07-Dec-2017 07:41 AM
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पहला राउंड, पहली जीत। महज 48 सेकेंड में मिजोरम के रेसलर पर जीत। मिजोरम को वैसे भी कुश्ती के लिए नहीं जाना जाता, लेकिन सुशील कुमार की यह जीत इस बात का संकेत था कि अगले राउंड रोचक होंगे। उत्सुकता बढ़ रही थी। सुशील के ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया - पहली जीत भारत की बेटियों को समर्पित। दूसरा राउंड। इस बार झारखंड के मुकुल मिश्रा पर जीत। यह जीत भी चंद सेकेंड की ही बात थी। एक मिनट 33 सेकेंड में दो जीत। सुशील का ट्विटर हैंडल देख रहे लोग कुश्ती के समय से भी ज्यादा तेजी से जीत समर्पित करने में लगे थे। इस बार की जीत को भारत के जवानों के नाम किया गया।
अब असली मुकाबलों की बारी थी। पहले परवीन। फिर सचिन राठी और आखिर में प्रवीण राणा। वही राणा, जो सुशील का बहुत सम्मानÓ करते हैं। तीनों ने सुशील को वॉकओवर देने का फैसला किया। राणा पहले भी सम्मान देकर सुशील के लिए हटे हैं। दो बार का ओलंपिक मेडलिस्ट बगैर लड़े, महज एक मिनट 33 सेकेंड में नेशनल चैंपियन बन गया। सिर्फ सम्मानÓ के नाते। हर तरफ से आवाज आई कि सुशील का इतना सम्मान है कि उनके खिलाफ लडऩे के बजाय हटना बेहतर समझा गया। इस बीच सुशील के ट्विटर हैंडल से ट्वीट जारी रहे। तीसरी जीत शहीदों के नाम कर दी गई। वो जीत, जिसमें सुशील लड़े ही नहीं। चौथी जीत को मां-बाप, गुरु सतपाल और यहां तक कि स्वामी रामदेव को समर्पित किया गया।
पांचवीं जीत देश के हर नागरिक के नाम आई। बार-बार याद दिलाने की जरूरत नहीं कि यह जीत भी बगैर लड़े ही आई। ...और इसी के साथ तीन साल बाद सुशील कुमार ने शानदारÓ वापसी कर ली। उनका ट्विटर हैंडल बल्ले-बल्ले हो गया। पत्नी से लेकर हर अखबार की स्टोरी को रीट्वीट किया जाने लगा। इससे समझ यही आता है कि सुशील को यह जीत वाकई सम्मान ही लगती है। उनके लिए जीतना जरूरी है। सामने कौन था, कौन नहीं, कौन लड़ा, कौन नहीं...इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ लोग कहेंगे कि फर्क पडऩा भी नहीं चाहिए। अगर कोई वॉकओवर देना चाहता है, तो इसमें सुशील क्या कर सकते हैं। वो तो लडऩे के लिए तैयार ही थे। अगर यही परंपरा है, तो फिर सुनील गावस्कर से लेकर सचिन तेंदुलकर तक हर किसी के साथ यही सुलूक होना चाहिए था। सचिन जब मुंबई के लिए बल्लेबाजी करते, तो जरूरी था कि विपक्षी गेंदबाज उन्हें गेंदबाजी करने से इनकार कर देते कि इतने बड़े बल्लेबाज को हम कैसे गेंदबाजी करें। इसी तरह बाइचुंग भूटिया के सामने विपक्षी टीम के डिफेंडर को हट जाना चाहिए ताकि वो जाते और खुले गोल में गोल कर आते। यह बात हर खेल में लागू होनी चाहिए। अभिनव बिंद्रा को तो 2008 में गोल्ड जीतने के बाद किसी भी राष्ट्रीय चैंपियनशिप में हिस्सा लेना हो, तो अकेले ही होना चाहिए था। उनके सामने सारे शूटर्स को नाम वापस ले लेने चाहिए।
ऐसा नहीं हुआ और होना भी नहीं चाहिए था। अगर वाकई इन तीन पहलवानों के हटने के पीछे सिर्फ सुशील के लिए सम्मान का भाव था, तो भी यह गलत है। वो सुशील का सम्मान कर रहे थे, लेकिन उस खेल का नहीं, जिसके लिए पूरी जिंदगी लगाने का फैसला किया है। खेल का अपमान करके आप खिलाड़ी का सम्मान कैसे कर सकते हैं।
दिलचस्प है कि खुद सुशील भी नहीं समझ पाए कि उनके सम्मान का मतलब खेल के अपमान से है। अगर सुशील यह कहते कि वो खुद को नेशनल चैंपियन नहीं मानते, क्योंकि उन्होंने लड़कर मुकाबले नहीं जीते, तो उनका सम्मान और बढ़ता, लेकिन शायद अभी सुशील और उनके आसपास के लोग इस तरफ सोच नहीं रहे हैं। वे शायद सोच रहे हैं अगले साल होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों के बारे में।
कॉमनवेल्थ में कुश्ती का स्तर बहुत अच्छा नहीं होता। ऐसे में सुशील एक और गोल्ड जीतने की सोच सकते हैं। भले ही नेशनल्स में उन्हें देखकर विशेषज्ञों को यही समझ आया कि पुराने सुशील और इस सुशील में स्तर का बहुत बड़ा फर्क है, लेकिन सुशील का अनुभव और उनकी मेहनत इस फर्क को कम से कम कॉमनवेल्थ के लिए दूर कर सकती है। शायद इस पूरी कवायद के पीछे कॉमनवेल्थ ही है। उसी के चलते सुशील को इस कदर सम्मानÓ दिया गया है।
भारतीय कुश्ती को जितना देखा-समझा है, उसमें सम्मान का तर्क वैसे गले नहीं उतरता। डर का जरूर उतरता है, क्योंकि भारतीय कुश्ती में डर का हमेशा बोलबाला रहा है। जहां सामने वाला इस बात पर खौफ खाता है कि अगर किसी बड़ेÓ को हरा दिया, तो उसके साथ न जाने कैसा सुलूक होगा। इंदौर में यकीनन सुशील चैंपियन बन गए। उन्होंने खुशी भी जता दी। देशवासियों को जीत समर्पित भी कर दी। लेकिन देश के सबसे बड़े खिलाडिय़ों में शुमार होने वाले इस खिलाड़ी का कद सम्मान के खेलÓ से छोटा हुआ है। भले ही उसमें सुशील का कोई हाथ न हो, लेकिन जिसका भी है, उसने सुशील के साथ न्याय नहीं किया।
-आशीष नेमा