लहुलुहान लाल आतंक कब तक?
30-May-2013 06:44 AM 1234928

वर्ष 2005 में जब जून माह में महेन्द्र कर्मा ने छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या को कुचलने के लिए सलवा जुडूम आंदोलन की शुरुआत की उस वक्त उन्हें अंदेशा नहीं था कि जिन ग्रामीणों को नक्सलियों के खिलाफ वे भड़का रहे हैं, 8 साल बाद वही ग्रामीण उनकी लाश पर जश्न मनाएंगे। कर्मा ने इस आंदोलन के बारे में काफी पहले विचार कर रखा था। एनडीए सरकार के समय देश के गृहमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस पर मौन स्वीकृति दी थी, लेकिन इसे अमल में लाया गया, केन्द्र में यूपीए सरकार के समय। तब तक छत्तीसगढ़ में सत्ता बदली जा चुकी थी। मुख्यमंत्री रमन सिंह पहले तो इस आंदोलन के प्रति ज्यादा उत्सुक दिखाई नहीं दिए लेकिन बाद में उन्हें लगा कि विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) के हाथों में बंदूक देकर नक्सलवाद पर रोक लगाई जा सकती है। यह रमन सिंह की बहुत बड़ी भूल थी। क्योंकि उन्होंने इसे एक सरकारी कार्यक्रम बना दिया और सरकारी कोया कमांडो अपने ही लोगों को कुचलने का काम करने लगे। कांग्रेस और भाजपा का यह मिलाजुला अभियान शुरूआत में सफल होता दिखाई दिया, लेकिन वर्ष 2010 से अभियान ध्वस्त होने लगा। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर रोक लगा दी। तब तक घात  लगाकर किए गए विस्फोटों में असंख्य सैन्य बल मारा जा चुका था। कई स्थानीय नेताओं को भी  नक्सलियों ने बेरहमी से मारा था। विशेष पुलिस अधिकारियों को चुन-चुनकर मारा गया और जिसे भी मुखबिर समझा उसे नक्सलियों ने गला रेतकर मौत के घाट उतार दिया। समस्या सुलझने के बजाय और उलझ गई, बल्कि दिनों-दिन पेंचीदा होने लगी। इस उलझी हुई समस्या को सुलझाने के लिए न तो केंद्र सरकार ने गंभीरता दिखाई और न ही छत्तीसगढ़ सरकार ने कोई प्रभावी पहल की। घात लगाकर की गई हत्याओं के बाद भी और सुकमा कलेक्टर के अपहरण प्रकरण के बावजूद नक्सलियों की बढ़ती ताकत का अहसास किसी को नहीं था। वे विधायकों का अपहरण कर रहे (उड़ीसा) थे। विदेशियों को बंधक बना रहे थे। हत्याएं कर रहे थे। लूटपाट कर रहे थे और अपनी समानांतर सरकार स्थापित कर चुके थे, लेकिन देश की सरकारें सोई हुई थीं।
नक्सलियों को पिछले एक दशक में जितनी फंडिंग हुई है। उतनी उससे पहले कभी नहीं हुई। उनके सैन्य साजो सामान का आधुनिकीकरण हो चुका है, उनके पास संचार के तीव्रतम साधन उपलब्ध हैं, देश के रक्षा तंत्र से कहीं ज्यादा सुदृढ़ खुफिया तंत्र है। खास बात यह है कि देश के बुद्धिजीवी तबके से लेकर राजनीति और संसद में उनकी पैरवी करने वालों की कमी नहीं है। सोशल मीडिया पर आये कमेंट्स और नक्सलियों के पक्ष में जारी की गईं तस्वीरें इस बात का जीता जागता प्रमाण है कि नक्सलियों के अर्थशास्त्र को मजबूत करने के अलावा, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि को बौद्धिक आधार प्रदान करने के लिए इस देश में झोलाछाप बुद्धिजीवियों की कतार लगी हुई है।
यही कारण है कि जब सुकमा के जंगलों में उस दोपहर तकरीबन साढ़े तीन बजे एक ढलान पर जाते समय कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले की कुछ चुनिंदा गाडिय़ों पर ही नक्सलियों ने निशाना साधा तो देश दहल उठा। नक्सली हमले से नहीं, इस हमले के सुनियोजित तरीके से। इतनी कुशलता से तो अमेरिका भी ओसामा बिन लादेन को एबटाबाद में घुसकर नहीं मार पाया। उसे अपना एक हेलीकॉप्टर गंवाना पड़ा था। किन्तु यहां तो नक्सली उस कारवां के बारे में बारीक से बारीक जानकारी रखते थे। किस गाड़ी में पुलिस वाले हैं, किस गाड़ी में कर्मा बैठे हैं, किस गाड़ी विद्याचरण