एक राष्ट्र, एक चुनाव कब...?
01-Nov-2017 07:49 AM 1234996
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।। कबीरदास जी की तरह 2014 में नरेंद्र मोदी ने बिना किसी लाग लपेट के कहा था कि जो देश को आगे बढ़ता देखना चाहता है, जिसे अच्छे दिन की जरूरत है वह हमारे साथ आए। जनता के तथाकथित हिमायती, संसदीय अधिकारों की रक्षा के तथाकथित योद्धा, भ्रष्टाचार के तथाकथित सर्वोपरि दुश्मन के साथ पूरा देश हो लिया, लेकिन आज तीन साल बाद न अच्छे दिन आए, न भ्रष्टाचार कम हुआ। बल्कि मिला तो चुनाव पर चुनाव। 36 माह में 17 विधानसभा चुनाव झेल चुके देश बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि की मार झेल रहा है, लेकिन सरकार या किसी भी राजनीतिक पार्टी को इसकी चिंता नहीं है क्योंकि उनके सामने फिलहाल हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव जो हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि देश में महंगाई और गरीबी का एक बड़ा कारण चुनाव पर चुनाव भी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों न सभी चुनाव एक साथ कराए जाएं। ज्ञातव्य है कि देश में लोकसभा, विधानसभा, नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों के माध्यम से जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं। इससे हर साल देश में चुनावी माहौल रहता है। इस कारण विकास भी बाधित होता है, क्योंकि सरकारों के पास काम करने के लिए समय नहीं बचता है। इसको देखते हुए 2014 के शुरूआती महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राष्ट्र, एक चुनाव की बात आगे बढ़ाई थी। आगे नहीं बढ़ी बात मई 2014 की 26 मई को जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तो देश को नवजागृति की आस जगी थी। इसी कड़ी में एक राष्ट्र, एक चुनावÓ भी था, क्योंकि 2014 के आम चुनाव में भाजपा के घोषणा-पत्र में चुनाव सुधार और लोकसभा व राज्य विधानसभा के चुनाव साथ कराने का मुद्दा था, लेकिन उसके बाद से पिछले 3 साल में तेरह राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, लेकिन एक राष्ट्र, एक चुनाव का मुद्दा गौण ही रहा। हालांकि दिसंबर 2015 में संसद की संबंधित स्थायी समिति ने संयुक्त चुनावों पर अपनी रिपोर्ट पेश की। मार्च 2016 में प्रधानमंत्री ने यह मुद्दा भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उठाया, लेकिन उसके लिए अभी तक कोई ठोस नीति बनती नहीं दिख रही है। दरअसल एक राष्ट्र एक चुनाव का मुद्दा केवल सियासी संकल्प बनकर रह गया है। ज्ञातव्य है कि आजादी के बाद जब चुनावी प्रक्रिया शुरू हुई, तो 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए। बाद में राज्य विधानसभाओं के समय से पहले विघटन और लोकसभा की प्रक्रिया के भी बाधित रहने के कारण लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग कराए जाने लगे। इससे चुनावी व्यवस्था इस कदर बिगड़ी की अब देश में काम नहीं चुनाव ही हो रहे हैं। हम अमेरिका, जापान, चीन और रूस की बराबरी करने का दम भर रहे हैं, लेकिन सालभर चुनावी में व्यस्त रहते हैं। चुनावों के दौरान विकास के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन धरातल पर कुछ और ही तस्वीर नजर आती है। संविधान समीक्षा के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग (वेंकटचलैया आयोग) की मसौदा समिति के पूर्व अध्यक्ष सुभाष कश्यप एक साथ चुनाव कराए जाने का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि इससे चुनाव पर होने वाला खर्च आधे से भी कम हो जाएगा, लेकिन इसके लिये संविधान के अनुच्छेद 83(2) (लोकसभा का कार्यकाल), अनुच्छेद 85 (संसदीय सत्र को स्थगित करना और खत्म करना), अनुच्छेद 172(1) (विधानसभाओं का कार्यकाल) और अनुच्छेद 174 (विधानसभा सत्र को स्थगित करना और खत्म करना) में संशोधन करना होगा... तथा इससे भी बड़ी चुनौती राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति बनाने की होगी। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने वर्ष 2002 में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में 230 सिफारिशें की थीं, जिनमें मौलिक अधिकारों के विस्तार और उसमें नए अधिकार तय करने के अतिरिक्त मौलिक कर्तव्यों, चुनाव सुधारों और राजनीतिक दलों के आचरण सहित अनेक मुद्दों पर सिफारिशें शामिल थीं। सभी तैयार फिर क्या व्यवधान सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में हैं। खासकर भाजपा का तो चुनावी मुद्दा ही विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने का रहा है। फिर व्यवधान कहां आ रहे हैं। पहली बात तो यह है कि बार-बार चुनाव के चलते नियमित राजनीतिक रैलियों के कारण सार्वजनिक जीवन प्रभावित होता है। जब भी चुनाव होते हैं, राजनीतिक पार्टियां चंदे जुटाती हैं। अक्सर ये चंदे दान के रूप में व्यावसायिक घराने या समृद्ध लोग देते हैं। यह भ्रष्टाचार की बुनियाद रखता है, क्योंकि जब पार्टियां चुनाव जीतकर सत्ता में आती हैं, तो अपने दानदाताओं को उपकृत करने के लिए सरकारी नीतियों को उनके अनुकूल बनाती हैं। निर्वाचन आयोग भी चुनाव कराने के लिए पैसे खर्च करता हैं। बार-बार चुनाव होने से भारी मात्रा में सार्वजनिक धन बर्बाद होता है। दूसरी बात, जब भी चुनाव होते हैं, तो नीति निर्माण की प्रक्रिया और सामाजिक माहौल बिगड़ जाता है। बार-बार चुनाव का सामना करने वाली सरकारें दीर्घकालीन के बजाय अल्पकालीन मुद्दों पर ही ज्यादा ध्यान देती हैं। इससे सुशासन की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। चुनाव अभियान में अनिवार्य रूप से जाति, धर्म, उप-जाति और अन्य विभाजनकारी ताकते मजबूत होती हैं, जो हमारे राष्ट्रीय ताने-बाने को कमजोर करती हैं। तीसरी बात, चूंकि ऐसे चुनाव देश के कुछ हिस्से या अन्य हिस्सों में बार-बार होते हैं, इसलिए वहां चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है, जो संबंधित राज्य में सरकार के तमाम फैसलों पर प्रतिबंध लगा देती है। इसका असर योजनाओं के क्रियान्वयन एवं सुशासन पर भी पड़ता है। चौथी बात, चुनाव के दौरान भारी संख्या में कर्मचारियों और अद्र्धसैनिक बलों की जरूरत पड़ती है। जब भी इस तरह के चुनाव होते हैं, तो अद्र्धसैनिक बलों की तैनाती होती है, जिसके चलते पूर्वोत्तर, जम्मू-कश्मीर और माओवाद प्रभावित जिलों जैसे संवेदनशील क्षेत्र में उनकी पर्याप्त तैनाती नहीं हो पाती। भले ही एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में ये तमाम तर्क वजनदार हैं, लेकिन इसके विरोध की आवाजें भी दमदार हैं। उसकी वजह है कुछ संवैधानिक परिवर्तन करने की। संशोधन की आवश्यकता मौजूदा संवेधानिक प्रावधानों को देखते हुए एक साथ चुनावों का आयोजन संभव नहीं है। मार्च से जून, 2019 में निर्धारित लोकसभा चुनाव के साथ राज्यों के चुनाव कराने के लिए संविधान में व्यापक बदलाव, कटौती या विस्तार के लिए संशोधन की आवश्यकता होगी। एक तरफ जहां कुछ राज्यों की विधानसभा के कार्यकाल में 24 महीने की कटौती करनी होगी, वहीं कुछ राज्यों की विधानसभा में दो वर्ष से अधिक की बढ़ोतरी करनी होगी। तमाम आलोचनाओं के बावजूद अगर हम 2019 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम भी होते हैं, तो फिर यह निरर्थक हो जा सकता है, क्योंकि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के समय से पहले विघटन पर कोई प्रतिबंध नहीं है। यह देखना वाकई दिलचस्प है कि 1967 के बाद लोकसभा और विधानसभाओं का समय से