01-Jan-2018 09:33 AM
1234993
देश की राजनीति में चारा घोटाला काफी चर्चित रहा है। यह ऐसे समय सामने आया, जब लालू प्रसाद का राजनीतिक करियर एक खास मुकाम हासिल कर चुका था और तेजी से आगे बढ़ रहा था। गौरतलब है कि 1994 में बिहार पुलिस ने तत्कालीन बिहार के गुमला, रांची, पटना, डोरंडा और लोहरदग्गा जैसे कई कोषागारों से फर्जी बिलों के जरिए करोड़ रुपये की अवैध निकासी के बिल जमा किए। उसके बाद सरकारी कोषागार और पशुपालन विभाग के अनेक कर्मचारियों के अलावा कई ठेकेदार और सप्लायर गिरफ्तार किए गए। उस वक्त राज्य में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे।
विपक्षी दलों ने उन पर निशाना साधते हुए इस घोटाले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की। 1996 में जांच शुरू हुई। जांच में सामने आया कि पशुपालन विभाग के अधिकारियों ने चारे और पशुओं की दवा के नाम पर करोड़ों रुपये के फर्जी बिल सरकारी कोषागार से कई सालों तक भुनाए। सीबीआई ने पाया कि घोटाले में शामिल ज्यादातर आरोपियों के तार आरजेडी और दूसरी बड़ी पार्टियों से जुड़े हैं। उसने यह भी दावा किया कि लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में दोषी हैं। इससे लालू प्रसाद के कैरियर को झटका तो लगा, लेकिन उन्होंने इसकी काट ढूंढ ली। वह पत्नी के जरिए शासन करने लगे। उनकी राजनीतिक हैसियत में कोई कमी नहीं आई। आगे वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल हुए। इस फैसले से भी उनके राजनीतिक प्रभाव पर कितना और कैसा असर पड़ता है यह देखना होगा।
दरअसल, चुनाव सुधार की प्रक्रिया तेज होने और देश में भ्रष्टाचार के विरोध में माहौल बनने के साथ यह माना गया कि हमारा सिस्टम यदि राजनेताओं के मामले में सख्ती बरते तो उसका जनता में एक प्रतीकात्मक संदेश जाएगा। कुछ राजनेताओं को सजा हुई तो लगा कि चीजें बदलेंगी। लेकिन तमाम दलों ने आरोपी नेताओं से दूरी बनाने के बजाय उनसे हर तरह का सहयोग जारी रखा। कई पार्टियों ने तो दूसरे दलों के आरोपियों को पूरे सम्मान के साथ अपने यहां जगह दी। इस तरह राजनीति में भ्रष्टाचार का अमूर्तन हो गया। अगर किसी नेता को सजा मिलती है तो वह अपने समर्थकों को यह कहकर आश्वस्त कर देता है कि उसके खिलाफ साजिश हुई है। आरजेडी भी यही कह रही है। कुल मिलाकर राजनेताओं के मामले में हमारा तंत्र अब भी लाचार नजर आता है।
उल्लेखनीय है कि 21 साल चले मामले में पहले भी लालू यादव समेत कई नेताओं और अधिकारियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। चारा घोटाले में कुल 38 लोगों को आरोपी बनाया गया था। इनमें से 11 की अब तक मौत हो चुकी है, तीन सीबीआई के गवाह बन चुके हैं और दो ने अपना अपराध कबूल लिया। दरअसल, चारा घोटाला, घोटालों की एक ऐसी शृंखला थी, जिसमें महज चारे का ही घोटाला नहीं था बल्कि सारा मामला सरकारी खजाने से गलत ढंग से पैसे निकालने का था। कई वर्षों तक कई मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में करोड़ों की रकम पशुपालन विभाग के अधिकारियों और ठेकदारों ने राजनीतिक मिलीभगत से निकाली थी। कालांतर में मामला 900 करोड़ से अधिक तक जा पहुंचा, जिसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है। बिहार पुलिस ने वर्ष 1994 में बिहार के गुमला, रांची, पटना, डोरंडा और लोहरदगा जैसे कई कोषागारों से फर्जी बिलों से करोड़ों रुपये निकालने के मामले दर्ज किये थे। अक्टूबर, 2013 में भी लालू यादव को एक मामले में दोषी ठहराया गया था, जिसके चलते सांसद के रूप में चुनाव लडऩे के अयोग्य करार दिया गया। सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने से पहले लालू दो महीने जेल में रहे थे। बाद में वर्ष 2014 में झारखंड हाई कोर्ट ने लालू प्रसाद यादव को राहत देते हुए आपराधिक साजिश के मामले को वापस ले लिया था।
मिलीभगत से जनता की कमाई को लगाया ठिकाने
चारा घोटाले से पता चलता है कि अधिकारियों, दलालों और राजनीतिक षड्यंत्रों से किस प्रकार जनता के पैसे को ठिकाने लगाया जाता रहा है। महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी कि राजनीति में कोई कितना बड़ा दखल रखता हो, कानून की जद में आने से कोई बच नहीं सकता। एक समय बिहार का मतलब लालू यादव हुआ करता था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि उन्हें अदालतों के चक्कर काटने पड़ेंगे और अंतत: जेल के सींखचों के पीछे जाना पड़ेगा। मगर राजनीतिक अहंकार और अमर्यादित राजनीति के चलते लालू यादव को तमाम मुकदमों की गिरफ्त में आना पड़ा। चारा घोटाले से जुड़े अन्य मुकदमों में अभी कई फैसले आने बाकी हैं। इस मायने में यह राजनेताओं और नौकरशाहों के लिये भी बड़ा सबक है। यह भी एक सत्य है कि घोटाले के दायरे और राजनेताओं की मिलीभगत से हुए प्रपंच में यदि सीबीआई जांच नहीं हुई होती तो इस घोटाले से शायद ही कभी पर्दा उठ पाता।
- विनोद बक्सरी