शुक्ल हैं, छग कांग्रेस अध्यक्ष नन्दकुमार पटेल और उनके पुत्र कहां छुपे हुए हैं। पूर्व विधायक मुदलियार को किसने शील्ड किया हुआ है। पुलिस वालों के पास कितने राउण्ड गोलियां हैं। कितने देर लडऩे में वे सक्षम हैं। यह सारी जानकारी नक्सलियों के पास उपलब्ध थी। उन्हें गाड़ी का क्रम भी मालूम था। किस गाड़ी को धमाके से उड़ाना है और किसे गोलियों से छलनी करना है, यह भी उन्हें पता था। भारत में इससे पहले इतना सुनियोजित हमला कभी नहीं देखा गया। नक्सलियों ने पूरी तरह निहत्था करने के बाद खून की नदियां बहा दी। जब गोलियां खत्म हो गईं, वे कूद पड़े मौत का तांडव करने लगे। जो उनके रास्ते में आया वह मारा गया। यह सच है कि निशाना महेन्द्र कर्मा की तरफ था और कर्मा भी किसी जांबाज सिपाही की तरह अपना सीना तानकर खड़े हो गए थे कि मैं हूं महेन्द्र कर्मा, मुझे मारो साथियों को बख्श दो। लेकिन बख्शना शायद नक्सलियों ने सीखा ही नहीं। वे तो लाश के साथ भी कू्ररता करना जानते हैं। कभी महाभारत में पढ़ा था कि प्रतिशोध की ज्वाला से जलते हुए भीम ने न केवल दु:शासन की छाती का रक्त पीया था अपितु उसके कलेजे को निकाल कर खा लिया था और द्रोपदी ने उसके रक्त से अपने बाल धोया थे। उस दिन लाशों के साथ लगभग ऐसा ही वीभत्स सुलूक कर रहे थे नक्सलवादी। महिलाएं गोलियां दाग रही थीं और खून बहते देख अट्टहास कर रही थीं।
इतना जघन्य हत्याकांड महज प्रतिशोध नहीं है, बल्कि वर्षों से संचित सामूहिक आक्रोश का प्रकटन है। नक्सलवाद भारत की राजनीतिक समस्या है, जिसके मूल में आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किए जाने और उन्हें लगातार शोषित किए जाने की करुण गाथाएं छुपी हुई हैं। कालांतर में दलित, पिछड़े और अन्यान्य तरीकों से सताए गए अनेक लोग इस आंदोलन से जुड़ गए, जिन्हें नेतृत्व प्रदान किया कुछ स्वार्थी किन्तु क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों ने जो बंकर में सुरक्षित बैठकर मौत का खेल खेलते हैं, यह खेल अभी भी जारी है, क्योंकि सरकार के नौकरशाहों से लेकर बाबुओं और मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक इस समस्या को राजनीतिक रूप से समझने की सामथ्र्य किसी में नहीं है। समस्या को उलझाने का काम कर रहा है। सोशल मीडिया भी। इंटरनेट पर नक्सलवादियों के समर्थन में संवेदनाओं की बाढ़ देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। क्या यह देश खून के बदले खून की तरफ बढ़ रहा है। तब तो गृह युद्ध होना अवश्यंभावी मालूम पड़ता है। नक्सलियों ने अपने सुनियोजित अभियान के द्वारा गृहयुद्ध का संकेत दे दिया है। लाल रंग, भारत की हरित भूमि पर कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक हर कहीं बिखरने लगा है। 17 राज्यों में नक्सलियों की प्रभावी मौजूदगी है। कुछ राज्यों के 30 से लेकर 45 प्रतिशत भू-भाग पर उनकी अघोषित सरकार है, और लगभग 20 जिले ऐसे हैं जहां उनकी सत्ता चलती है। देश के भीतर पनपता एक नया देश, क्या चिंता का विषय नहीं है। इसके बाद भी सरकारें आंखें मंूदकर बैठी हैं तो बड़ा चिंता का विषय है। ऐसा कोई दिन नहीं होता जब छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सीआरपीएफ सहित अन्य सुरक्षाबलों के 10-20 जवान न मारे जाते हों। लेकिन दुख तो इस बात का है कि लोकतंत्र पर हमला तभी होता है जब कोई राजनीति से जुड़ा कद्दावर व्यक्तित्व नक्सली हमले का शिकार बनता है। क्या उन सैनिकों की कुर्बानी या अपने मालिक को बचाने के लिए जान देने वाले विद्याचरण शुक्ल के जांबाज गार्ड और ड्रायवर जैसे स्वामी भक्त रक्षकों कुर्बानी व्यर्थ जाने वाली है, या यह लोकतंत्र पर हमला नहीं