01-Jan-2018 10:28 AM
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राजस्थान में क्या दलित और क्या सवर्ण, क्या ग्रामीण और क्या शहरी, क्या बुजुर्ग और क्या युवा, वर्तमान में शायद ही कोई होगा जो राजे सरकार से पूर्ण संतुष्ट होगा। 2018 राजस्थान में चुनावी साल है, लेकिन कार्यशैली देखकर लगता है कि राजे सरकार ने रण से पहले ही जीत का विश्वास खो दिया है। खुद देवस्थान मंत्री राजकुमार रिणवां पिछले दिनों कुछ इस तरह का बयान दे चुके हैं कि हम हार जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। 2013 में बड़ी उम्मीदों के साथ लोगों ने बीजेपी को चुना था। बात ये थी कि गहलोत सरकार अपने कार्यकाल के पांचवें साल में ही सक्रिय नजर आई थी।
अब चुनाव को 11 महीने से भी कम समय बचा है लेकिन वसुंधरा सरकार तो अभी तक भी सक्रिय नहीं दिख रही है। सिर्फ अव्यवस्था, मंत्रियों के ऊल जुलूल बयान और बैठे-बिठाए मुसीबत मोल लेने की आदत ही नजर आ रही है। अभी डॉक्टरों की हड़ताल के मामले को ही लें। पिछले महीने डॉक्टरों की हड़ताल के चलते 25 से ज्यादा मरीजों को जान गंवानी पड़ी। डॉक्टरों का क्या गम करें, दर्द तो सरकार के सुध न लेने का है। इसी तरह, बेवजह ही लोकसेवकों को बचाने वाला कानून लाया गया। इसे काला कानून कहा गया क्योंकि ये आरोपी लोकसेवकों को तो बचा ही रहा था, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी प्रतिबंध लगा रहा था। खैर, विरोध बढ़ा तो सेलेक्ट कमेटी को मामला सौंपकर रफा-दफा किया गया।
युवाओं की नाराजगी पर भी बेफिफ्री है। 2013 में बीजेपी मैनिफेस्टो में 15 लाख रोजगार का वादा था। 15 लाख तो छोडि़ए जो कुछ हजार भर्तियां निकली भी तो आरक्षण या पेपर लीक जैसे मामलों के चलते अदालतों में उलझ गई। 4 साल बाद अब आलम ये है कि कौशल विकास आंकड़ों को ही रोजगारों की संज्ञा देने की कोशिशें हैं। लापरवाही का आलम ये है कि राजस्थान लोक सेवा आयोग और अधीनस्थ चयन बोर्ड में महीनों तक अध्यक्ष पद खाली पड़े रहते हैं। जब भरे भी गए तो संघ पृष्ठभूमि या जातीय समीकरणों को संतुष्ट करती नियुक्तियां ही दिखी। वैसे, पिछले 20 साल से राजस्थान में ऐसा ही होता आया है। इन्ही कारणों से 1998 में भैंरोसिंह शेखावत जैसे कद्दावर मुख्यमंत्री के बावजूद कांग्रेस 75 प्रतिशत सीटें जीत गई। इन्ही वजहों से 2003 में बीजेपी पहली बार 120+ सीट ला पाई। इसके बाद 2008 में बीजेपी हारी तो फिर अभिमान/घमंड की वजह से। बस 2013 में दृश्य थोड़ा अलग था। तब मोदी लहर के चलते बीजेपी 200 में से रिकॉर्ड 163 सीटें जीत गई। मोदी प्रेम तो अब भी है। तभी तो लोग कह रहे हैं कि मोदी तुझसे बैर नहीं.. लेकिन बीजेपी को ध्यान रखना होगा कि नरेंद्र मोदी पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता और क्षेत्रीय क्षत्रपों की लापरवाही कहीं उसे 1970-80 की कांग्रेस में तब्दील न कर दे। तब कांग्रेस का मतलब इंदिरा गांधी ही रह गया था।
ऊपरÓ पता है कि नीचे जा रहे हैं
बीजेपी में शीर्ष नेतृत्व को सरकार और संगठन की लगातार गिरती स्थिति का बखूबी पता है। यही वजह है कि जुलाई में अमित शाह ने 3 दिन तक जयपुर में 14 मैराथन बैठकें की थी। यहां तक कि सर्किट हाउस या किसी होटल के बजाय शाह पार्टी मुख्यालय में ही ठहरे थे। दौरे पर साफ दिखा था कि उनका जोर संगठन की मजबूती पर है। हर बूथ की मजबूती को ही ध्येय बनाने पर जोर दिया गया था। शाह ने साफ कहा था कि विस्तारक योजना को लेकर वे काफी गंभीर हैं और बाकी नेता भी इसे महज औपचारिकता न मानें। शाह की रणनीति का अंदाजा इसी से लग सकता है कि उन्होंने मंत्रियों से अपने दौरों में बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं से मुलाकात करने को कहा था।
उपचुनावों में अग्रिपरीक्षा
विधानसभा से पहले राज्य में अजमेर और अलवर की लोकसभा व मांडलगढ़ की विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए किसी अग्रिपरीक्षा से कम नहीं है। वसुंधरा राजे के लिए ये उपचुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बन गए हैं तो कांग्रेस को भी सोचना तो पड़ ही रहा है। एक तो सूबे की सियासी रवायत बन गई है कि कोई भी पार्टी लगातार दो बार सत्ता में नहीं आ पाई दशकों से। इस नाते 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस यहां सत्ता में आने का मंसूबा पाले है। पर उपचुनाव में हार हिस्से आई तो मनोबल टूट सकता है कार्यकर्ताओं का। यह बात अलग है कि पड़ोसी राज्य गुजरात के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेसी खेमे में जोश दिख रहा है। गुजरात में पार्टी के प्रभारी भी तो राजस्थान के अशोक गहलोत ही थे।
-जयपुर से आर.के. बिन्नानी