की न केवल पहचान की बल्कि उनसे गठबंधन किया जो सत्ता से दो-दो हाथ कर रहे थे। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने विशाल समूह की अगुवाई की और उसका नतीजा 80 सीटों के रूप में देखने को मिला। अगर 2019 के चुनावों के मद्देनजर राहुल गांधी अलग-अलग राज्यों की स्थानीय राजनीतिक विशिष्टताओं को समेटते हैं और एक विशाल गठजोड़ की अगुवाई करते हैं तो उनके लिए टीम मोदी को परास्त करना आसान हो सकता है।
जातीय समीकरण साधने की कोशिश
गुजरात में विजय रूपाणी की सरकार में जिन 19 मंत्रियों को शपथ दिलाई गई, उसमें जातीय समीकरण साधने की पूरी कोशिश की गई है। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी खुद जैन-बनिया समुदाय से हैं जबकि डिप्टी सीएम नितिन पटेल समेत कुल 6 मंत्री पाटीदार समुदाय से ही हैं। पाटीदार आंदोलन के चलते गुजरात में पाटीदारों की इस बार नाराजगी देखने को मिली थी। बीजेपी ने हार्दिक पटेल के असर को कम करने के लिए पाटीदार समाज को कैबिनेट में तवज्जो दी है। इसके अलावा तीन आदिवासी, एक दलित, एक ब्राम्हण और तीन राजपूत समाज के एमएलए को मंत्री पद से नवाजा गया है। हालांकि रूपाणी कैबिनेट में पिछड़े समाज के अलग-अलग तबकों से कुल 5 मंत्री बनाए गए हैं। जिनमें एक अहीर, एक परमार, एक कोली और एक ठाकोर समुदाय का भी मंत्री शामिल है। हालांकि 20 सदस्यीय रूपाणी कैबिनेट में महज एक ही महिला को महिला मंत्री बनाया गया है। भावनगर पूर्व से तीसरी बार एमएलए बनी विभावरी दवे को राज्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई है। विजय रूपाणी के कैबिनेट में क्षेत्रीय संतुलन का पूरा ख्याल रखा गया है। गुजरात के कुल 33 जिलों में से 14 जिलों को प्रतिनिधित्व मिला है। इस दौरान सौराष्ट्र क्षेत्र के अलावा, उत्तर, मध्य और दक्षिण गुजरात के अलग-अलग एमएलए को कैबिनेट में जगह दी गई है।
पहाड़ में एक युग का अंत
जयराम ठाकुर मौका या किस्मत के कारण मुख्यमंत्री का पद ग्रहण कर चुके हैं। अब यह उन पर है कि वो अपने और पार्टी के लिए चुनौतियों को अवसरों में बदलें। शपथ समारोह में मौजूद हिमाचल सरकार का एक सेवानिवृत्त अधिकारी ठाकुर के नेतृत्व को लेकर आशावादी दिखा। वह पहले भी ऐसे मौकों पर मौजूद रह चुका है। उसने जो सबसे पहला बदलाव देखा, वह भारी तादाद में लोगों की मौजूदगी नहीं थी। ऐसा लगता है कि जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाकर मोदी-शाह ने इस पहाड़ी राज्य में एक युग की समाप्ति का संकेत दिया है। जिन 11 मंत्रियों ने शपथ ली है, उनमें सात नए चेहरे हैं। इनमें से कोई भी पूर्व में मंत्री नहीं रहा है। ठाकुर का शुरुआती प्रशिक्षण अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और आरएसएस में हुआ है। यह तय है कि वो लंबी पारी खेलने के लिए तैयार हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें गलतियों से बचना होगा। मुख्यमंत्री बनने के बाद ठाकुर ने कुछ घोषणाएं भी कीं। उन्होंने राज्य में वीआईपी कल्चर खत्म करने की बात कही। उन्होंने सेवानिवृत्त और थके हुए अधिकारियों को सेवा-विस्तार या फिर से नियुक्त नहीं करने की घोषणा की। ऐसा इसलिए क्योंकि हिमाचल में सरकारी नौकरी को प्रीमियम की तरह देखा जाता है। निश्चित रूप से यह पहाड़ में एक नए युग की शुरूआत का संकेत है।
कांग्रेस की उम्मीद बढ़ी पर मंजिल दूर
गुजरात में सीटों के साथ वोट प्रतिशत में हुए इजाफे से कार्यकर्ताओं में नए उत्साह का संचार हुआ है पर मंजिल उसके लिए अभी दूर है। प्रदेश में 14 साल से सत्ता से बाहर कांग्रेस का संगठनात्मक नेटवर्क कमजोर हुआ है। कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है कि गुजरात में उसके पास अहमद पटेल ही एक मात्र बड़े नेता थे, इसके उलट एमपी में कांग्रेस के पास कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, सत्यव्रत चतुर्वेदी और सुरेश पचौरी जैसे बड़े नेता हैं जो बड़े क्षेत्रों के साथ राष्ट्रीय राजनीति में भी असर रखते हैं।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव कहते है कि गुजरात चुनाव के परिणामों ने मोदी और शाह के कांग्रेस मुक्त भारत की उनके अपने ही प्रांत में हवा निकाल दी है। गुजरात में आए परिणाम में भले ही कांग्रेस सरकार नहीं बना सकी हो, लेकिन वहां के परिणामों ने देश भर में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया है। मध्य प्रदेश के लिए भी यह अच्छे संकेत हैं। प्रदेश से सटी गुजरात की अधिकांश सीटें हम जीते हैं। गुजरात की तरह यहां भी भाजपा सरकार में विकास नहीं सिर्फ घोषणाएं होती है। नतीजे में यहां भी किसान, व्यापारी, युवा सहित हर वर्ग परेशान है। बेरोजगारी का आलम यह है कि पटवारी बनने प्रदेश का हर 70 वां व्यक्ति यह नौकरी चाहता है। ये इनके 14 साल के विकास का मॉडल है। प्रदेश की जनता परेशान है। गुजरात के नतीजों से साफ है कि भाजपा शहरी क्षेत्रों में बढ़त लेकर अपनी सरकार बना पाई है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जगह उसका जनाधार खिसका है। गुजरात में शहरी क्षेत्र ज्यादा है, इसके उलट मध्यप्रदेश में अधिकांश विधानसभा क्षेत्र ग्रामीण मतदाता बाहुल्य वाले हैं। सरकार किसकी बनेगी यह भी ग्रामीण क्षेत्रों से ही तय होता है। कांग्रेस की सीटों में इजाफा यह संकेत देता है कि डेढ़ सौ साल पुरानी इस पार्टी में दमखम अभी बाकी है। गुजरात में सीटें और वोट प्रतिशत बढऩे से प्रदेश में कार्यकर्ताओं के मनोबल में इजाफा होगा। वे इस बार सत्ता के लिए प्राण पण से प्रयास करेंगे। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जिन तीन राज्यों मप्र, राजस्थान और छग में चुनाव होने हैं, उनमें एमपी सबसे बड़ा राज्य है, लिहाजा राहुल गांधी का सबसे ज्यादा फोकस इसी राज्य पर होगा।