है? बड़े दुख की बात है कि संवेदनाओं के इस महासागर से इन शहीदों के लिए कोई शब्द नहीं निकले, केवल पांच लाख रुपए की अनुग्रह राशि देकर सरकार ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। यह बलिदान दशकों से व्यर्थ जा रहा है, इसी कारण नक्सली समस्या बढऩे लगी है। नक्सलवादी इस बात को समझ चुके हैं कि सरकार सुरक्षा बलों की भर्ती करती ही इसलिए है कि वे शहीद होने को प्रस्तुत हो जाएं। इसी कारण नक्सलवादियों ने अब चुन-चुनकर नेताओं और जिम्मेदार लोगों को अपना निशाना बनाया है। उनमें इतनी सामथ्र्य है कि वे जेड प्लस सुरक्षा का घेरा भेद सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि देश का हर बड़ा नेता चाहे वह किसी भी पद पर जेट प्लस सुरक्षा के घेरे से घिरा हुआ क्यों न हो असुरक्षित है  उस पर हमला संभावित है और यह हमला बाहर से नहीं घर के अंदर से होने वाला है। नक्सलियों के इस चेतावनी भरे अभियान के बाद यदि ठोस कदम नहीं उठाया गया तो हालात            कितने दर्दनाक हो जाएंगे इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
नक्सलियों की पैरवी क्यों?
आए दिन देश में बुद्धिजीवियों द्वारा नक्सलियों के समर्थन में कई एकड़ साहित्य लिखा जाता है। नक्सली दमित हैं, पीडि़त हैं, शोषित हैं, मजबूरी में हथियार उठा रहे हैं, उनकी समस्याएं हैं। आदि इत्यादि। प्रकारांतर में यह बौद्धिक समर्थन खूनी समर्थन में तब्दील होता जा रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भारत के लोकतंत्र में सभी को समान अवसर प्राप्त है।  खासकर भारत की चुनावी प्रणाली (जिसमें उत्तरोत्तर गुणात्मक सुधार आता जा रहा है।) ऐसी है जिसके द्वारा कोई भी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचकर अपनी नीतियों के अनुसार देश चला सकता है। आवश्यकता तो इस बात की थी कि  इन बुद्धिजीवियों के मार्फत इन भटके हुए लोगों की अहिंसक लड़ाई लड़ी जाती, लेकिन हुआ इसका उलटा। जिस बौद्धिक खाद से नक्सलवाद पनपा है अब वही नक्सलवाद उनके  गले की हड्डी बन चुका है। खुफिया सूचनाओं में बताया गया कि किस प्रकार कई मध्यस्थों के प्रस्ताव नक्सलवादियों ने ठुकरा दिए, क्योंकि नक्सलवाद की वसूली से मिला पैसा उन्हें घने जंगलों में ऐशो-आराम मुहैया करा रहा है। हर नक्सलवादी कॉडर को भारी वेतन दिया जाता है। खाने-पीने और ऐय्याशी करने का मौका मिलता है। नक्सलवादी कैम्पों में मौजूद महिलाओं की क्या स्थिति है यह किसी से छिपा नहीं है। वहां से छन-छन कर जो खबरें आती हैं, उससे पता चलता है कि जिस शोषण के खिलाफ वे लड़ाई लड़ रहे हैं वह उनके अपने बीच भी विद्यमान है। इसी कारण नक्सलवाद एक पेंचीदा समस्या बनी हुई है। कुछ समय पहले मध्यस्थता के लिए तैयार हुए कुछ नक्सली नेताओं की धोखे से हत्या कर दी गई थी। यह हत्या किसने की यह एक बड़ा सवाल है। आमतौर पर ऐसी हत्याओं के लिए सरकारी तंत्र पर दोष मढ़ दिया जाता है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू देखने की जरूरत है। कहीं यह हत्याएं वे लोग तो नहीं करवा रहे जो नक्सली समस्या को सुलझते हुए नहीं देखना चाहते। ऐसे लोग नक्सलियों के बीच भी हो सकते हैं। इसी कारण बार-बार यह कहा जा रहा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केपीएस गिल जैसे योग्य अधिकारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए। सेना भी फ्री हैंड की मांग पूर्व में कर चुकी है, किन्तु कतिपय राजनीतिक कारणों से उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया। नतीजा सामने है। एक सुव्यवस्थित तंत्र नक्सलियों ने खड़ा कर लिया है, जिसे भेदना अब शायद संभव न हो।
किसने बदलवाया रास्ता?
