कांटों का ताज!
01-Jan-2018 10:38 AM 1234947
राहुल गांधी को ग्रैंड ओल्ड पार्टी की कमान मिल गयी है। राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा हो गए है। सोनिया गांधी ने कहा कि वो रिटायर हो रही हैं। पिछले तीन साल से पार्टी के ज्यादातर फैसले राहुल गांधी करते रहे हैं। गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि आखिर पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए उनके पास क्या योजना है। हालांकि राहुल गांधी के लिए पार्टी के भीतर प्लान तैयार किया जा रहा है। जिसमें सबसे अहम है राहुल का ज्यादातर प्रदेशों का दौरा जहां कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से मुलाकात करेंगे। पार्टी के बारे में सीधे फीडबैक राहुल गांधी खुद लेंगे। राहुल के रोडमैप के बारे में पार्टी के महासचिव अविनाश पांडे ने कहा कि हर काम एक दिन में नहीं हो सकता है। पार्टी इतनी बड़ी है कि इसमें धीरे-धीरे प्रगति होगी। कांग्रेस कोई कैडर बेस्ट पार्टी नहीं है बल्कि मास बेस्ड पार्टी है और आम जनता को पार्टी से जोडऩा होगा। यही मास बेस कांग्रेस की कमजोरी बन गया है। क्योंकि जनता ने जिस तरह से कांग्रेस को कई चुनाव में नकारा है। उससे साफ है कि पार्टी को आम जन का भरोसा जीतने में अभी वक्त लग सकता है। क्योंकि कैडर बेस पार्टी को फिर से खड़ा करना आसान होता है, लेकिन राहुल के सामने क्या विकल्प है। पार्टी को खड़ा करने के लिए इतिहास से सबक लेना पड़ सकता है। पार्टी के पास रिवाइवल के लिए गई कई रिपोर्ट धूल फांक रही हैं। अब सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी कार्यकर्ता की परवाह करेंगे। अपने पिता राजीव गांधी की तरह कांग्रेस के सामने आ रही चुनौती का सामना करेंगे या फिर कांग्रेस की कमियों पर पर्दा डालने का काम करेंगे। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी परेशानी है कि पार्टी का कार्यकर्ता हताश है। वजह कई है एक तो 2014 के बाद पंजाब का अपवाद छोड़ दे तो कांग्रेस की लगातार हार। दूसरे ग्रास रूट वर्कर की अनदेखी कांग्रेस में दिल्ली से चलती है। ये बात एक कार्यकर्ता ने कही कि अगर दिल्ली में कोई आका नहीं है तो पार्टी में तरक्की करना मुश्किल है। कांग्रेस में नेहरू की पांचवीं पीढ़ी कमान संभाल रही है। इस तरह कांग्रेस में हर जिले हर राज्य में वंशवाद का पेड़ बढ़ रहा है। पार्टी में खानदानी नेताओं का वर्चस्व बढ़ा है। कांग्रेस का टिकट मिलना आम कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किल हो रहा है। 1999 और 2014 में ए के एंटोनी ने दो समान बात कही एक तो कार्यकर्ता की अनदेखी दूसरे अंदरूनी झगड़े। राहुल गांधी को सबसे पहले कार्यकर्ता की अनदेखी को लेकर अपने बड़े नेताओं में सुधार करना पड़ेगा। दूसरा अंदरूनी राजनीति से भी निपटना होगा। कई उदाहरण है मसलन दिल्ली में अजय माकन पार्टी के सभी खेमों को साथ चलने में कामयाब नहीं है। लवली जैसे नेता पार्टी छोड़कर चले गए। शीला दीक्षित जो विकास का चेहरा हो सकती थीं, उनको दिल्ली की यूनिट ने इग्नोर किया। मुंबई में संजय निरूपम के कामकाज से गुरूदास कामत खुश नहीं है। उत्तराखंड में पार्टी के कई फाड़ हो गए। हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और अशोक तंवर के बीच झगड़ा मंजरे आम पर है। ये कुछ बानगी है कमोवेश हर जगह इस तरह की अंदरूनी खींचतान है। कांग्रेस जहां सत्ता में नहीं है वहां भी लड़ाई है। एंटोनी ने 1999 और 2014 की रिपोर्ट में कहा कि कांग्रेस सही गठबंधन नहीं कर पायी। इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। जिसकी भरपाई सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव में की। कांग्रेस ने मजबूत गठबंधन किया और एनडीए का किला फतेह कर लिया। राहुल गांधी ने भी दो गठबंधन किए, 2017 के यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी से, नारा दिया यूपी के लड़के। लेकिन यूपी के लड़के पास नहीं हो पाए। नीतिश कुमार के साथ बिहार में गठबंधन किया लेकिन नीतिश को राहुल गांधी ज्यादा दिन तक संभाल नहीं पाए। सवाल यही है कि यूपी में जनता की नब्ज भांप नहीं पाए। बिहार में नीतिश कुमार की मंशा समझ नहीं सके। 2019 में गठबंधन करने के लिए हर राज्य के राजनीतिक समीकरण को समझना होगा और किस राजनीतिक दल से गठबंधन करना चाहिए ये भी जानना जरूरी रहेगा। इसके अलावा कौन सा दल भरोसे का है कौन सा नहीं ये भी राहुल गांधी को परखना पड़ेगा। क्योंकि मुकाबला बीजेपी से है, जिसके अध्यक्ष और प्रधानमंत्री राजनीतिक फैसला लेने में माहिर हैं। राहुल गांधी को भी पुराने कांग्रेस के नेताओं के इस अनुभव का इस्तेमाल करना पड़ सकता है। राहुल गांधी ने ऐसे समय में कांग्रेस पार्टी की बागडोर थामी है जब पार्टी अभी तक सबसे बुरे समय से गुजर रही है। 