भूख मिटाने छोड़ा गांव
16-Jan-2018 07:31 AM 1234843
आमतौर पर जब गर्मी बढ़ती है और बारिश में देरी या फिर कमी होने से पानी की कमी होती है लेकिन बुंदेलखंड के इलाके में अभी से ही पानी का संकट घिर आया है। हालत ये है कि गांव के युवा यहां के गांवों से पलायन करने लगे हैं। 23 साल के पप्पू के गांव में पानी का संकट अभी से गहराने लगा है, कुएं सूख चले हैं, खेती की जमीन खाली पड़ी है। साथ ही गांव और आसपास कहीं काम नहीं है। इसलिए वह अपने कुछ युवा साथियों के साथ अपने और परिवार के अन्य सदस्यों की भूख मिटाने का इंतजाम करने दिल्ली जा रहे है। पप्पू बुंदेलखंड के छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के अमरपुर गांव का निवासी हैं और आदिवासी समुदाय से आता हैं। वह बताता हैं कि मैंने कभी ऐसा सूखा नहीं देखा, मौसम ठंड का है और पीने के लिए पानी की समस्या खड़ी होने लगी है। कुएं सूख चले हैं, तालाब में पानी मुश्किल से जानवरों के पीने लायक बचा है। अमरपुर के ही 25 साल के वीरेंद्र पटेल भी काम की तलाश में दिल्ली आये हैं। वीरेंद्र कहते हैं, पहले तो गांव में ही काम मिल जाता था, जिसके चलते परिवार का जीवन चलता रहता था। इस बार तो गांव में भी काम नहीं है और अगर काम है तो मजदूरी पाने के लिए कई-कई माह तक भटकना पड़ता है। उसके गांव से लगभग 25 फीसदी आबादी काम की तलाश में पलायन कर चुकी है। गांव में रहेंगे तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। माता-पिता को भी रोटी मिल जाए, इसलिए दिल्ली जा रहा हूं। खजुराहो रेलवे स्टेशन से निजामुद्दीन जाने वाली संपर्क क्रांति एक्सप्रेस से दिल्ली जा रहे खजुराहो के राकेश अनुरागी कहते हैं कि यहां काम है नहीं, दिन भर फालतू रहें, इससे अच्छा है कि दिल्ली जाएं। वहां कम से कम कुछ तो काम मिल जाएगा। जो पैसा बचेगा उससे परिवार की मदद हो जाएगी। यहां मनरेगा में काम करो तो पैसा कई माह बाद मिलता है। तब तक तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। बुंदेलखंड वह इलाका है, जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर व दतिया उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। कुल मिलाकर 13 जिलों से बुंदेलखंड बनता है। इस बार मानसून ने पूरे बुंदेलखंड के साथ दगा किया है। एक तरफ मानसून ने साथ नहीं दिया तो दूसरी ओर सरकारों की ओर से वह प्रयास नहीं किए गए, जिनके जरिए बरसे का पानी को रोका जा सकता। वैसे भी यह इलाका बीते तीन सालों से सूखे की मार झेल रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता पवन राजावत कहते हैं, पूरे बुंदेलखंड की हालत खराब है। इस इलाके की पहचान गरीबी, सूखा, पलायन बन चुकी है, मगर इस बार के हालात तो और बुरे हैं। अब डर यह सताने लगा है कि कहीं यह इलाका भुखमरी के क्षेत्र के तौर पर न पहचाना जाने लगे। सबसे बुरा हाल उन गांव का है, जहां तालाब थे मगर खत्म हो चुके हैं, जलस्रोत सूख गए हैं। खेती के कोई आसार नहीं है। हर तरफ खेत मैदान में बदले हुए हैं। राजनगर के डहर्रा गांव के काली चरण का परिवार कभी जमीन का मालिक हुआ करता था, मगर अब नहीं है, क्योंकि उनकी जमीन बांध निर्माण के लिए अधिग्रहित की जा चुकी है। वह बताते हैं, जमीन अधिग्रहण पर उसे मुआवजा इतना मिला कि एक मकान भी नहीं बन सकता। वह अब भूमिहीन हो गया है। गांव में काम है नहीं, परदेस न जाएं तो क्या करें। नेता और सरकार तब आती है जब चुनाव होते हैं। बुंदेलखंड की पहचान कभी पानीदार इलाके के तौर पर हुआ करती थी। यहां 20,000 से ज्यादा तालाब थे, मगर आज यह आंकड़ा 7,000 के आसपास सिमट कर रह गया है। पानी के अभाव में न तो खेती हो पा रही है और न ही दूसरे धंधे। इसका नतीजा है कि बड़ी तादाद में पलायन का दौर चल पड़ा है। रोजाना 5,000 से ज्यादा लोग छोड़ रहे बुंदेलखंड इन दिनों बुंदेलखंड के किसी भी रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड का नजारा कुछ बदला-बदला सा है। हर तरफ सिर पर गठरी, कंधे पर बैग और महिला की गोद में बच्चे नजर आ जाते हैं। ये वे परिवार हैं, जो रोजी-रोटी की तलाश में गांव छोड़कर जा रहे हैं। बुंदेलखंड से हर रोज 5000 से ज्यादा लोग पलायन कर रहे हैं। यहां से रोजगार की तलाश में पलायन आम बात हो गई है, मगर इस बार के हालात पिछले सालों की तुलना में बहुत बुरे हैं। सरकारी नौकरी, खेती, मजदूरी के अलावा आय का कोई अन्य जरिया यहां के लोगों के पास है नहीं। खेती होने से रही, मजदूरी मिल नहीं रही, उद्योग हैं नहीं, ऐसे में सिर्फ एक ही रास्ता है पलायन। पन्ना जिले बराछ गांव से दिल्ली मजदूरी के लिए जा रहे बसंत लाल (24) कहते हैं कि खेती की जमीन है, मगर पानी नहीं है। काम भी नहीं मिलता, नहीं तो मजदूरी के लिए गांव में ही रुक जाते। घर तो मजबूरी में छोड़ रहे हैं, किसे अच्छा लगता है अपना घर छोडऩा। बसंत के साथी पवन बताते हैं कि उनके गांव में एक हजार मतदाता हैं। इनमें से चार सौ से ज्यादा काम की तलाश में गांव छोड़ गए हैं। यही हाल लगभग हर गांव का है। -धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया
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