भारतीय राजनीति में चरमपंथ का विरोध किया जाता है, लेकिन दुख इस बात का है कि वोट की राजनीति कई बार बहुत से लोगों को चरमपंथ के समर्थन में भी खड़ा कर देती है।  पंजाब में रजुआणा की फांसी तथा तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी के समय की गई राजनीति के उदाहरण सामने हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी उग्र रास्ता अपनाए हुए नक्सलवादियों के समर्थन से राजनीति करने वालों की कमी नहीं है। परिवर्तन यात्रा का वह  काफिला जिस मार्ग से जाने वाला था उसे जानबूझकर बदलवाया गया। पहले काफिला सुकमा से गादीरास होते हुए दंतेवाड़ा आने वाला था। यह रूट प्रदेश अध्यक्ष पटेल, वीसी शुक्ल और कर्मा ने ही तय किया था। लेकिन ऐन वक्त पर इसे बदलकर गादीरास के बजाय तोंगपाल और दरभा के रास्ते जाना तय कर दिया गया। अब पुलिस जांच कर रही है कि आखिर किसके कहने पर और किन हालात में रूट बदला गया? यात्री दल में नक्सलियों का कोई संदेशवाहक था। 22 वाहनों में से चुनकर 3 वाहनों को ही विस्फोट और गोलीबारी की जद में क्यों लाया गया? जिसमें मात्र 10-12 सुरक्षाकर्मी शामिल थे। जबकि उसी क्षेत्र में पुलिस के अलावा केंद्र के अर्ध सैनिक बल भी तैनात रहते हैं पर उस समय अज्ञात कारणों से या ये कहें कि जानबूझकर अर्धसैनिक बलों को उस क्षेत्र में पहले से तैनात नहीं किया गया। हालांकि छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और दंतेवाड़ा विधायक कवासी लखमा ने इस तथ्य को गलत बताया है कि आखिरी वक्त में रूट बदला गया था। जोगी ने कहा कि टीएस सिंघदेव यात्रा प्रभारी थे उन्होंने वही रूट चार्ज सुरक्षा मंजूरी के लिए जमा किया था। माओवादी लगातार ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि उनको हथियार और पैसा पहले की अपेक्षा अधिक मिल रहा है। नक्सलियों ने कर्मा की बुलेट प्रूफ गाड़ी पर दो देसी मोर्टार दागे थे। हालांकि वह उतने प्रभावी नहीं थे।
क्या यह सच है
एक अखबार में कॉलमिस्ट ने नक्सली इंटेलीजेंस में शीर्ष पद पर रहे एक अधिकारी से निजी बातचीत का हवाला देते हुए लिखा है-माओवादी छोटे-बड़े अनेक लेखकों की खूब आवभगत करते हैं। उन्हें हवाई यात्राओं से बुलाकर घने जंगल का रूमान दिखाकर चमत्कृत करते हैं। उनके वित्तीय संसाधन हमारी पुलिस से कहीं ज्यादा हैं। पत्रकारिता और राजनीति में सक्रिय अपने जासूसों को माअवोदी अच्छा मानदेय देते हैं।
स्थानीय नहीं थे नक्सली
नक्सली हमले में जो लोग बच गए उन्होंने इस हिंसा का जो आंखों देखा हाल सुनाया है वह दर्दनाक है। नक्सली अंग्रेजी में बाते कर रहे थे, मिनरल वाटर पी रहे थे। भाजपा के खिलाफ नारे लगा रहे थे, लेकिन उन्होंने जो क्रूरता बरती वह किसी हिंसक जानवर के समान ही थी शवों के ऊपर संगीन घोपे गए। महेंद्र कर्मा के शव पर नृत्य किया गया, कई शवों की आंखें निकाल ली गईं, बहुत से शवों के हाथ काट लिए गए, जितनी ज्यादा संभव हो सकती थी क्रूरता नक्सलियों ने की। उनकी