पहले विघटन व्यापक पैमाने पर हुआ है। सोलह लोकसभा चुनाव में से छह लोकसभा चुनाव सदन के पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किए बिना ही आयोजित किए गए। इसी तरह पिछले सत्तर वर्षों में सौ से अधिक बार संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत आपातकालीन प्रावधान (राज्यों में राष्ट्रपति शासन) का इस्तेमाल किया गया। ऐसे कई मामलों में राज्य विधानसभाओं का समय पूर्व विघटन हुआ। सभी विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव कराने का सुझाव स्पष्ट रूप से संभव नहीं है। इसलिए हमें एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पर नजर डालनी चाहिए। हम इन दोनों निकायों की निर्धारित अवधि को यथासंभव अबाधित कर प्रशासनिक प्रक्रिया के व्यवधानों को कम कर सकते हैं। इन निर्वाचित सदनों के कार्यकाल में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए प्रावधानों की जरूरत होगी और निर्वाचन आयोग को चुनाव का समय निर्धारित करने के लिए थोड़ी छूट देनी होगी। निम्नलिखित नीतिगत परिवर्तन के बाद इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है- पहला, संविधान में संशोधन करके राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को छह महीने घटाने या बढ़ाने की अनुमति दी जा सकती है। इससे चुनाव आयोग को ज्यादातर चुनाव एक साथ कराने के लिए एक वर्ष का समय मिलेगा। अगर भविष्य में लोकसभा समय पूर्व भंग हो जाती है, तो चुनाव आयोग इन शक्तियों का उपयोग करके एक साथ चुनाव कराने के लिए राज्यों के समूह को बढ़ा सकता है। दूसरा, इन सदनों में स्थिरता लाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव के साथ विश्वास प्रस्ताव के लिए भी मतदान की अनुमति दे सकते हैं। विधि आयोग एवं चुनाव आयोग ने भी ऐसे ही सुझाव दिए हैं। तीसरा, चुनाव आयोग को मतदाताओं को जागरूक करके एक साथ चुनाव की स्थिति में एक ही पार्टी के प्रति उनके झुकाव को कम किया जा सकता है। ऐसे अभियानों को गैर सरकारी संगठनों और अन्य संगठनों को भी संचालित करना चाहिए। विकास जरूरी चुनाव नहीं पिछले कुछ सालों से पूरा देश चुनाव प्रचार का ही झंडा उठाए रहता है। चुनाव ही चुनाव। देश में विकास अहम है न कि बार-बार चुनाव के फेर में धन की बर्बादी। देश में 1952 में पहला चुनाव विकास के मुद्दे पर हुआ था। उसके बाद अभी तक जितने चुनाव हुए हैं सभी में विकास ही मुद्दा रहा है। ऐसे में किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर यह विकास क्या चीज है जिसे हमारी सरकारों ने 62 साल में भी पूरा नहीं किया। दरअसल विकास केवल चुनावी शगूफा बनकर रह गया है। गुजरात में 22 साल से भाजपा विकास के नाम पर सत्ता में है, लेकिन इस बार चुनावी बिगुल बजते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित पूरी भाजपा राज्य में फिर से विकास की नई-नई घोषणाएं लेकर पिल पड़ी है। गुजरात में विकास के बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं, भूमि पूजन हो रहा है। यह सब चुनावी ढकोसला है। अगर वास्तव में विकास हुआ रहता तो गुजरात में नरेंद्र मोदी सहित पूरी भाजपा को कांग्रेस से मुकाबला करने के लिए इस तरह पसीना नहीं बहाना पड़ता। अगर वास्तव में केंद्र सरकार और राजनीतिक पार्टियां एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए संकल्पबद्ध हैं तो यह काम इतना मुश्किल भी नहीं है। पिछले कई सालों से इस बात पर बहस चल रही है कि देश में सालभर चुनाव होते रहते हैं। खासकर राज्यों के चुनाव। क्यों नहीं लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए? साल 2019 में लोकसभा चुनाव होना है। क्षेत्रीय क्षत्रपों को बचाने के लिए लोकसभा चुनाव के साथ एक बार में 14 