30-May-2013 06:40 AM
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बिहार में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। जब से भाजपा और जनतादल यूनाइटेड के संबंधों में कड़वाहट आई है। बिहार की सत्ता के कई दावेदार अपनी तलवारें तेज करने में जुट गए हैं। इन्हीं

में से एक हैं लालू प्रसाद यादव जिनके शासनकाल में बिहार अराजकता की पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। स्वयं लालू ने रेल मंत्री रहते हुए यह स्वीकार किया था कि वे बिहार में उतना बेहतर काम नहीं कर पाए जितना कि उन्होंने रेल मंत्री के रूप में रेलवे को लाभ का उपक्रम बनाने में किया। यही कारण है कि जब उन्होंने पटना के एतिहासिक गांधी मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया तो लोगों को सहसा विश्वास नहीं हुआ कि ये वही लालू हैं जिन्होंने बिहार की तकदीर को कुचल डाला था और अब उसे संवारने का वादा करके एक बार फिर से चुनावी मैदान में हैं।
हालांकि चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन लोकसभा की घमासान कभी भी हो सकती है। इसी कारण लालू मैदान बनाने में जुट गए हैं पर उनकी यह कोशिश कितनी रंग लाएगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। परिवर्तन रैली में लालू यादव और उनका कुनबा ही दिखाई दे रहा था। मंच पर आसीन थे उनके दोनों सुपुत्र और धर्मपत्नी राबड़ी देवी। इससे यह भी आभास मिला कि लोहियावादी लालू अब कांग्रेस के नक्शेकदम पर चलते हुए परिवारवाद और वंशवाद के पुरोधा बनते जा रहे हैं। सुनने में तो यह भी आया है कि उनकी बिटिया मीसा राजनीति में जोर आजमाने की तैयारी कर चुकी हैं। इस रैली में जुटी भीड़ ने यह तो सिद्ध किया कि लालू यादव अभी भी बिहार में भीड़ जुटाने की काबिलियत रखते हैं। लेकिन भीड़ लालू को गंभीरता से सुनने आई थी या पूड़ी-सब्जी खाने आई थी या फिर सचमुच परिवर्तन के लिए आई थी यह कहना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि बिहार की राजनीति जरा अलग तरह की है। यहां जनता सुनने सबको जाती है लेकिन चुनने के लिए दिमाग का इस्तेमाल करती है। नीतिश को जनता ने दोबारा चुना जबकि चुनावी सभाओं में भीड़ के मुकाबले में लालू उनसे ज्यादा लोकप्रिय दिखाई पड़ते थे। जनता का यही चरित्र लालू के लिए चिंता का विषय है। बहरहाल भीड़ ने उनके हौंसलों को बुलंदी तो दी है। सुप्तावस्था में पहुंची राष्ट्रीय जनतादल पार्टी ने लालू की रैली के लिए भीड़ के इंतजाम में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पार्टी ने डेढ़ करोड़ रुपए देकर 13 ट्रेनें बुक कराई थी। 5 हजार बसे और 60 नावें बुक कराई गईं थी। लालू की बेटी मीसा और पूरा परिवार इस आयोजन को सफल बनाने में जुटा हुआ था। राष्ट्रीय जनतादल के एक नेता ने इस आयोजन को सफल और परिवर्तनकारी बताया है। वहीं लालू की पार्टी के बहुत से नेता लालू की परिवर्तन रैली से खुश नहीं हैं। उन्हें इस बात का मलाल है कि लालू राष्ट्रीय जनतादल को अपने कुनबे की पार्टी बनाने में जुटे हुए हैं और इस मामले में वे मुलायम सिंह यादव की तर्ज पर भाई-भतीजों, बेटों सबको राजनीति में घसीट रहे हैं। यहां तक कि लालू ने अपनी ही पार्टी के कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार कर अपने बेटों-बेटियों और पत्नी को ज्यादा तवज्जो दी। लालू के दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी में ऐसी कोई खास विशेषता नहीं है दोनों की वाकशक्ति भी उतनी अच्छी नहीं है जितनी लालू की है। लालू के ठेठ राजनीतिज्ञ हैं जो बिहार की बिहारीपन से ओतप्रोत जनता को ज्यादा अपील करते हैं, लेकिन उनके दोनों पुत्र उस तरीके से जनता को अपील नहीं करते।
लालू ने इस रैली में नीतिश को जमकर कोसा। चारा घोटाले में आरोपी रहे लालू ने कहा कि नीतिश सरकार में भ्रष्टाचार बेतहाशा है। घूसखोरी के बगैर कोई काम नहीं होता और अपना हक मांगने के लिए लाठियां चलती है। पहले गरीब बच्चा स्लेट लेकर स्कूल जाता था अब प्लेट लेकर स्कूल जाता है। नीतिश के शासन में मुखिया पंचायत समिति और होमगार्ड तक का बुरा हाल है। नीतिश कुमार का पतन शुरू हो गया है। क्योंकि उन्होंने बिहार के लोगों के साथ धोखा किया है। हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार का तोता कहा था तो वह दर्द लालू को भी भीतर ही भीतर साल रहा था। लिहाजा उन्होंने नीतिश को आरएसएस का तोता कह दिया। जवाब में नीतिश ने लालू को बड़बोला कहकर अपने मन की भड़ास निकाली। लालू द्वारा नीतिश को तोता कहे जाने से यह तो साफ हो गया है कि लालू का अब कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है। कांग्रेस ने अपने तोतेÓ के मार्फत लालू को डरा धमकाकर पांच साल बिना शर्त समर्थन के सरकार तो चला ली लेकिन उन्हीं लालू को घी की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया। एक जमाना था जब कांग्रेस के पास भीड़ जुटाने वाले वक्ता नहीं थे तो लालू ही कांग्रेस की चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने वाले वक्ता बनकर जाया करते थे। लेकिन अब मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं। हताश लालू ने अब अकेले चलने का बीड़ा उठा लिया हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के समय यदि भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ती हैं तो राज्य में नीतिश और कांग्रेस का गठबंधन तय है। यह गठबंधन भाजपा को भले ही फायदा न पहुंचाए लेकिन लालू को पर्याप्त नुकसान पहुंचाएगा। क्योंकि लालू भी कमोबेश उसकी तबके के बीच राजनीति करते हैं जिस तबके के बीच कांग्रेस और जनतादल यूनाइटेड की राजनीति चलती है। इसी कारण भारतीय जनता पार्टी के पास बिहार में खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। बिहार की सत्ता से बेदखली के बाद लालू ने जब 2007 में चेतावनी रैली की थी उस वक्त कांग्रेस उनके साथ थी। इस बार माहौल बदला हुआ है इस बार कांग्रेस खुलकर लालू के साथ नहीं है बल्कि अवसरवादी राजनीति के चलते कांग्रेस और जनतादल यूनाइटेड नजदीक आने लगे हैं इसी कारण लालू ने अब कांग्रेस से भी दूरिया बनाना शुरू कर दी हैं। जहां तक तीसरे मोर्चे का प्रश्न है। तीसरे मोर्चे में उन्हीं पार्टियों को झक मारकर शामिल होना पड़ेगा जो राज्यों में एक दूसरे का विरोध करती हैं। यही कारण है कि तीसरे मोर्चे का गठन संभव नहीं दिखाई देता और इसीलिए राष्ट्रीय राजनीति ज्यादा संभावनाएं न होने के कारण अब लालू का प्रदेश में लौटना लाजमी हो चुलवा है।
आरएमपी सिंह