07-Dec-2017 08:39 AM
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कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी के औपचारिक रूप से राजनीति में शामिल होने के 13 साल पूरे हो गए हैं। वैसे तो ये नंबर भारतीय राजनीति के लिए कोई ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। हालांकि ये अपने आप में राहुल गांधी के लिए काफी महत्वपूर्ण है, जो इस क्षेत्र में बाकियों के उतने ही बराबर हैं। इस क्षेत्र में और लोगों के उलट वो एक परिवार से आते हैं-गांधी परिवार से! जिसके पास व्यावहारिक रूप से ब्लू-चिप स्टॉक है। अगर राहुल गांधी, विरासत में मिली गांधी परिवार की राजनीति को आगे बढ़ाते हैं तो ये वक्त है एक बार उन बातों पर ध्यान दिया जाए जो ब्रांड राहुल गांधी को ब्रांड नरेन्द्र मोदी जो अभी प्रधानमंत्री हैं, के बराबर लाएगा।
साफ तौर पर कहा जाए तो राहुल गांधी के हाथ अब तक के करियर में सफलताओं से ज्यादा हार ही लगी है। कांग्रेस की हालिया सफलताओं पर नजर डालें तो इसका श्रेय उनकी मां सोनिया गांधी को ही जाता है, जो राजनीति में अनचाहे और नए सदस्य की तरह शामिल हुईं लेकिन उन्होंने दो दशकों तक शासन किया। उनकी राजनीति में झिझक कुछ कांग्रेसी चाटुकारों की वजह से खत्म हुई, जो पार्टी को तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी से आगे देखना चाहते थे। सोनिया के विपरीत, राहुल की अध्यक्षता में पार्टी 2014 के लोकसभा के चुनावों में सिर्फ 44 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद कांग्रेस को लगातार उत्तरप्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और असम में हार का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, आलोचकों ने राहुल को पप्पू और युवराजÓ जैसे नाम से भी नवाजा। इनमें से कुछ शायद गलत भी हैं। राहुल के जल्द ही कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनने की खबरों के बाद ब्रांड राहुल बनाम ब्रांड मोदी की बहस फिर से गर्म हो गई है। क्या इन दोनों ब्रांड को भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक साथ देखा जाना संभव है? खासकर जब वे दोनों प्रतिष्ठित प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिए दावेदार हैं?
कांग्रेस का पूरे देश से सफाया होता जा रहा है, लेकिन पार्टी के नेताओं को अभी तक समझ नहीं आ रहा है कि उनके पैरों के तले की जमीन खिसक चुकी है। बीते कुछ अर्से से कांग्रेस का जिस तरह का आचरण रहा है इससे यह बात तो साफ जाहिर होती है कि पार्टी बिना किसी योजना के ही राजनीतिक मैदान में डटी हुई है। दागी प्रतिनिधि विधेयक को फाड़ डालने वाले राहुल गांधी बिहार में लालू प्रसाद यादव के भ्रष्टाचार के साथ हैं। यूपी को अराजक प्रदेश बनाने वाले अखिलेश सिंह के साथ कांग्रेस ने चुनावी गठबंधन कर जनता को धोखा दिया। जीवन भर कांग्रेस पार्टी की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले वामपंथियों के साथ सहयोग कर रहे हैं ऐसी कई बातें बताती हैं कि न तो कांग्रेस पार्टी के पास कोई एजेंडा है, न विजन है और न ही कोई सशक्त नेतृत्व है जो पार्टी को सही दिशा प्रदान कर सके।
चुनावों में लगातार हार से निराश कांग्रेस अब हताश हो चुकी है। इस बात का अंदाजा गुजरात चुनाव प्रचार से लग जाता है। जब गुजरात में कमियों को ना ढूंढ पाने वाले युवराजÓ ने तो सीधे-सीधे गुजरात के डेवलपमेंट को ही पागल करार दे दिया। दरअसल जिस गुजरात को लोग विकास के लिए ही जानते हैं, जिस गुजरात में 24 घंटे बिजली है, जिस गुजरात के सभी गांव सड़कों से जुड़े हुए हैं, जिस गुजरात में प्रति व्यक्ति आय टॉप के राज्यों में है, जिस गुजरात में देश-दुनिया के लोग इन्वेस्ट करना चाहते हैं, जो गुजरात एक मॉडल है क्या वहां विकास नहीं हुआ है? अगर कांग्रेस को विकास को चुनाव का आधार ही बनाना था तो वह गुजरात में विकास के नये आयाम देने की बात कहती, गुजरात में इन्वेस्टमेंट बढ़ाने की बात कहती, गुजरात को भारत के राज्यों में विकास की दृष्टि से टॉप पर लाने की बात कहती, लेकिन जिस तरह से गुजरात के विकास को पागल कहा जा रहा है उससे साफ है कि कांग्रेस एजेंडा लेस पार्टी है।
गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी जीएसटी और देश में रोजगार को निशाना बना रही है। कांग्रेस पार्टी 21वीं सदी में भी गुजराती समाज को जाति-जमात में बांट कर राजनीति करना चाह रही है। राहुल गांधी तमाम कुतर्कों के सहारे कांग्रेस को गुजरात में जीत दिलाना चाहते हैं, लेकिन गुजरात की जनता यह जानती है कि जीएसटी को लागू करने के लिए पूरे देश की राज्य सरकारों ने प्रस्ताव पास किया है, सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सहमति है और इसमें कांग्रेस की राज्य सरकारें भी शामिल हैं। फिर विरोध का कारण क्या है? दूसरी ओर रोजगार के अवसर को लेकर वे दलील देते हैं, लेकिन उन्हें समझना होगा कि 125 करोड़ के देश में युवाओं को कोई भी पार्टी नौकरी नहीं दे सकती। बस उन्हें स्वरोजगार के जरिए स्वावलंबी बना सकती है। मोदी सरकार ने मुद्रा योजना के तहत 9 करोड़ युवाओं को स्व-रोजगार दिया भी है। तीसरा यह कि राज्य को जातिवादी राजनीति की तरफ धकेलने की कांग्रेस पुरजोर कोशिश कर रही है, लेकिन यह सच है कि गुजरात में सबका साथ, सबका विकास है जातिवाद नहीं।
ट्रोल्स का प्रिय जननेता कैसे बना?