राज्यों का चुनाव और फिर ढाई साल बाद अन्य 14 राज्यों में चुनाव कराकर कर्ज के बोझ में दबी जनता को राहत दिया जा सकता है, लेकिन भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुलतावादी देश में सुधारÓ एक ऐसा शब्द है जिसे सबसे ज्यादा मार पड़ती है। चुनाव सुधार भी एक ऐसा ही शब्द है जिसके इस्तेमाल के अपने खतरे हैं, लेकिन इसके विरोध के पहले उस खतरे को भी देखा जा सकता है कि जो पार्टी बढ़-चढ़ कर लोकसभा-विधानसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनाव साथ करवाने की बात करती रही है उसके केंद्रीय शासन में हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ करवाने पर चुप्पी सध जाती है। जो चुनाव आयोग कहता है कि वह अगले साल लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ करवाने को सक्षम है वह इन दो राज्यों के चुनाव एक साथ करवाने में अक्षम हो जाता है। पिछले कई सालों से पूरा देश किसी न किसी तरह के चुनावों में ही उलझा रहता है और हमारे देश के अगुआ तक बिना कोई छुट्टी लिए अपनी पार्टी के लिए ही वोट मांगने में व्यस्त रहते हैं। चुनाव ही चुनाव वाले इस माहौल पर बेबाक बोल। हिमाचल और गुजरात चुनाव एक साथ क्यों नहीं चुनाव सुधार की बात करने वाली केंद्र सरकार और चुनाव आयोग अपनी बात पर कितना अमल कर रहे हैं यह हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनाव से जाहिर होता है। क्या हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव साथ नहीं हो जाने चाहिए? इससे आगे की बात कि क्या लोकसभा, विधानसभा संग अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ नहीं हो जाने चाहिए? राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं, लेकिन पूरे पांच साल तक कहीं न कहीं चुनाव झेलने वाली कौमें जिंदा होने के सपनों में झोंके डाली जा रही हैं और सपना टूटते ही उनके हाथ में आता है एक और चुनाव। पिछले कुछ सालों से पूरा देश चुनाव प्रचार का ही झंडा उठाए रहता है। चुनाव ही चुनाव। आयोग प्रचार करता है कि हमारे यहां पांच सालों तक लगातार हर तरह के चुनाव कराए जाते हैं और हारने वाला खेमा कहता है कि ये तसल्लीबख्श नहीं हुए। इसके पहले जरा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को याद करें। डेढ़ महीने तक चली चुनाव प्रक्रिया ने पूरे सूबे के साथ दिल्ली से सटे इलाकों को भी हलाकान कर दिया था। कभी छुट्टी न लेने वाले प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय अफसर तक डेढ़ महीने तक चुनावी ड्यूटी बजाते रहे। इतनी लंबी प्रक्रिया के कारण पूरे चुनाव का अभूतपूर्व धु्रवीकरण और संप्रदायीकरण हुआ। पहले चरण से शुरू होकर सातवें चरण तक पहुंचा चुनाव लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा चुका था। क्या सितम्बर 2018 के बाद एक साथ होंगे चुनाव अभी हाल ही में चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा था कि आयोग सितम्बर 2018 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए तैयार हो जाएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सितम्बर 2018 के बाद लोकसभा और जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं वे एक साथ हो पाएंगे। चुनाव आयोग ने बेशक सितंबर 2018 के बाद देशभर में एक साथ चुनाव करने में खुद को सक्षम बताया है। एक साथ चुनाव कराने के लिये लगभग 24 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) उतनी ही संख्या में वोटर वेरीफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल मशीनों (वीवीपैट) की जरूरत पड़ेगी। ईवीएम के दो सेटों की जरूरत होगी। एक लोकसभा के लिये और दूसरा विधानसभा चुनावों के लिये। इसके लिये चुनाव आयोग ने सरकार से पैसा मांगा