132 साल पुरानी पार्टी का अस्तित्व देश के पांच राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश में ही बचा है। लोकसभा चुनाव में 50 सीटों के नीचे तो कांग्रेस 2014 में ही आ गई थी, लेकिन उसके बाद एक के बाद एक राज्यों से अपनी सत्ता गंवाती चली गई है। जाहिर है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष के सिर पर कांटों का ताज सजा है और उम्मीदें आसमान की हैं। ऐसे में उनके सामने अनेक चुनौतियां खड़ी हैं, जिनका सामना करना आसान नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की इतनी बुरी स्थिति पहले नहीं थी। देश में अगर राज्यों में कांग्रेस की सत्ता का आंकलन किया जाए तो कांग्रेस अध्यक्ष रह चुकी सोनिया गांधी ने जब 1998 में अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली थी, उस वक्त कांग्रेस की सरकार सिर्फ चार राज्यों में थी। हालांकि लोकसभा में 141 सांसद थे। कांग्रेस की सरकारें जिन चार राज्यों में बची थीं वो थे- मिजोरम। नगालैंड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा। बाकी सभी राज्यों में और केंद्र में पार्टी हार चुकी थी। देश उन दिनों वाकई लगभग कांग्रेस मुक्त हो चुका था। पार्टी टूट-टूट कर बिखर रही थी। पार्टी के बड़े-बड़े नेता अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माधव राव सिंधिया, ममता बैनर्जी, जी के मूपनार, शीला दीक्षित, पी. चिदंबरम आदि जैसे दिग्गज पार्टी छोड़ चुके थे और कांग्रेस में लगातार टूट हो रही थी। आंकड़ों पर नजर डालें तो उस दौरान करीब 15 पार्टियां कांग्रेस से टूट कर निकली थीं, लेकिन सोनिया गांधी के आने के बाद ये सिलसिला थमा। पंद्रह में से बारह पार्टियां फिर से कांग्रेस में आ मिलीं। तृणमूल कांग्रेस का स्वतंत्र वजूद बरकरार रहा, जबकि मणिपुर स्टेट कांग्रेस का राजद में और गोवा राजीव कांग्रेस का बाद में एनसीपी में विलय हो गया था। सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के कुछ ही महीनों बाद कांग्रेस में चुनाव जीतने का सिलसिला शुरू हो गया। 1998 में ही दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसकी सरकार बन गई और इसके साथ ही पार्टी में नई जान आ गई। हालांकि केंद्र में वापस आने में पार्टी को इंतजार करना पड़ा जो कि 2004 में यूपीए गठबंधन की सरकार के रूप में आ गई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि अगर कांग्रेस एक जुट हो जाए तो एक बार फिर वो पार्टी की ताकत देश को दिखा देंगे लेकिन उसके लिए राहुल गांधी को सोनिया गांधी की तरह जुट कर काम करना होगा। साल 2004 के चुनाव से पहले आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देशभर में घूमकर खूब प्रचार किया और सबको चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को 200 से ज्यादा सीटें मिलीं। सलाहकारों पर निर्भरता कम करनी होगी जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व किया, वह एक राजनीतिक नौसिखिया थीं और उन पर लगातार विदेशी मूल होने के हमले हो रहे थे। इस दौरान वो मु_ी भर वरिष्ठ नेताओं की सलाह पर पूरी तरह से निर्भर हो गई थीं और पार्टी का सिर्फ चेहरा बन कर रह गई थीं। गठबंधन सरकार के बाद तो वो पूरी तरह से गठबंधन को संभालने में लगी रहीं और पार्टी के संगठन से दूर होती रहीं। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव और निकाय चुनाव में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के गढ़ से कांग्रेस साफ हो गई। अपने लोगों को नाराज न करके सोनिया गांधी ने संगठन को बहुत मजबूत नहीं होने दिया और नतीजा संगठन सोनिया गांधी के हाथ से फिसल गया। राहुल गांधी की पहली चुनौती यही है कि पार्टी के हित में उन्हें कड़े फैसले लेने होंगे ताकि संगठन को मजबूती मिल सके। क्षेत्रीय कद्दावर नेताओं पर काबू भारत की पूर्व इंदिरा गांधी की नीति थी कि कोई भी नेता इतना शक्तिशाली न बने कि केंद्र की सरकार के समानांतर आ जाए। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यनीति इसी ओर इशारा करती है, लेकिन सोनिया गांधी ने गठबंधन की राजनीति को सफल करने के लिए शक्तिशाली क्षेत्रीय नेताओं जैसे भूपिंदर सिंह हुड्डा, वीरभद्र सिंह, अजीत जोगी, अमरिंदर सिंह और वाईएस राजशेखर रेड्डी को काफी मजबूती दी। क्षेत्रीय नेताओं को नाराज करने से बचती रहीं और इसी के चलते उन पर मजबूत निर्णय न लेने वाली नेता का तमगा लगता रहा। राहुल गांधी को अपनी मां और अपनी दादी की नीति में बीच का रास्ता निकलना होगा। ताकि ये नेता कांग्रेस का साथ देते रहें और पार्टी के लिए खतरा भी न बने। सोनिया गांधी ने अपने 19 साल के समय काल में कांग्रेस के दफ्तर के बजाय अपने घर दस जनपथ को अपना दफ्तर बनाया। कांग्रेस मुख्यालय में उनका दफ्तर सिर्फ सफाई के लिए खोला जाता था और कभी-कभार उनके खास कार्यक्रम के लिए खोला जाता। घर पर दफ्तर होने की वजह सोनिया गांधी तक पहुंच काफी कम नेताओं की थी। -दिल्ली से रेणु आगाल
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