राहुल के व्यक्तित्व में आए इस क्रांतिकारी बदलाव के पीछे के कारण क्या हैं? एक ऐसा नेता जिसे अपने राजवंश का बहादुर शाह जफर माना जाता था, लोग पप्पू कहकर जिसका मजाक उड़ाते थे, जिस पर बनाए गए मीम और चुटकुले हमेशा सोशल मीडिया पर छाए रहते थे, वो आखिर जननेता कैसे बना? तजुर्बा कहता है कि, किसी भी बदलाव या घटना के पीछे तीन कारण होते हैं- समय, स्थान और कोशिश (अभ्यास)। पुरानी कहावत है, करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।Ó राहुल गांधी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। राजनीति में निरंतर संघर्ष, कठिन वक्त और विपक्ष की शोला जुबानी ने राहुल को कुंदन बना दिया है।
राजनीति में राहुल कितने कामयाब होंगे, ये बात अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन लोगों के सामने उन्होंने अपनी जो मानवीय छवि पेश की है, वो वाकई बहुत प्रभावशाली है। पहले राहुल हर काम बहुत जल्दबाजी में किया करते थे, बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देते थे। जिसकी वजह से न सिर्फ उनका मजाक उड़ता था, बल्कि कोई भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था, लेकिन अब तस्वीर बिल्कुल बदल चुकी है। राहुल अब धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी मजबूत छवि को पेश कर रहे हैं। राहुल अब अपनी अदा और अंदाज बदल चुके हैं। उनके हर बयान, हर ट्वीट में निरालापन नजर आ रहा है।
अब शुरू होगा राहुल युग
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पांच दिसंबर को 132 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाएंगे। कांग्रेस कार्यसमिति ने संगठन चुनावों के कार्यक्रम को मंजूरी दे दी। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अकेले राहुल गांधी के ही नामांकन करने की संभावना है इसलिए चार दिसंबर को ही उनका अध्यक्ष बनना तय हो जाएगा और पांच को इसकी औपचारिक घोषणा हो सकती है। इस तरह नौ और 14 दिसंबर को दो चरणों में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों से पहले राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की संभावना है। आजकल जिस सधे हुए और पैने अंदाज में राहुल लोगों के सामने अपनी बात रख रहे हैं, वो वाकई काबिल-ए-तारीफ है। राहुल का बदला हुआ अंदाज और उनका नया अवतार लोगों को भा गया है।
इसलिए लीडर लेसÓ पार्टी है कांग्रेस !
भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि मुख्यमंत्री विजय रुपाणी और उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल के नेतृत्व में उनकी पार्टी गुजरात चुनाव लड़ रही है, वहीं कांग्रेस ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है। कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि वो किसके चेहरे पर चुनाव लड़ रही है, भरत सिंह जी या शक्ति सिंह या फिर राहुल गांधी। साफ है कि कांग्रेस में अभी कोई नेतृत्व नहीं दिख रहा है। हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के सहारे मैदान में उतरी कांग्रेस यह भी बता पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है कि किस आधार पर वह पाटीदारों और ओबीसी को आरक्षण देगी। जाहिर है बरगलाने की राजनीति के तहत कांग्रेस इन लोगों को अपने खेमे में ले तो आई है, लेकिन इन्हें कितना प्रतिनिधित्व मिलेगा यह किसी को नहीं पता। दरअसल कांग्रेस पार्टी गुजरात की जनता को टोटल कन्फ्यूजन में रखना चाहती है ताकि कुछ राजनीतिक लाभ लिया जा सके।
- दिल्ली से रेणु आगाल