था, जो उसे मिल गया है। चुनाव आयोग की जरूरतें पूरी हो जाने के बाद उसके लिये एक साथ चुनावों का प्रबंधन करना कोई बहुत कठिन काम नहीं रह जाता, लेकिन लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के संदर्भ में चुनाव आयोग के साथ सभी राजनीतिक दलों की सहमति होना अनिवार्य है। एक साथ चुनाव कराने का प्रभाव हर साल छह महीने में देश में कहीं-न-कहीं चुनाव हो जाते हैं। आचार संहिता लागू हो जाती है। सरकार का सारा काम-काज ठप हो जाता है। एक साथ चुनाव होंगे, तो केंद्र सरकार सारा समय किसी-न-किसी राज्य में चुनाव जीतने की चिंता से मुक्त रहेगी। इस बात को लेकर मेरे मन में एक दुविधा है। नेता का चिंताग्रस्त रहना ज्यादा बुरा है, या कि चिंता से मुक्त हो जाना? पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों, यह बहुप्रतीक्षित मुद्दा है। समय-समय पर राजनेता इसे उठाते रहे हैं। पूर्व में यह मुद्दा कांग्रेस के नेता वसंत साठे ने भी उठाया था, लेकिन इस बार इस मामले को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया है। उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान देश और पार्टियों का खर्चा बहुत होता है। चुनाव प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि सरकारी दफ्तरों में कामकाज सीमित हो जाता है। फिर वोट बैंक की राजनीति ऐसी होती है कि वह कई तरह की मजबूरियां पैदा कर देती है। इन सबसे बचने के लिए जरूरी है कि एक साथ सारे चुनाव कराए जाएं। निस्संदेह प्रधानमंत्री का यह सुझाव स्वागत योग्य है, लेकिन क्या यह कारगर हो सकता है, इसी पर बहस होती है और फिर बिना किसी फैसले के समाप्त भी हो जाती है। मप्र में उपचुनाव का घमासान अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो भी गए तो उपचुनावों के कारण लगातार चुनाव होते रहेंगे। मध्यप्रदेश में इन दिनों चित्रकूट विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहा है। यह उपचुनाव छोटा है, लेकिन इसकी जीत-हार न केवल जनता के रूख को साफ करेगी, बल्कि इसके बाद भाजपा-कांग्रेस के राजनैतिक भविष्य का आंकलन भी किया जा सकेगा। क्योंकि पड़ोसी राज्य गुजरात के ठीक बाद मप्र में भी विधानसभा 2018 के चुनाव कराए जाने हैं। लिहाजा इस बात को समझते हुए ही राजनैतिक दल ऐन-ऐन प्रकारेण इस उपचुनाव को जीतने की जद्दोजहद में जुटे हैं। फिर चाहे इसके लिए जातिगत वोट क्यों न लेना पड़े। कांग्रेस-भाजपा द्वारा यहां ब्राह्मणों को प्रत्याशी बनाए जाने के बाद यही कहा जा रहा है। वह इसलिए भी कि, मध्य प्रदेश में चित्रकूट विधाननसभा सीट पर उपचुनाव को लेकर भाजपा ने अपने उम्मीदवार की घोषणा कर दी है। पार्टी ने शंकर दयाल त्रिपाठी को अपना प्रत्याशी बनाया है। शंकर दयाल पिछले 25 सालों से पार्टी के साथ जुड़े हैं और जमीन से जुड़े नेता के तौर पर जाने जाते हैं। इससे पहले वह तमाम पदों रह चुके हैं। भाजपा को भरोसा है कि वह इस सीट पर आसानी से जीत दर्ज कराने का सपना संजोए हुए हैं। जबकि ब्राह्मण वोटों से जीत-हार के गणित को समझते हुए कांग्रेस ने पहले से ही युवा नेता नीलांशु चतुर्वेदी पर दांव लगाने का मन बना लिया था। यह बात अलग है कि वह भाजपा के पत्ते खुलने का इंतजार कर रही थी। लिहाजा उसके द्वारा आजमाए गए दांव से भाजपा को भी ब्राह्मण प्रत्याशी यहां उतारना पड़ा। बावजूद इसके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का कहना है कि चित्रकूट में हमारे नेताओं ने जमीनी स्तर पर काम किया है, हमारी कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में सक्रिय हैं और उन्ही के दम पर हम जीत दर्ज करते आएं हैं, इस बार भी हम इस सीट पर जीत दर्ज करेंगे।
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