वेशभूषा देखकर लग रहा था कि उन्हें कहीं से लाया गया है क्योंकि वे हथियार चलाने में निपुण होने के साथ-साथ कुशल रणनीतिकार भी थे। कई महिला नक्सलियों ने चुन-चुन कर सुरक्षाबलों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर गोलियां चलाई। वॉकी-टॉकी जैसे आधुनिक यंत्रों से लेस ये नक्सलवादी अपने आपको बचाने में भी कामयाब रहे। अभी तक यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि इस हमले में कोई नक्सलवादी हताहत हुआ है अथवा नहीं।
विद्याचरण की हालत गंभीर
पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल के गार्ड ने जब कनपटी पर गोली दागकर आत्महत्या कर ली उसके बाद वे असहाय हो चुके थे उन्हें तीन गोलियां लगीं, कमर के नीचे के हिस्से से लगातार खून बह रहा था बुरी तरह कराहते हुए इस वयोवृद्ध नेता को हमले के ढाई घंटे बाद मेडिकल सहायता मिल पाई तब तक बहुत कुछ नुकसान हो चुका था बूढ़ी हड्डियों ने वह दर्द कैसे सहा होगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है। विद्याचरण दिल्ली के वेदान्ता अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। उनकी हालत गंभीर किंतु स्थिर है। महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और उनका बेटा दिनेश पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार नक्सलियों की गोलियां का शिकार होकर दिवंगत हो गए। कुल 28 लोग इन हमलों में मारे गए, जिनमें एक दर्जन से अधिक सुरक्षाकर्मी भी हैं। कुछ की हालत गंभीर है। कोण्टा विधायक कवासी लखमा को भी गंभीर रूप से घायल स्थिति में लाया गया था। नक्सलियों ने किसी को इस काबिल नहीं छोड़ा कि वह घायलों को अस्पताल पहुंचा सके। हमले में बचे डॉक्टर संदीप दवे सदमे में थे किंतु वे चाहकर भी कुछ कर नहीं सकते थे। क्योंकि काफिले की सारी गाडिय़ों को गोलियों से छलनी करके पंचर कर दिया गया था। नक्सलियों ने पहले टायरों पर ही निशाना साधा। बाद में जवाबी कार्यवाही के समय जब गोलियां समाप्त हो गईं तो वे काफिले पर टूट पड़े।
केंद्र और राज्य सरकार की नाकामी
नवंबर माह में जिन राज्यों में चुनाव होना है उनमें छत्तीसगढ़ सबसे संवेदनशील है। लगभग आधा छत्तीसगढ़ नक्सलियों के कब्जे में है और कुछ जिलों में तो नक्सलियों की ही सरकार है। ऐसी स्थिति में परिवर्तन यात्रा तथा रमन सिंह की विकास यात्रा जिस खुले माहौल में जारी थी वह पहले से ही चिंताजनक बताया जा रहा था। नक्सलियों ने दोनों यात्राओं को निशाना बनाने की बात भी कही थी। सुकमा के संवेदनशील क्षेत्र में पहले भी कई घटनाएं हो चुकी हैं, लेकिन सुरक्षा की रणनीति नहीं बनाई गई। इन नेताओं को सड़क मार्ग से भेजने की योजना गले नहीं उतरती। कर्मा, विद्याचरण और पटेल जैसे नेता हवाई मार्ग से भी भेजे जा सकते थे और भी कई खामियां हैं जिनसे यह पता चलता है कि थोड़ी सतर्कता से नक्सली हमले से बचा जा सकता था। द्य

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